मिट्टी का मुखौटा
संबित घोष
मित्रा-मुहल्ले में इस बार दुर्गा पूजा की हीरक जयंती थी। इसी के मद्देनजर मैदान में तीन माह पूर्व ही बांसों का ढेर लग चुका था। इस बार की पूजा का आयोजन भव्य था। बाजे-गाजे के साथ इलाके में यह बात फैल चुकी थी। जगह-जगह पोस्टर लग चुके थे। तिराहे-चौराहे, छोटे-बड़े पेड़ों पर बैनर और होर्डिंग के जरिये प्रचार पूरे जोरों पर था। गलियों में, ऑटोरिक्शा और कोलकातागामी बसों में मुक्तकंठ से इसकी चर्चा हो रही थी। इस तरह पूरे जिले में मित्रा-मुहल्ले की करामाती कहानी दूर-दूर तक फैलने लगी थी। हीरक जयंती का मसला था, प्रचार होना स्वाभाविक था। आयोजकों द्वारा बतलायी जा रही इस छोटी-सी पूजा में सौ हाथ ऊंची दुर्गा की प्रतिमा स्थापित होनी थी। मंडप की सजावट पर अद्भुत शिल्पकला अचरज में डाल रही थी। असम की विशेष बांसों से मुख्यद्वार को अंतिम रूप दिया जा रहा था। मंडप के अंदर अजंता-एलोरा की गुफाओं की प्रतिकृति सूक्ष्म कला-कौशल के साथ स्पेशल इफेक्ट में प्रस्तुत की जानी थी। साथ ही बाउल की लोकगायकी और छऊ नृत्य इसका विशेष आकर्षण था।
‘जरा-सी ही अलग होगी यह पूजा।’ क्लब के अध्यक्ष की इस जरा-सी में निहित है मां दुर्गा के लिए पांच लाख की चांदी के आभूषण। लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय और गणेश के आभूषणों को मिलाकर यह खर्च सात लाख रुपयों तक जा पहुंचेगा। साथ ही नेता-अभिनेताओं को निमंत्रण, मीडिया कवरेज करने वालों की आवभगत में कोई कमी नहीं रहने देना चाहते थे आयोजक।
पूजा की थीम की गोपनीयता बनाए रखने के लिए घिरे हुए पंडाल के आसपास जाने तक की मनाही थी। यहां तक कि बच्चे भी ताकझांक न कर पाएं, इसकी समुचित व्यवस्था थी, परंतु स्कूल से लौटते पढ़ाकुओं में उत्सुकता न जगे, ऐसा भी भला हो सकता है। उन्हीं में एक था भावुक प्रवृत्ति का शांतनु। वह सातवीं कक्षा का छात्र है और मित्रा-मुहल्ले में ही रहता है। अन्य बच्चों से अलग शांतनु की आंखों में जड़ता भेद करने वाली दृष्टि है। पढ़ाई में जैसा फुर्तीला है, हस्तकला में भी उतना ही दक्ष है। स्कूल के वर्क-एजुकेशन की परीक्षा में हमेशा अव्वल रहता है। फिर भी गुणों में उसकी बड़ी बहन सुधा इलाके में प्रसिद्ध है और सभी मुक्तकंठ से उसकी प्रशंसा करते हैं। ग्यारहवीं की यह छात्रा उद्दात स्वर में सुकांत भट्टाचार्य की सुप्रसिद्ध कविता ‘छुटे हुए पत्र’ और गुरुदेव टैगोर की ‘अफ्रीका’ का पाठ करती है। ‘ओथेलो’ नाटक की डेसडिमना तथा ‘श्यामा’ चरित्र के संवाद उसके रटे हुए हैं। जिला और राज्यस्तरीय इंटर-स्कूल प्रतियोगिता के एकल अभिनय, कविता-पाठ और वाद-विवाद