संयुक्त राष्ट्र में दावेदारी
भा रत ने जी-20 शिखर सम्मेलन में कूटनीतिक कुशलता से विश्व स्तर पर जो प्रतिष्ठा हासिल की है, उससे संक्रमणकाल से गुजर रहे वैश्विक परिदृश्य में भारत की नेतृत्व क्षमता पर मोहर लगी है। इसी आलोक में स्थापना काल से चंद बड़े राष्ट्रों के वर्चस्व वाले संयुक्त राष्ट्र की कार्यशैली पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवाल भी खड़े किये हैं। संयुक्त राष्ट्र में सुधारों को अपरिहार्य बताते हुए उन्होंने चेताया भी है कि जो संगठन वक्त की जरूरतों के हिसाब से नहीं बदलता, वह अपनी प्रासंगिकता खो देता है। दूसरे शब्दों में, वे संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद व अन्य संगठनों के स्वरूप में बदलाव की वकालत कर रहे थे। तभी उन्होंने कहा कि बेहतर भविष्य के लिये वैश्विक व्यवस्थाओं का वास्तविकता के अनुरूप होना जरूरी है। यह एक कड़वा सच है कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के वक्त की परिस्थितियां मौजूदा हालात से बिलकुल भिन्न थीं। तब यूएन में मात्र 51 संस्थापक सदस्य थे। जबकि आज इनकी संख्या दो सौ के करीब पहुंच चुकी है। दुनिया के समान नई चुनौतियां हैं। पिछले दशकों में तेजी से बदलाव आया है लेकिन सुरक्षा परिषद में उन्हीं पांच सदस्यों का वर्चस्व है, जो संयुक्त राष्ट्र के फैसलों को लागू होने से रोकने के लिये अपनी सुविधा के हिसाब से वीटो का प्रयोग करते हैं। जिसके चलते पिछले कुछ दशकों में कई क्षेत्रीय मंच अपनी जरूरतों के हिसाब से बने हैं और वे कामयाबी की इबारत भी लिख रहे हैं। यह बताता है कि यूएन जैसी वैश्विक संस्था को अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिये संगठन में सुधार जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि दिल्ली शिखर सम्मेलन के दौरान भारत द्वारा दर्शाये गये कूटनीतिक कौशल से हमारी संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दावेदारी मजबूत हुई है। दूसरी ओर नई दिल्ली घोषणा पत्र को अमलीजामा पहनाने की प्रतिबद्धता बताती है कि भारत वैश्विक मुद्दों के समाधान के प्रति गंभीर है।
दरअसल, दिल्ली घोषणा पत्र को विपरीत ध्रुवों से मिले समर्थन की भी प्रमुख वजह यह है कि भारत ने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा के तहत ही नीतियों को सम्मेलन के पटल पर रखा। जिसको सकारात्मक प्रतिसाद भी मिला। उससे जहां अमेरिका, चीन, रूस सहमत दिखे, वहीं विकासशील देशों का भी समर्थन मिला। इसी तरह वैश्विक विश्वास में कमी को विश्वास और निर्भरता में बदलने के आह्वान को भी प्रमुख राष्ट्राध्यक्षों ने गंभीरता से लिया। जिससे दुनिया में यह संदेश गया कि दिल्ली में जिन विषयों पर सहमति बनी है, उन्हें हकीकत में बदलने के लिये भारत प्रयासरत है। निस्संदेह, कोरोना संकट व रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते उत्पन्न विषम परिस्थितियों के बीच भारत द्वारा जी-20 सम्मेलन के सफल आयोजन से देश की छवि उज्ज्वल हुई है। संदेश गया कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मसलों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में है। दूसरा, भारत ने सम्मेलन के जरिये उन मुद्दों को उठाया है, जो तमाम विकासशील देशों को परेशान किये हुए हैं। मसलन विकासशील देशों के बढ़ते कर्ज, जलवायु परिवर्तन की चुनौती, खाद्य सुरक्षा पर संकट, महंगाई जैसे मुद्दे इसमें शामिल हैं। कह सकते हैं कि भारत ने ग्लोबल साउथ की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में बड़ी भूमिका की जरूरत को बताया है। संदेश दिया कि अब गरीब व विकासशील देशों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनकी समस्याओं का समाधान ताकतवर देशों के वर्चस्व वाली संस्थाओं से संभव नहीं है। भारत के लिये यह अच्छा संदेश गया कि उसने कोरोना संकट के दौरान तमाम गरीब व विकासशील देशों की मदद की, जबकि बड़ी शक्तियां आत्मकेंद्रित थीं। जी-20 में आर्थिक रूप से पिछड़े अफ्रीकी देशों के संगठन अफ्रीकी संघ को शामिल करना भारत की बड़ी उपलब्धि है। जो भारत की राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दावेदारी को मजबूती देंगे। ऐसे में विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत विकसित व विकासशील देशों के बीच एक सेतु का काम कर सकता है, भले ही भू राजनीतिक परिस्थितियां यूक्रेन युद्ध के कारण बेहद जटिल हों।