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चीन के विश्वासघात ने दिए थे गहरे जख्म

06:27 AM Nov 14, 2024 IST
चीन के विश्वासघात ने दिए थे गहरे जख्म
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कृष्ण प्रताप सिंह

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स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपने जीवन के आठ साल, ग्यारह महीने और सात दिन अंग्रेजों की जेलों के बिताने वाले पं. जवाहरलाल नेहरू के बारे में जब भी चर्चा हो, यह जरूर कहा जाता है कि स्वतंत्रता के बाद वे 16 साल प्रधानमंत्री रहे और ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ कहलाये। लेकिन उनका मुश्किलों भरा आखिरी समय कैसे बीता, खासकर 1962 के चीनी हमले के उपरांत की असहज स्थिति में, हम कम जानते हैं।  निस्संदेह, 27 मई, 1964 को निधन से पहले उन्होंने कई तकलीफों का सामना किया। बता दें कि पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था।
अलबत्ता, कई लेखों में विवरण मिलता है कि ‘1962 में चीन से हुई लड़ाई ने उनको तोड़कर रख दिया था और उसके सदमे से वे कभी उबर नहीं पाये।’ परिणाम यह हुआ कि ‘उनकी पुरानी शारीरिक ताकत, बौद्धिक कौशल और नैतिक चमक बीते दिनों की बात हो गई...। उनकी चाल में जो तेजी हुआ करती थी, वह भी लुप्त हो गई।’
बताते हैं कि साल 1964 आते-आते उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं और गम्भीर हो गईं। इसके बावजूद वे भुवनेश्वर में हो रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने गये। सम्मेलन के कार्यक्रम में आठ जनवरी, 1964 को उन्हें बोलना था। लेकिन इसके लिए पुकारे जाने पर वे उठे तो डगमगाकर सामने की तरफ गिर पड़े। तब वहां उपस्थित उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने सम्मेलन के स्वयंसेवकों व नेताओं के सहयोग से उन्हें उठाया और संभाला। थोड़ी ही देर बाद डॉक्टरों ने जांच की तो पाया कि उनके शरीर का बायां हिस्सा पक्षाघात का शिकार हो गया है।
फिर तो गहरी चिन्ता के बीच चिकित्सा के लिए उन्हें भुवनेश्वर स्थित राजभवन ले जाया गया। लेकिन डॉक्टरों की भरसक कोशिशों के बावजूद उन्हें इतना स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सका कि वे अपना स्थगित भाषण देने दोबारा सम्मेलन में जा सकें। बारह जनवरी को वे नई दिल्ली लौट आये तो डॉक्टरों ने उनसे कहा कि बेहतर होगा कि वे दोपहर में भी थोड़ी देर सोने की आदत डाल लें।
आम तौर पर वे रोजाना 17 घंटे काम करते थे। दोपहर में सोने के लिए उन्हें इनमें पांच घंटों की कटौती करनी पड़ी। उन्हें इसका लाभ भी मिला। फिर 26 जनवरी तक उनका स्वास्थ्य इतना सुधर गया कि वे गणतंत्र दिवस समारोह में आराम से भाग ले पाये। लेकिन जल्दी ही उनकी शक्ति फिर क्षीण होने लगी, जिसके चलते फरवरी में आयोजित संसद के उस साल के पहले सत्र में वे बैठे-बैठे ही भाषण देने को विवश हुए।
फिर भी उन्होंने आत्मविश्वास नहीं खोया और गर्मियों तक इतनी शक्ति संचित कर ली कि किसी का सहारा लिये बिना सामान्य दिनचर्या निपटा सकें। यह उनका आत्मविश्वास ही था कि अपने निधन से महज पांच दिन पहले 22 मई को एक संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों के बार-बार ‘नेहरू के बाद कौन?’ पूछने पर उन्होंने उन्हें झिड़कते हुए से कह दिया कि ‘मैं इतनी जल्दी मरने वाला नहीं हूं।’ लेकिन दबे पांव आई मौत ने उनके इस दावे को गलत सिद्ध करके ही दम लिया।
उक्त संवाददाता सम्मेलन के अगले दिन वे बेटी इंदिरा के साथ छुट्टी मनाने देहरादून चले गये और 26 मई को लौटे तो जरूरी कामकाज निपटाकर सो गये। लेकिन सुबह आंखें खुलीं तो पाया कि उनकी पीठ में बहुत दर्द है। कुछ देर बाद उन्होंने इस बाबत एक सेवक को बताया। उससे सूचना पाकर डॉक्टर उनके पास पहुंचे तो उनकी हालत गम्भीर हो गई थी। उनका अपने पर नियंत्रण कम होता जा रहा था। जब तक डॉक्टर कोई उपचार करते, वे बेहोश हो गये। बाद में पता चला कि उनकी बड़ी धमनी फट गई है और प्राणरक्षा के लिए उन्हें फौरन खून चढ़ाना पड़ेगा। लेकिन जब तक खून चढ़ाया जाता, वे कोमा में चले गये। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इसी बीच उन्हें एक और पक्षाघात हुआ, जिसके बाद हृदयाघात से भी गुजरना पड़ा।
इसके बाद उन्हें होश में लाने का कोई भी चिकित्सीय उपाय कारगर नहीं सिद्ध हुआ और कोमा में ही दोपहर बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली। आकाशवाणी ने दोपहर 2 बजकर 5 मिनट पर देश को उनके निधन की खबर दी तो पूरे देश में शोक की लहर छा गई। अवध के एक लोककवि ने इसे इस रूप में याद किया : मई माह तारीख सताइस सन चौसठ कै काल, दिनवां बुुद्धवार कै झुकति रही दुपहरिया, डगरिया नेहरू स्वर्ग की धरे।
पं. जवाहरलाल नेहरू की अन्त्येष्टि 29 मई को हिन्दू रीति से सम्पन्न की गई। वैदिक मंत्रोच्चार और ‘द लास्ट पोस्ट’ के बिगुलवादन के बीच उनके नाती संजय गांधी ने उन्हें मुखाग्नि दी। अंतिम संस्कार के तेरह दिन बाद उनकी अस्थियों को संगम में प्रवाहित करने के लिए एक स्पेशल ट्रेन से इलाहाबाद ले जाया गया। बाद में उनकी वसीयत के अनुसार उनकी अस्थियों को भारतीय वायुसेना के विमानों से देश के सभी राज्यों में खेतों में गिराया गया।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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