में उसे पुरस्कार मिलते रहते हैं। मुहल्ले के किसी भी कार्यक्रम के दौरान माइक हाथ में थामकर उसका शुभारंभ करना उसके लिए एक खेल जैसा है। यहां तक कि सामान्य ज्ञान की प्रतियोगिता में भी उसे पराजित कर पाना असंभव है। उसके पिता लोकल ट्रेन में छिटपुट सामान बेचने वाले हॉकर हैं। गृहस्थी चलाने में मां का सहारा है एक पुरानी सिलाई-मशीन। गरीबी में पल-बढ़ रही इस किशोरी में अदम्य साहस और स्वाभिमान भरा पड़ा है। सात लाख से भी अधिक खर्चे पर मुहल्ले के जिस प्रांगण में इस पूजा की शुरुआत हो रही है, तीन वर्ष पूर्व वहीं पर विजया सम्मेलनी पर एक बड़ा जलसा हुआ था जिसमें शहर के कई नामी कलाकार आए थे। उन्हीं में से एक का प्रदर्शन लोगों को नहीं भाया और एक बवाल खड़ा हो गया था। परिस्थिति को संभालने में असफल रहे आयोजकों को तब उसने ही सहारा दिया था और माइक लेकर सबको शांत कर दिया था। गायन, कविता व नाटकों के संवाद से ऐसा समा बांधा कि आज तक उसकी चर्चा होती है।
शांतनु ने भी उस दिन अपनी दीदी की करामात प्रत्यक्ष देखा थी। घर लौटकर उसने भी बड़ी बहन की तरह कुछ अलग करने की ठान ली। इस पर सुधा ने अपने भाई को गले लगाते हुए परम स्नेह से कहा था - ‘मेरी तरह क्यों, तुम अपने तरीके से आगे बढ़ोगे।’
‘अपने तरीके से मतलब?’ शांतनु ने पूछा था।
भाई के प्रश्न पर हंस पड़ी थी सुधा। उसका गाल सहलाते हुए बोली, ‘जीवन की तलाश स्वयं करो। कुछ ऐसा करना कि जिससे यह पृथ्वी छोटी पड़ जाए।’
उस दिन इसका अर्थ न समझने के बावजूद सुधा की बातें शांतनु के मन में रच-बस गईं। वह तभी से अपनी तरह से जीवन की खोज में जुट गया। आकाश, हवा, पेड़-पौधों को आश्चर्य से देखता रहता। कभी खिड़की के पास बैठकर प्रकृति को निहारता तो कभी कांस-वन के सौंदर्य से मुग्ध होता रहता। वर्षा की रिमझिम में मैदान के किनारे खड़ा होकर माटी की सोंधी गंध को महसूस करता रहता।
एक दिन शांतनु मिट्टी के लोंदे को हाथ में उठा लेता है और उससे मन मुताबिक आकार देता हुआ घर लौटता है। चलते-चलते वह कब घर की गली को लांघ गया, उसे आभास तक नहीं हुआ। अनमना-सा वह पास ही के पाल-मुहल्ले में चला गया। उसे होश तब आया जब उस मुहल्ले के एक मूर्तिकार ने उसे पुकारा।
‘तुम मित्रा-मुहल्ले के लड़के हो न?’
‘हां, चाचा जी।’ उसने डरते हुए उत्तर दिया।
‘यहां तुम्हें क्या चाहिए?’ मूर्तिकार ने पूछा।
बिना कोई उत्तर दिए शांतनु सिर झुकाए खड़ा रहा। तब मूर्तिकार ने पूछा, ‘तुम्हारी मुट्ठी में क्या है, दिखाना जरा।’
मूर्तिकार के कहते ही शांतनु ने मुट्ठी खोल दी। उसके हाथ में मिट्टी का लोंदा देखकर मूर्तिकार ने पूछा, ‘क्या करोगे इसका?’
