अनुकम्पा नहीं स्वावलंबन की राह चुनें
बदलते आर्थिक माहौल में भारत तीसरी दुनिया के देशों में अधिक महत्वपूर्ण हुआ है। इसके साथ ही विदेशी निवेशकों के लिए एक बहुत बड़ा बाजार बनकर उभरा है। इस समय विश्व मंदी के कुप्रभावों से भारत बच निकला है। विकास दर दुनिया में सर्वाधिक है। भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गया है। लेकिन इसके बावजूद समाज में आर्थिक विषमता है। भारत के प्रमुख आर्थिक क्षेत्र कृषि में भी अधिकांश किसान दो से पांच एकड़ जमीन पर ही खेती करते हैं। भारतीय किसान आज भी जीवन निर्वाह खेती पर टिके हैं। वहीं बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के आंकड़े आम आदमी की परेशानी को दर्शाते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भारत का मौसम जो पहले खेतीबाड़ी के लिए जुआ था, वह आर्थिक परिदृश्य में भी अनिश्चितता है। भारत के स्टार्टअप उद्योग तरक्की के लिहाज से उम्मीदों के अनुरूप तस्वीर पेश नहीं कर रहे हैं। एक ओर हमारे नारे हैं कि हम भारत को डिजिटल बनाएंगे, उसकी इंटरनेट शक्ति से दुनियाभर को अपने करीब कर चुके हैं। शिक्षा की दृष्टि से, उपचार की दृष्टि से और इसे नाम दे रहे हैं वसुधैव कुटुम्बकम्।
लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि भारत में आर्थिक असमानता का कोई अंत नहीं। विकास दर की गति संपन्नता के पक्ष में और विपन्नता से मुंह चुराती है। उम्मीद की जाती है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक आदि भारत की बढ़ती हुई आर्थिक गति और मांग की क्षमता के कारण उसके महत्व को स्वीकार करेंगे। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का संबंध है, उसकी ओर से तो ऐसे देशों को उनकी प्रगति पर स्वीकृति की मुहर लगाने के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने पिछले महीने पेरिस में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों द्वारा बुलाई गई बैठक में चाहे आईएमएफ और विश्व बैंक की सीधी आलोचना नहीं की, लेकिन कहा है कि इन संस्थानों ने वैश्विक वृद्धि और उसके परिवर्तनों के साथ तालमेल नहीं रखा।
आज भी विश्व बैंक के पास 22 अरब डॉलर की चुकता पूंजी है। इसका इस्तेमाल विकास कार्यक्रमों के तहत कम ब्याज वाले कर्ज और अनुदान के रूप में देशों को दिया जाता है। इस समय विकासशील देश मुद्रास्फीति, बढ़ती ब्याज दरों और ऋण राहत में कमी से जूझ रहे हैं। भारत में ही 7 बार रैपो रेट बढ़ाया गया। एक ओर ऋण महंगा हो गया, दूसरी ओर बचत भी बढ़ी, लेकिन ऋण मांग के बराबर नहीं। जरूरी यह था कि गहरे वित्तीय संकट में आ रहे विकासशील देशों की विशेष मदद की जाती, सरकारों को ऋण पुनर्गठन या उसके भुगतान में समर्थ बनाया जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चाहे पाकिस्तान को ले लें या श्रीलंका को, या अफ्रीका। इस समय यहां ऋण सेवा लागत अर्थात् ऋण पर ब्याज चुकाना सेहत की देखभाल से अधिक खर्च हो रहा है। बेहतर था कि आईएमएफ उन्हें ऋण पुनर्गठन या उसके भुगतान में मदद करता।
दरअसल, आईएमएफ के नियम धनी देशों का पक्ष लेते रहे। दुनिया के धनी देशों को गिनें तो उनकी आबादी 77.2 करोड़ बनती है। इन सात देशों को आईएमएफ की ओर से 280 अरब डॉलर की राशि मिली है जबकि उसके मुकाबले में अधिक आबादी वाले कम विकसित देश जिनमें भारत भी शामिल है, उनको केवल 8 अरब डॉलर मिले हैं। बेशक यह नियम-कायदे से हुआ है लेकिन यह नियम-कायदा वंचितों के लिए पक्षपातपूर्ण क्यों? तभी पिछले दिनों पाक, श्रीलंका और पेरू आदि देशों की अर्थव्यवस्था को डूबते देखा गया। गुटरेस भारत और तीसरी दुनिया के देशों के प्रति आईएमएफ और विश्व बैंक से निष्पक्ष सहायता चाहते हैं।
क्या संयुक्त राष्ट्र विकासशील देशों के प्रति स्वयं एक यथार्थवादी रवैया अपनाएगा? तथ्य है कि जी-20 देशों में भी भारत को एक वर्ष की अध्यक्षता मिलने के बावजूद यूएन में स्थाई सदस्यता नहीं मिली।
विडंबना है कि द्रुत विकास के नाम पर भारत में निजीकरण को तो बढ़ावा मिला लेकिन जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था का सृजन करना था, वह क्यों अपने लक्ष्य से चूकता नजर आया? वैश्विक वित्तीय संस्थान संपन्न देशों के प्रति नर्म रवैया रखते हैं और तीसरी दुनिया या वंचित देशों की अवहेलना करते हैं। वक्त आ गया है कि इन अंतर्राष्ट्रीय मंचों की नीतियों का पुनर्गठन किया जाए और गरीब व अमीर के भेद को मिटाकर हर काम करने वाले को रोटी-रोजी कमाने का नैसर्गिक अधिकार दिया जाए। सरकार यह तो कह देती है कि लोग अब रोजगार मांगने वाले दफ्तरों के बाहर कम खड़े नजर आते हैं लेकिन यह नहीं बताती कि अब बड़ी आबादी अनुकम्पा दफ्तरों के बाहर कतार लगाती है क्योंकि केंद्र सरकार कह रही है कि हम 80 करोड़ लोगों को रियायती अनाज दे रहे हैं। बेहतर होता हम कहते कि इतने लोगों को देश में तत्काल रोजगार मिल रहा है।
लेखक साहित्यकार हैं।