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भोजन के बहाने जीवन के रंग

07:51 AM Mar 17, 2024 IST
पुस्तक : सतरंगी दस्तरख़्वान लेखक : सुमना रॉय कुणाल रे अनुवाद : वन्दना राग, गीत चतुर्वेदी प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 213 मूल्य : रु. 399

रमेश जोशी

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प्रस्तुत पुस्तक जीवन और उसकी शैलियों के बदलते स्वरूपों के साथ तादात्म्य बैठाती हुई अपने आप में एक नई शैली की स्थापना करती है। वैसे भी जीवन किसी किराने की दुकान के समान की तरह वर्गीकृत नहीं होता। वह एक प्रकार से गुजरात की प्रसिद्ध और विशिष्ट सब्जी ‘ऊंदियो’ की तरह होता है जिसमें अनेक सब्जियां और मसाले मिलकर अमेरिकी अवधारणा जैसा कोई ‘मेल्टिंग पॉट’ गढ़ते हैं।
भारतीय साहित्य अपनी तरह से श्रेष्ठ होने पर भी इसलिए नोबल तक नहीं पहुंच पाता है कि वह अपने विशिष्ट स्थान से उतरकर इस भौतिक जगत के साथ एकाकार नहीं होता। इस पुस्तक को पढ़कर लगता है, वह बदल रहा है।
पहली नज़र में लगता है यह भरे पेट वाले निठल्ले लोगों की एक सामान्य-सी अंत्याक्षरी है जिसमें विभिन्न डिशेज का रंगीन कोलाज होगा, लेकिन वास्तव में यह इतनी सस्ती और सामान्य कोशिश नहीं है। वैसे तो भरे पेट वालों ने भोजन से खेलते हुए और अधभरे पेट वालों ने विकल्प खोजते हुए तरह-तरह के आविष्कार किए हैं लेकिन इस पुस्तक में भोजन नहीं बल्कि भोजन के बहाने जीवन के विविध रंगों को संजोया गया है।
भारत अपने आप में एक अनादि-अनंत दुनिया है जो इसके विभिन्न अंचलों में छितरी हुई है जिसे विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय संवेदनशील रचनाकारों ने अपने-अपने जीवंत अनुभव के धागों से बुना है जिसमें पारंपरिक अर्थों में खान-पान कम और जीवन के रंग ज्यादा हैं। एक थाली अपने आप में बहुत से देशकाल और सभ्यता-संस्कृतियों को समेटे हुए होती है। न जाने किन-किन संदर्भों से हमें जोड़ देती है। फिर यह तय करना मुश्किल और बेमानी हो जाता है कि कौन-सा मसाला कहां से आया और वह डिश किस देश या धर्म की है। बस, रह जाता है तो एक स्वाद; भोजन के बहाने मानवीय संबंधों का।
इस पुस्तक में किसान आंदोलन के समय ‘गुरु के लंगर’ की परंपरा ने धर्म के एक वैश्विक और इंसानी रिश्तों को भोजन से जोड़ते हुए जो चित्र खींचे हैं वे भोजन का एक नया ही स्वाद उजागर करते हैं।
आज के जीवन को एकरंगी बनाने के जुनून में किसी ऐसे संकलन को पढ़ना भी एक प्रकार से इस खूबसूरत गणतंत्र से साक्षात करना है।

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