‘पता नहीं।’ अस्फुट उत्तर देता है शांतनु।
इस पर मूर्तिकार ने उससे कहा, ‘मिट्टी को मुट्ठी में कैद नहीं रखना चाहिए बल्कि हाथ खोलकर उसका सम्मान करना चाहिए। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।’
‘वो कैसे?’ शांतनु पूछता है।
प्रत्युत्तर में बिना कुछ कहे मूर्तिकार उसके कांधे पर हाथ रखकर उसे एक दालान में ले गया। वहां कई मूर्तियों को आकार देकर खड़ा किया गया था। उन सबको देखकर वह बालक मंत्रमुग्ध हो गया। एक ओर मां दुर्गा की विशाल प्रतिमा देखकर वह अभिभूत हो उठा। मूर्तिकार ने शांतनु को एक स्थान पर चुपचाप बैठे रहने का आदेश दिया। फिर उसने आंखें बंद कर बालक के समस्त चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अब जाओ परंतु सीधे अपने घर जाना और हो सके तो सात दिनों के बाद फिर यहां आना।’
उस दिन देर से घर लौटने पर मां जब उसे डांट रही थी, तब सुधा दीदी ही उसका रक्षक बन अवतरित हुई। दीदी से ही घर में उसकी सबसे अधिक बनती थी और वह अपने मन की सारी बातें उससे साझा किया करता था परंतु उस दिन की बात वह छुपा गया। सुधा को कुछ संदेह हुआ। उसे समझने में देर नहीं लगी कि छोटे भाई के मन में उसकी ही तरह एक आग जल रही है। वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में सफल होगा ही, इसका उसे भान था।
दुर्गापूजा की सरगर्मी में दस दिन गुजर गए। स्कूल से लौटते समय राह में शांतनु पाल-मुहल्ले में दौड़ गया और उसी परिचित दालान में जा उपस्थित हुआ। उस समय मूर्तिकार एक स्टूल पर बैठा किसी मूर्ति के चेहरे पर रंगीन कलाकारी कर रहा था। शांतनु को देखते ही वह मुस्कुरा उठा। बालक को प्रतीक्षा करने के लिए कहकर वह अपने घर के अंदर चला गया। कुछ देर बाद आकर उसने शांतनु के हाथ पर जो रखा, उसे देखकर वह बालक हक्का-बक्का रह गया। उसी के मुख की प्रतिकृति मिट्टी के मुखौटे पर उभर आई थी।
दूसरे दिन शांतनु फिर से वहां पहुंचा। उसने मूर्तिकार से यह कला सिखलाने का आग्रह किया। शुरू में जब मूर्तिकार राजी नहीं हुआ तो वह रोने-रोने को हुआ। बालक के करुण चेहरे को देखकर मूर्तिकार को दया आ गई और उसने शांतनु को हर रोज स्कूल के बाद वहीं पर मिलने के लिए कहा।
प्रतिदिन एक घंटा एक ही स्थान पर बिठाकर मूर्तिकार सात दिनों तक अपना काम करता रहा। उसके बाद उसने शांतनु को मिट्टी को स्पर्श करने की आज्ञा दी और उसी दिन बालक के हाथों से एक नायाब वस्तु गढ़कर तैयार हुई। मिट्टी के ढेले को तोड़-तोड़कर शीघ्रता से एक पक्षी बना डाला उसने। मूर्तिकार समझ चुका था कि इस बालक के अंदर छुपी हुई अद्भुत प्रतिभा है।
इसके चार दिनों बाद मूर्तिकार अपने चेहरे से मेल खाता मुखौटा बनाने के लिए शांतनु से कहता है। आंखें बंद कर मूर्तिकार के चेहरे पर हाथ फेरकर उस बालक ने अपनी कलाकारी शुरू की। उसे पूरा करने में उसने केवल पांच दिन लगाए। अच्छी तरह निपुण न होने तक मूर्तिकार उसे मूर्तिकला की शिक्षा देता रहा। उसके इस क्रियाकलाप पर उसकी दीदी की निगाहें लगातार टिकी हुई हैं, इसका उसे भान तक नहीं हुआ।
छुपकर अपने भाई का यह शिल्प सीखने की लालसा देख सुधा की आंखें भर आतीं। अपने छोटे भाई को एक छलांग में सीढ़ियां लांघता देख उसे अपार सुख मिलता। वह अपने भाई को दुनियादारी सिखा पायी, यह सोचकर उसे शांति का अनुभव हुआ।
