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पाक साफ

06:59 AM May 12, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

प्रभा पारीक
शुभेन्दु बाबू आज किसी काम से जर्मनी जा रहे थे। विश्व भ्रमण कर चुके शुभेन्दु बाबू के लिये इस तरह की यात्राएं उनके व्यवसाय का हिस्सा भर ही तो थीं। पत्नी रमोला को घर में पीछे से किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं था। भरा-पूरा घर, संयुक्त परिवार था। नौकर-चाकर, दायी-बांदी किसी चीज की कमी ही कहां थी उस घर में। इसलिये बेफिक्र बिंदास जाना-आना होता। आज बच्चों को स्कूल भेजने के बाद पत्नी रमोला ने जब, पति की यात्रा प्रस्थान के लिये उनका सामान जमाया तब सूटकेस के कोने में एक खूबसूरत डिबिया रख दी थी। सुन्दर सजी हुई चांदी की नाजुक डिबिया। सूटकेस के कोने में सहेज कर रखते समय मन में क्या था वह तो पत्नी रमोला ही जाने पर शुभेन्दु बाबू अभी तक इस बात से अनभिज्ञ थे, करीने से रखी डिबिया पर यूं ही नजर नहीं जा सकती थी किसी की। शाम के समय जब शुभेन्दु बाबू यात्रा के लिये निकलने लगे, अवसर देख पत्नी को भरपूर आगोश में ले तृप्त किया, तभी पत्नी रमोला ने उचित अवसर जान कान में कहा था ‘आप जा रहे हैं वहां आप अपनी एर्नविल से भी मिल कर आइयेगा यह आग्रह है मेरा’। शुभेन्दु बाबू ने अचरज से रमोला के चेहरे की ओर ताका जैसे कोई चोरी पकड़ ली गयी हो पर सामान्य भाव से पूछा, ‘सच्ची..‍.?’ और बड़ी-बड़ी आंखों पर सौम्य स्मित भाव लाते भोलेपन से रमोलाजी ने कहा था, ‘हां सच्ची... क्या बुराई है उसमें? वही तो आखिर आपका पहला प्यार है पर... पर वो रमोला जी ने कुछ नहीं कहा उनसे कि अन्तिम प्यार भी वही है। आप आश्वस्त रहिये मिलियेगा जरूर, उसके लिये एक भेंट भी मैंने आपके सामान में रखी है मेरी और से उसे देना मत भूलियेगा।’
एक भरपूर प्यार भरी नजर डाली थी शुभेन्दु जी ने जैसे किसी बालक को मनचाहा खिलौना मिलने का आश्वासन स्वतः ही मिल गया हो। जानती थी रमोला जी अपने पति के रसिक स्वभाव को और संस्कार भी तो मिले थे कि दूसरे के सुख में प्रसन्न होने तथा सुख के लिये नि:स्वार्थ भाव से सहायता करने से ही स्वयं का जीवन सुखमय बनाया जा सकता है। इस मधुर स्वीकृति के बाद तो जैसे शुभेन्दु जी के मन को पंख लग गये, मन था कि विमान की गति को भी पछाड़ जर्मनी पहुंच जाने को आतुर था।
शुभेन्दु जी के पास सब कुछ तो था, फिर भी... एक विवाहित सुखी सम्पन्न पुरुष, संतुष्ट वैवाहिक जीवन होते हुए भी क्यों भ्रमर बने रहने की चाह रखते हैं, क्यों पुरुषों की यह कामना रहती है कि वह अपनी पूर्व प्रेमिका से मिल लें, पहले की तरह आंखें चार कर भावों का आदान-प्रदान कर लें और स्वयं के अन्तर में तरोताजगी महसूस कर पाक साफ-सा आकर पुनः अपनी गृहस्थी में रच-बस जाये।
