मनोरंजन के साथ सबक भी दे सिनेमा
बृजेंद्र काला ने अपने कैरियर की शुरुआत मथुरा में थिएटर से की। उसके बाद वे मुंबई आ गए। यहां आकर एक्टिंग के साथ-साथ पटकथा लेखन भी किया। उन्होंने एकता कपूर के प्रसिद्ध शो ‘कहानी घर-घर की’ समेत कई शोज़ के लिए लेखन किया। तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘हासिल’ में एक छोटी सी भूमिका से फिल्मों में अभिनय की शुरुआत की। उसके बाद बंटी और बबली, जब वी मेट, अग्निपथ, पान सिंह तोमर, पीके, एमएस धोनी द अनटोल्ड स्टोरी, ट्यूबलाइट, शुभ मंगल सावधान, बत्ती गुल मीटर चालू जैसी कई फिल्में कीं। इन दिनों वे अपनी आगामी फिल्म ‘पंचकृति-फाइव एलिमेंट्स’ के प्रमोशन कार्य में लगे हैं। इसी सिलसिले में दिल्ली आए बृजेंद्र काला से रेणु खंतवाल की बातचीत –
हाल ही में आपकी कौनसी फिल्में रिलीज हुई हैं व आगे कौन-कौन से प्रोजेक्ट आने वाले हैं आपके?
बड़े पर्दे पर हाल ही में नजर आई मेेरे अभिनय वाली फिल्म का नाम है ‘पंचकृति-फाइव एलिमेंट्स’। जो पांच तत्व हैं प्रकृति के, उनको ध्यान में रखकर इस फिल्म की कहानी थी। फिल्म में पांच अलग-अलग कहानियां हैं जिसमें से एक कहानी है – खोपड़ी, जिसमें मैंने काम किया था। इसमें मेरा पंडित का किरदार था। जहां तक मेरी आने वाली फिल्मों व सीरीज की बात है तो तीन फिल्में हैं- सर्वगुण संपन्न, रोमी की शराफत, मर्डर मुबारक वहीं दो वेब सीरीज भी आने वाली हैं।
आजकल ऐसी फिल्मों का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हैं?
फिल्म बना रहे हैं तो उसमें मनोरंजन भी होगा ही। ऐसे में अगर कोई सामाजिक संदेश भी साथ में दिया जा रहा है तो यह अच्छी बात है। जैसे ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ में भी था। कई ऐसे निर्माता, निर्देशक हैं जो सोचते हैं कि कुछ इस तरह की कहानियों पर फिल्म बनाएं। अच्छा है। सोने में सुहागा है। इस बहाने समाज के जरूरी मुद्दे भी उठ जाते हैं। कुछ भी समाज में घटित होता है उस पर फिल्म बन जाती है। देखना कुछ समय बाद सीमा हैदर पर भी फिल्म बन जाएगी। अलग-अलग दौर में अलग-अलग तरह का सिनेमा बनता है।
आज का दर्शक मुखर है। अगर उसे किसी फिल्म में कोई चीज अच्छी नहीं लगी तो विरोध शुरू हो जाता है। इसकी क्या वजह लगती है?
आज का दर्शक राजनीतिक और धार्मिक रूप से बंटा हुआ है। इसलिए वो जो कुछ भी देखता है या सुनता है और उसे वो अपने नज़रिये से कटु लगता है तो उसका विरोध कर देता है। ऐसे में जो धार्मिक चीज़ें बनाई जाती हैं उसे ध्यान से बनाना चाहिए। निर्माता, निर्देशक ध्यान रखें कि किसी की भावनाएं आहत न हों। मैं तो मानता हूं बहुत सारे मुद्दे हैं फिल्म बनाने के लिए। इसलिए ऐसे मुद्दे जो वाद-विवाद के हैं उन्हें चर्चा के लिए ही रहने दें और बाकी बहुत सारे मुद्दे हैं उन पर फिल्म बनाएं।
मथुरा से मुंबई तक के सफर को पीछे मुड़कर देखते हैं तो कैसा लगता है?
सफर आनंददायक रहा। गाड़ी चल ही रही है। शुरुआत में थिएटर करते थे, यह सब थिएटर का ही आशीर्वाद है।