एक रात सुधा के पेट में तीव्र पीड़ा उभरी। वह दर्द से तड़पने लगी। उसके बाद चार दिनों तक यमराज और मानव की खींचतान चलती रही। अस्पताल से घर और घर से अस्पताल। कैंसर की अंतिम स्टेज में होने पर डाक्टरों ने आखिरकार जवाब दे दिया। उसके अभावग्रस्त हॉकर पिता चिकित्सा का खर्च पूरा करने में असमर्थ और असहाय दिख रहे थे। भव्य दुर्गा की प्रतिष्ठा करनेवाले आयोजकों के सामने हाथ फैलाने का भी कोई लाभ न हुआ। सहायता तो क्या करते, सुधा को देखने तक नहीं आए उसके प्रशंसक और शुभेच्छु। सभी पूजा के आनंद में सराबोर थे।
सुधा के कहने पर ही उसके लीवर-कैंसर की बात उसके छोटे भाई से अब तक छुपाए रखी गई थी। मृत्यु की ओर अग्रसर सुधा अपना दर्दनाक चेहरा अपने छोटे भाई को नहीं दिखाना चाहती थी। फिर भी शांतनु को अंदेशा हो गया। वह समझ गया कि किसी बीमारी के कारण ही उसकी दीदी दो महीनों से स्कूल नहीं जा रही है। इसी कारण वह अब पहले की तरह ऊंचे स्वर में कविता-पाठ भी नहीं करती। शांतनु को अपने ऊपर क्रोध आया और फिर वह दहाड़ें मारकर रोने लगा।
अपने भाई की ऐसी दशा देख सुधा ने उसे अपने पास बुलाया और क्षीण-स्वर में कहा, ‘तुम अपनी मिट्टी की कलाकृति मुझे नहीं दिखाओगे?’ सुनते ही शांतनु का हृदय कराह उठा। फिर उसे दीदी की बातें याद हो आईं - जीवन की तलाश। उसे अनुभव हुआ मानो जीवन की तलाश में आज उसे नई दुनिया का सामना करना पड़ रहा था। उसने संकल्प लिया कि दीदी के कहे अनुसार वह अपनी दुनिया स्वयं बसाएगा।
दूसरे दिन फिर से सुधा को अस्पताल पहुंचाया गया। सोयी हुई दीदी के चेहरे पर हाथ फेरकर वह मूर्तिकार के दालान में जा पहुंचा। खाना-पीना सब भुलाकर वह तन्मयता से कार्य करता रहा। किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव तक नहीं हुआ। उसका अस्पताल जाना भी इस दौरान बंद रहा।
सुधा क्रमशः मृत्यु के करीब पहुंचती जा रही थी। वह अपने भाई को देखना चाहती थी। उधर मित्रा-मुहल्ले के मैदान में वाद्ययंत्र बजने लगे थे। बोधन (देवी जागरण) के शुभारंभ के साथ संगीत में घुला मंत्रोच्चारण भी लगातार जारी है। चारों ओर प्रकाश फैला हुआ है। आनंद में डूबता जा रहा है सारा समाज। उस प्रकाश तले कहीं निकष अंधकार है, शांतनु को इसका आभास हुआ।
सप्तमी, अष्टमी और नवमी की रात सुधा के मां-बाप ने अस्पताल में ही गुजार दिए। शांतनु भी घर से नहीं निकला। दशमी के दिन संध्या समय सुधा की दशा बहुत बिगड़ गई। वह अंतिम बार अपने भाई को देखने के लिए आतुर थी। ठीक उसी समय एक बड़े से थैले में कुछ भरकर शांतनु अस्पताल की ओर रवाना हुआ। भीड़ के रेले को पार करता हुए उसे पहुंचने में तनिक देर हुई। सुधा नीमबेहोशी में थी। उसके पास पहुंचकर शांतनु ने पुकारा। धीरे से आंखें खोल दी सुधा ने। शांतनु ने कांपते हाथों से थैले में से एक मिट्टी का मुखौटा निकाला और कहा, ‘देखो दीदी, मैंने तुम्हारी बात रख ली। तुम्हारे चेहरे की प्रतिकृति में बनी यह दुर्गा आज इस पृथ्वी पर सबसे अधिक मूल्यवान है।’
सुधा की आंखों से आंसू ढलक गए। धीरे-धीरे वे मुंद जाती हैं। मां दुर्गा आज लौट गई कैलाश पर्वत पर।
मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’