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वक्त के साथ बड़ा नहीं हुआ बच्चों का सिनेमा

08:04 AM Nov 30, 2024 IST
वक्त के साथ बड़ा नहीं हुआ बच्चों का सिनेमा
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हेमंत पाल
फिल्मों की कहानियां अलग-अलग होती हैं, ये सब जानते हैं। लेकिन, कम ही लोग जानते होंगे कि फिल्मों का अपना ट्रेंड भी होता है। जब कोई फिल्म दर्शकों को पसंद आती है, तो आने वाली कई फिल्मों के कथानक भी उसी फिल्म के आसपास रचे जाते हैं। जब बदले की भावना वाली फ़िल्में हिट हुई, तो ऐसी फिल्मों की लाइन लग गई। यही स्थिति प्रेम कहानियों को लेकर भी देखी गई। लेकिन, बच्चों की फिल्मों को लेकर ये स्थिति कभी नहीं बनी। बच्चों पर बनी फिल्मों की संख्या बहुत कम मिलेगी। अमूमन साल भर में एक फिल्म बच्चों पर केंद्रित कथानक वाली बनती है। कारण है फिल्मों की कमाई। फ़िल्मकार निर्माण लागत से कई गुना ज्यादा कमाने की कोशिश करते हैं। पर, कमाई का ये फार्मूला बच्चों की फिल्मों पर सही नहीं बैठता।

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प्रसंग तो हैं लेकिन पूरी बाल फिल्म नहीं

यही वजह है कि फिल्मों के कथानक में बच्चों से जुड़े प्रसंग तो होते हैं, पर पूरी फिल्म बच्चों के लिए नहीं होती। कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों की उम्र सौ साल लांघ गई, पर बच्चों का सिनेमा अभी खुद ही बच्चा है। क्योंकि, बाल फिल्मों से आशय है, ऐसी फिल्में जो बच्चों का उनकी मानसिकता के स्तर पर मनोरंजन करें। साथ ही उनसे जुड़ी समस्याओं की तरफ भी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करें। लेकिन, हिंदी फिल्मों में उपदेशात्मक बाल सिनेमा की बाढ़ है। अभी तक बनी ज्यादातर फिल्मों में बच्चों को उपदेश देते हुए कथानक रचा गया। निर्देशक की कोशिश रहती है कि बच्चा वह उपदेश सुने।

संदेश ही दिये जाते रहे

आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिये ये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जाए। इस कोशिश में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। इसका मकसद था बच्चों से जुड़े मुद्दे, चुनौतियां परदे पर दिखाना। लेकिन, अभी तक इस दिशा में कारगर काम नहीं हुआ। बच्चों पर जो भी फिल्में बनी, उनकी कहानी में सिर्फ संदेश दिए जाते रहे। बालमन को कुरेदने की कोशिश कम ही हुई। बच्चों के लिए सत्यजित रे ने कुछ अच्छी बंगाली फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी।

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बालमन की थाह लेती फिल्में

ताजा संदर्भों में देखा जाए तो किसी ने वास्तव में बालमन को खंगालकर फ़िल्में बनाने की कोशिश की है, तो वे हैं गुलजार। उनकी फिल्म ‘परिचय’ (1972) और ‘किताब’ (1977) में बच्चों का सकारात्मक चित्रण दिखाया गया। ‘परिचय’ ऐसे परिवार के बच्चों की कहानी है, जहां बच्चों की मनः स्थिति को जांचा-परखा नहीं गया था। क्योंकि, जब तक बच्चों से घुला-मिला नहीं जाए, उनके करीब नहीं जाया जा सकता। खुद परिवार के सदस्य उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते हैं। फिल्म में दिखाया था कि बच्चों का मनोविज्ञान समझे बगैर उन्हें समझना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उनका टीचर रवि (जितेंद्र) बच्चों के हाव-भाव और जरूरतें समझकर उन्हें पढ़ा पाने में सफल होता है। जबकि, इसके पूर्व बच्चे अपने कई शिक्षक भगा देते हैं।