शुभेन्दु जी ने विवाह की रात ही अपने सारे संबंधों का स्पष्टीकरण दे दिया था और उसी वक्त कहा था वह मेरा भूतकाल था, वर्तमान में मैं तुम्हारा हूं जो आज का सच है। उस रात रमोलाजी ने महसूस किया जैसे कोई नटखट बच्चा अपनी झोली में भरा सारा कचरा उनके आंचल में डाल पाक-साफ सामने खड़ा हो। दूसरी ओर नारी का कोमल मन कितनी सहजता से सब स्वीकार कर सुखद जीवन की आस में सपने संजोने लगता है। विचार करती हूं कि यदि रमोला जी ने अपने इसी तरह के किसी भूतकाल के संबधों का खुलासा उस रात किया होता तो क्या शुभेन्दु जी को इतनी सहजता से स्वीकार्य होता। समाज में पुरुषों को अपना वर्चस्व बनाये रखना सीखना नहीं पड़ता, यह स्वतः ही खून के कतरे-कतरे में रचने-बस जाने वाला गुण है। शुभेन्दु जी तो यह मान कर ही चल रहे थे कि पत्नी रमोला का इस बात से कोई एतराज होगा ही क्यों? वह स्वयं भी तो ऐसे ही किसी समाज से आई है, यह वह समाज है जिसने आधुनिकता का तमगा जन्मजात धारण कर रखा होता है।
कभी-कभी हमारे इसी समाज की महिलाएं पति को प्रसन्न रखने की कला में इतनी शातिर हो जाती हैं कि इसे समझौता न कह कर आधुनिकता के नकाब तले स्वयं को दबा अपने आंसू और पीड़ा को अपनी गरिमा की चादर तले ढक सिसकती रहती हों, पर जगजाहिर नहीं होने देती।
शुभेन्दु जी जर्मनी पहुंच गये, अपना जरूरी काम निपटाया और फुर्सत पाकर अपने भूतकाल के प्रेम पल्लवित वृक्ष का सिंचन करने की तत्परता दिखाने में पल भर का समय भी नहीं लगाया। जा पहुंचे एर्नविल की चाहत में आतुर, जाना-पहचाना माहौल उन्हें स्ट्रीट में न लेन खोजनी पड़ी न विला। शुभेन्दु जी ने जाने-पहचाने जिस द्वार को खटखटाया एक संभ्रांत वृद्ध महिला ने दरवाजा खोला, घर का कलेवर बदला हुआ था। आखिर निर्जीव दीवारों से भी बीस वर्ष पुराना दोस्ताना था। पर फिर भी घर का कोना-कोना सजीव हो जैसे स्वागत को आतुर लग रहा था। शुभेन्दु जी ने अपना नाम-पता बताया और एर्नविल से मिलने की इच्छा बताई। अपना परिचय देने ही जा रहे थे कि उस महिला ने अपनी भाषा में उनका नाम शुबुदु बताते हुए कहा- मैं आपको जानती हूं, आप वही भारतीय हैं जो बहुत समय पहले पांच वर्ष के लिये इस शहर में रहे थे। उसी दौरान आपका उससे मिलना-जुलना था। जर्मनी में उस समय भी इस तरह के रिश्तों को स्वीकृति बड़ी सहजता से मिल जाती थी। हमारी तरह रात के अंधेरों की चाह नहीं होती। वह समाज हमारे भारतीय समाज से भिन्न था, इसलिये किसी वाद-विवाद का सवाल नहीं था। कोई सफाई की मांग भी नहीं की गई थी उनसे, उस महिला ने चाय-पानी से स्वागत करने के बाद बताया- एर्नविल के पिता का यह घर हमने खरीद लिया है। उसके माता-पिता तो अब नहीं रहे पर एर्नविल अपने पति-बच्चों के साथ अगली ही लेन में रहती है, मैं उसे सूचित करती हूं। शुभेन्दु जी ने अपने बल्लियों उछलते दिल को किसी तरह से थाम रखा था। फोन पर सूचना मिली कि वह स्वयं आ रही है। ऊंची-नीची पगडंडी पार करती सामने से एर्नविल आती नजर आयी। उम्र का हल्का-सा प्रभाव उसके चेहरे पर नजर आ रहा था पर उसके प्रेम के उन्माद, जोश , आलिंगन की उष्मा में कहीं कोई कोताही शुभेन्दु जी को नजर नहीं आई। प्रेम भरे भावों से सराबोर मन तृप्त हुए। उन्हें अपने घर ले गयी। सादगी भरा साफ-सुथरा रहन-सहन, बच्चे और पति उनसे मिले। उसी उष्मा से... अचरज... हमारे समाज में पत्नी के मित्र का कैसा स्वागत होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
