पैरेंट्स की जीवनशैली को नौनिहाल मानें मिसाल
डॉ. मोनिका शर्मा
समय के साथ बदलती पारिवारिक व्यवस्था में परवरिश से जुड़े पहलुओं पर भी बड़ा बदलाव आया है। ‘आजकल के बच्चों की तो क्या ही कहें?’ या ‘अब तो बच्चे कुछ समझते-मानते ही नहीं’ जैसा कुछ कह अभिभावक भी ख़ुद को बहुत सी उलझनों से मुक्त रखने लगे हैं। नई पीढ़ी के बदलते मानस को लेकर चिंता जताने वाले माता-पिता ख़ुद अपने व्यवहार के बदलते रुख का अवलोकन करना भी भूल रहे हैं। सच तो यह है कि बच्चों से जुड़ने और इस जुड़ाव को खाद-पानी देने के मोर्चे पर बड़े भी गलतियां कर रहे हैं। बचपन को संवारने के मामले में कुछ हद तक बड़ी पीढ़ी भी चूक रही है। ऐसे में ठहरकर सोचना होगा कि बालमन को दिशा देने वाली परवरिश की ज़िम्मेदारी का आत्मीय आधार ना छूटे।
सोशल मीडिया ना डाले दरार
बुनियादी जीवन मूल्यों को पोसने के लिए दोनों ही पीढ़ियों का अपनी असली दुनिया से जुड़े रहना आवश्यक है। सहज परिवेश का हिस्सा बनकर ही सधे-सार्थक मार्ग पर चला जा सकता है। दुखद यह कि आज सोशल मीडिया की व्यस्तता भी माता-पिता और बच्चों के बीच दूरियां ला रही है। अभिभावक नई पीढ़ी को तो आभासी जाल से बचने की हिदायतें देते रहते हैं पर खुद भी वर्चुअल व्यस्तता के घेरे से नहीं निकल पा रहे। वर्चुअल मंचों पर तो दो पीढ़ियां जुड़ी हैं पर असली संसार में एक दूजे से दूर हैं। दोनों ही जेनरेशन वर्चुअल व्यस्तता में गुम हैं। लोकल सर्किल्स के एक सर्वेक्षण के परिणामों में करीब 10 प्रतिशत अभिभावकों ने माना कि उनके बच्चे सोशल मीडिया, ऑनलाइन गेम और वीडियो पर 6 घंटे से ज़्यादा समय बिताते हैं। वहीं 33 प्रतिशत शहरी माता-पिता का मानना है कि हमारे देश में बच्चों के सोशल मीडिया यूज को लेकर माता-पिता की अनिवार्य सहमति लागू होनी चाहिए। बड़े वर्चुअल दुनिया से दूर रहकर बच्चों के सामने उदाहरण नहीं बन रहे। सोशल मीडिया के सही इस्तेमाल का आदर्श प्रस्तुत करने की ज़िम्मेदारी माता-पिता की भी है। अध्ययन बताते हैं कि सोशल मीडिया से जुड़ा व्यवहार किशोर अपने माता-पिता से ही सीखते हैं। इसीलिए घर की बड़ी पीढ़ी को सोशल मीडिया के सार्थक उपयोग और अच्छे डिजिटल व्यवहार का मॉडल पेश करना आवश्यक है। बड़े भी फैमिली टाइम और आपसी संवाद के समय सोशल मीडिया का उपयोग करने से बचें।
स्नेह-संवाद का विकल्प ना बनें सुविधाएं
हमारे देश की पारंपरिक जीवनशैली स्पष्ट समझाती है कि अच्छी परवरिश केवल सुविधाएं जुटाकर नहीं की जा सकती। बच्चों से आत्मीय धरातल पर जुड़ने के लिए स्नेह जताना और संवाद करना ही नहीं, समझाना भी आवश्यक है। इसीलिए पैरेंट्स सुख-सुविधाओं को बच्चों से प्यार और परवाह का विकल्प ना समझें। बच्चे अकेलेपन से जूझते हुए बड़े हो रहे हैं। अभिभावकों को समझना होगा कि महंगे गैजेट्स और मनचाहा करने की छूट देना बच्चों ही खुश रखने का सही तरीका नहीं है। एकल परिवारों में तो बच्चों के पास सुविधाएं अधिक हैं, निगरानी कम। कामकाजी अभिभावक तो अपराधबोध के चलते भावनाओं में बहकर ही बच्चों की हर मांग पूरी करने का रास्ता चुन लेते हैं। जिससे आगे चलकर बच्चे मनमानी करने लगते हैं। नासमझी में कोई हिमाकत कर बैठते हैं। खुलेपन की यह अति पैरेंटिंग से जुड़ा सबसे चिंतनीय पहलू है जो दूसरे कई पक्षों पर भी दुष्प्रभाव डालता है। परवरिश का आत्मीय आधार मज़बूत बनाने के लिए अनुशासन भी जरूरी है। अपनी सीमाएं जानने और मानने का संस्कार बच्चों को घर का जिम्मेदार सदस्य ही नहीं अच्छा इंसान और अच्छा नागरिक भी बनाता है।
समझाएं ही नहीं, समझें भी
बच्चों को समझाना ही नहीं उनका मन समझना भी आवश्यक है। इसीलिए बच्चों को हर कहीं समझाने में न लग जाएं। उनका कोमल मन मान-अपमान को अच्छे से समझता है। साथ ही समझाते हुए बच्चों को शर्मिंदा कभी न करें। माता-पिता के शब्द किसी गलती या उससे जुड़े खामियाजों को लेकर चोट पहुंचाने वाले नहीं बल्कि चेताने वाले हों। सहज रूप से बातचीत करते हुए बच्चों के मन जीवन को दिशा दें। पैरेंट्स हमेशा गंभीरता न ओढ़े रहें। पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक जो पैरेंट्स बातचीत में हंसते-मुसकुराते हैं, उनके साथ बच्चों के संबंध बेहतर होते हैं। अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ लेखक और प्रोफेसर बेंजामिन लेवी के अनुसार हंसना लोगों को लचीलापन सिखाता है। तनाव से राहत दिलाता है। आमतौर पर हंसमुख स्वभाव के पैरेंट्स का साथ पाने वाले बच्चों का व्यक्तित्व भी खुशियों को जीने वाला होता है। इसीलिए औपचारिकताओं से परे पेरेंटिंग की ज़िम्मेदारी को निभाते हुए बच्चों के मन पर दस्तक दी जाये तो बच्चे किसी भी मामले में ‘क्या किया’ ही नहीं ‘क्यों किया’ का भी स्पष्ट जवाब देते हैं। अभिभावकों की ऊंची आवाज़ बच्चों को बहुत कुछ छिपाने वाले बर्ताव की ओर मोड़ती है तो स्नेह-सहजता से दी गई दस्तक उनका मन खोलती है।