फिल्म के बजाय गीत हुआ हिट

महबूब खान ने भी बच्चों के लिए 1962 में ‘सन ऑफ इंडिया’ बनाई थी। फिल्म तो नहीं चली, पर इसका एक गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं’ को लोग आज भी याद करते हैं। सत्येन बोस के निर्देशन में 1964 में बनी फिल्म ‘दोस्ती’ को सिर्फ बच्चों की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, पर यह फिल्म बच्चों को प्रेरणा जरूर देती है। शेखर कपूर ने भी 1983 में ‘मासूम’ बनाई। वास्तव में तो यह विवाहेतर संबंधों से जन्मे बच्चे के कारण होने वाले पारिवारिक संघर्ष पर आधारित थी। 1992 में गोपी देसाई निर्देशित फिल्म ‘मुझसे दोस्ती करोगे’ का विषय भी एक बच्चे के सपनों की दुनिया का चित्रण था। आशय यह कि बच्चों पर फ़िल्में तो बनी, पर उसमें भी बड़ी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रखा गया।

‘मासूम’ में उठाये बच्चों से जुड़े मुद्दे

बच्चों पर केंद्रित एक फिल्म ‘जागृति’ (1954) भी आई, जिसका गीत ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ आज भी सुनाई देता है। इसी साल बनी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ भी बाल मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। एक संन्यासी और एक अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध दर्शाने वाली वी शांताराम की फिल्म ‘तूफ़ान और दीया’ (1956) भी सराहनीय फिल्म थी। सत्येन बोस ने 1960 में बच्चों पर केंद्रित फिल्म ‘मासूम’ बनाई, जिसमें बच्चों से जुड़े कई सवाल उठाए थे। इस फिल्म का गीत ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए’ अभी भी सुना जाता है। 1983 में शेखर कपूर ने इसी नाम से फिर फिल्म बनाई। बच्चों पर कई फ़िल्में बनी, पर वास्तव में इन्हें बच्चों की फिल्म नहीं कहा जा सकता। बतौर बाल कलाकार नीतू सिंह की फिल्म ‘दो कलियां’ को बच्चों की फिल्म जरूर कहा गया, पर यह बच्चों के लिए नहीं थी।

फोटो : लेखक

‘तारे जमीं पर’ रही असरदार

साल 2005 में विशाल भारद्वाज ने भी बच्चों के लिए ‘ब्लू अम्ब्रेला’ बनाई, पर वो चली नहीं! बीआर चोपड़ा ने संयुक्त परिवारों के टूटने पर ‘भूतनाथ’ और ‘भूतनाथ रिटर्न’ बनाई! लेकिन, विशाल भारद्वाज की ‘मकड़ी’ ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ दिया। साल 2007 में आमिर खान ने बाल मानसिकता पर श्रेष्ठ फिल्म ‘तारे जमीं पर’ बनाकर दर्शकों को जरूर झकझोर दिया था। परिवार में उपेक्षित और डिस्लेक्सिया ग्रस्त बच्चे की कहानी ने कई बड़ों-बड़ों को रुलाया था। अमोल गुप्ते की फिल्म ‘स्टेनली का डब्बा’ (2011) को भी बच्चों की बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है। गरीब राजस्थानी लड़के की पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने की कोशिश पर बनी ‘आई एम कलाम’ भी इस दिशा में अच्छा प्रयास था। लेकिन, अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ और ईरानी फ़िल्मकार निर्देशित ‘व्हाइट बैलून’ आज भी सिनेमा के लिए मील पत्थर हैं। आखिर हम बच्चों के लिए ‘चिल्ड्रेन ऑफ हेवन’ जैसी एक भी फिल्म क्यों नहीं बना पाए।
आज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जा सके। इस क्रम में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत हुई। जिससे बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियों और उनके मन की स्थिति को परदे पर दिखाया जा सके। साल 1955 में बच्चों के लिए उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का निर्माण और उन्हें स्वस्थ मनोरंजन देने के लिए ‘बाल चलचित्र समिति’ की स्थापना की गई जिसका काम बच्चों पर आधारित फिल्मों का निर्माण, वितरण और प्रदर्शन करना था। साल 1979 से यह समिति हर दो साल में ‘बाल फिल्म महोत्सव’ का आयोजन करती है। जिनमें बच्चों पर केन्द्रित फिल्मों का प्रदर्शन होता है। लेकिन, आज तक यह समिति एक भी ऐसी फिल्म नहीं बना पायी, जिससे बाल सिनेमा का इतिहास गौरवान्वित हो।

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