स्वच्छता से शिक्षा
विडंबना है कि जिस कार्य को सरकारों, स्थानीय प्रशासन व शिक्षा विभाग को प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए था, उसके लिये सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने पड़ रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अमृतकाल में देश के सभी सरकारी स्कूलों में छात्राओं हेतु अलग शौचालय नहीं बने हैं। जिसकी वजह से मासिक धर्म के दौरान छात्राओं को शर्मनाक स्थिति झेलनी पड़ती है। उन दिनों में वे स्कूल नहीं जातीं। यहां तक कि बड़ी संख्या में छात्राएं स्कूल में अलग शौचालय न होने के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देती हैं। गैर-उत्पादक कार्यों व लोकलुभावन कामों में पैसा पानी की तरह बहाने वाली राज्य सरकारें एक बेहद जरूरी कार्य की अनदेखी कर रही हैं। ये तंत्र की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। इसके बावजूद कि कई अध्ययनों में निष्कर्ष सामने आया है कि स्कूलों में स्वच्छ और क्रियाशील शौचालयों की कमी का सीधा असर छात्राओं की पढ़ाई पर पड़ता है। वजह साफ है कि मुश्किल दिनों में छात्राएं स्कूल कम आती हैं। उपस्थिति कम होने तथा स्कूल छोड़ने की घटनाएं सामने आती हैं। ऐसे तमाम उदाहरण सामने आए हैं जब छात्राएं शौचालय का उपयोग करने से बचने के लिये अपना भोजन, पानी व पेय पदार्थों का उपयोग सीमित कर देती हैं। दरअसल, हालात इतने खराब हैं कि वर्ष 2020 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि चालीस प्रतिशत स्कूलों में या तो शौचालय थे ही नहीं, या फिर वे काम नहीं कर रहे थे।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देश में केंद्र सरकार को स्वच्छता के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिये कहा गया है। साथ ही सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों व आवासीय स्कूलों में लड़कियों की संख्या के अनुरूप शौचालय बनाने हेतु राष्ट्रीय मॉडल तैयार करने को कहा गया है। इससे पहले भी कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में छात्राओं के लिये मासिक धर्म स्वच्छता योजना प्रस्तुत करने का आदेश दिया था। साथ ही स्कूलों में सस्ते सैनिटरी पैड उपलब्ध कराने तथा उपयोग किये गए पैडों के उचित निपटान की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये उठाए गए कदमों पर विशेष जानकारी मांगी गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा है कि सैनिटरी नैपकिन के वितरण के लिये व्यावहारिक परिपाटी बनाने के साथ ही तौर-तरीकों में एकरूपता लायी जाए। जिस पर केंद्र सरकार की दलील थी कि मासिक धर्म स्वच्छता पर राष्ट्रीय नीति का मसौदा हितधारकों की राय जानने के लिये भेजा गया है। विडंबना देखिए कि लगभग एक दशक पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने स्कूलों में लड़कों-लड़कियों के लिये अलग शौचालय और नियमित पानी सुनिश्चित करने को कहा था। इसे शिक्षा का अधिकार अधिनियम का अभिन्न अंग बताया था। सर्वेक्षण बताते हैं कि स्कूलों में अलग शौचालय बनने के बाद छात्राओं की संख्या में खासा इजाफा हुआ था। ऐसे में कुशलता के साथ स्वच्छता सुनिश्चित कराना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। दरअसल, सवाल प्राथमिकताओं का है। धन की कमी का तर्क पाखंड का पर्याय ही है। अंतिम लक्ष्य स्वच्छ प्रथाओं को उन्नत कर छात्राओं की शैक्षिक भागीदारी बढ़ाना ही है।