एर्नविल ने अपने बीते वर्षों के बारे में बताया। पति से मुलाकात के बारे में भी, शुभेन्दु जी से बिछोह के बारे में सभी बातें उसने बताई और उन सभी तितलियों के बारे में भी बताया, जिनके साथ भी शुभेन्दु जी के संबंध थे। लेकिन प्यार एर्नविल से ही था। ऐसा एर्नविल ने भी मान रखा था। रात को सोने जाते समय एर्नविल अपनी परंपरा-संस्कृति के अनुसार एक उष्मा भरा चुंबन देना नहीं भूली। वही तो पूंजी थी शुभेन्दु जी के पास उस मधुर मिलन की जो वह अपने साथ ले आये थे रमोला जी की झोली में डालने। शुभेन्दु जी ने उसका हाथ इतनी नाजुकता से थामा और कहा तुम्हारे लिये मेरी पत्नी ने उपहार भेजा है। एर्नविल ने कहा, ‘आप सो जायें, मैं स्वतः आपके सूटकेस से निकाल लूंगी।’ आश्वस्त होकर शुभेन्दु जी सो तो गये पर आंखों में पिछले बीस वर्ष के चित्र, चलचित्र की तरह चल रहे थे। विचार कर रहे थे वो कॉलेज के दिन, वो उन्माद भरा मिलन, और एर्नविल के वह गुण जिन पर वह फिदा थे। सप्ताहांत में जब भी समय मिलता एर्नविल उनकी उपस्थिति में आती और उनका सभी सामान करीने से लगाकर साफ-सफाई कर के चली जाती। यह उसके शुभेन्दु जी के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति थी। और शुभेन्दु जी की अभिव्यक्ति...। उनकी अनेक थी पर एक भ्रम का परदा था कि एर्नविल उनका पहला प्यार है। वास्तव में एर्नविल एक समर्पित महिला थी। मेहनती, संवेदनशील महिला ने इस संबंध को गंभीरता से लेकर शुभेन्दु जी को दिल के किसी कोने में अहसास करा दिया था कि आप चाहे स्त्री के विषय में कैसे भी विचार रखते हों पर मेरे दिल पर, मन पर आपका नाम अंकित है, अब चाहे कुछ भी क्यों न हो ...और उसकी यही निर्मल भावना आज उन्हें यहां तक खींच लाई थी। यह अहसास उन्हें देर से हुआ था।
अचानक उन्हें कुछ लगा। बाथरूम जाने लगे, सामने के कमरे में एर्नविल एक-एक कपड़ा सूंघ रही थी जैसे कपड़े की तहों में अपना पहला प्यार तलाश कर रही हो। शुभेन्दु जी इन क्षणों में कमजोर नहीं पड़ना चाहते थे इसलिये वह तुरन्त वहां से हट गये। कुछ समय बाद उन्होंने एर्नविल से पूछा, तुम खुश तो हो न अपने जीवन से, एर्नविल ने मात्र इतना ही कहा, पहला प्यार तो पहला ही होता है, तुम नहीं समझोगे यह। आज तुम जो आये हो वह भी तुम्हारी पत्नी के कारण आये हो क्योंकि उन्हें पता है पहले प्यार की कीमत क्या है। हो सके तो अपनी पत्नी को मेरा धन्यवाद कह देना। इतना कह कर एर्नविल तेजी से कमरे से विदा हो गयी। शुभेन्दु जी देखते ही रह गये। किसी तरह रात बीती, सुबह सामान्य सुबह की तरह सबने साथ नाश्ता किया। एर्नविल ने अपने पति से कहा- वह शुभेन्दु को एयरपोर्ट तक छोड़ दे। न जाने कैसे भाव थे एर्नविल के चेहरे पर... मन भारी हुआ ही जाता था कि एर्नविल ने गाड़ी के पास आकर एक बड़ा-सा फूलों का गुलदस्ता उन्हें देते हुए कहा था, तुम्हारे सुखी वैवाहिक जीवन के लिये। ...और शुभेन्दु ने बिछड़े प्रेम से परिपूर्ण हृदय के साथ अपने घर में प्रवेश किया। अब वह तरोताजा महसूस कर रहे थे और रमोला जी के सामने ऐसे खड़े हुए जैसे वह कोई किला फतह कर आये हों, और रमोला जी...।

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