मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

परीक्षाओं के लिए जान पर खेलते बच्चे

07:04 AM Aug 06, 2024 IST
Advertisement

क्षमा शर्मा
पिछले दिनों से दिल्ली के कोचिंग सेंटर चर्चा में हैं। बारिश के कारण एक बेसमेंट में पानी भर गया और तीन बच्चों ने अपनी जान गंवा दी। उससे पहले यूपीएससी की ही तैयारी करने वाला एक बच्चा बारिश में करंट लगने से मर गया। हर साल लाखों बच्चे अपनी आंखों में तमाम सपनों को लिए यहां आते हैं और जीवन के बहुमूल्य वर्ष लगा देते हैं।
कोचिंग सेंटर्स में देश भर से आए बच्चे यूपीएससी की तैयारी करते हैं। वे किन विकट परिस्थितियों में रहते हैं, इसे मीडिया ने बार-बार दिखाया और बताया है। कितनी कम जगह के लिए उन्हें भारी किराया देना पड़ता है। कैसा खाना मिलता है। मकान मालिक बिजली का खर्चा बहुत ज्यादा लेते हैं। उस पर रात-दिन की मेहनत। लेकिन जब तक कोई हादसा नहीं होता, कोई नहीं जागता। न सरकार, न कोचिंग सेंटर्स के मालिक, न ही बच्चे, न बच्चों के माता-पिता। मीडिया भी। क्योंकि ये कोचिंग सेंटर्स बड़े विज्ञापनदाता भी हैं। आखिर इनसे कौन दुश्मनी मोल लेकर अपनी आय का नुकसान करे। न ही सरकारी अधिकारियों को कभी इस बात का खयाल आता है कि वे उन चीजों को अनदेखा कर रहे हैं जो कभी भी किसी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती हैं। हां, जब दुर्घटना हो जाती है, तब जिम्मेदारी एक से दूसरे पर डाल दी जाती है।
फिल्म बारहवीं फेल में भी हम ये सब देख चुके हैं। यह फिल्म बहुत सफल भी हुई थी। बच्चे ही नहीं उनके माता-पिता चाहते हैं कि किसी तरह बच्चा आईएएस या, आईपीएस, अथवा अन्य सेवाओं में एक बार आ भर जाए तो न केवल उसकी जिंदगी बन जाए बल्कि माता-पिता की भी और दहेज भी मोटा मिले। एक बार एक खबर पढ़ी थी कि जो बच्चे आईएएस बन जाते हैं, उनका नाम लिस्ट में देखकर उनके घर में बड़ा वाहन रुपये लेकर लोग पहुंच जाते हैं। और रिश्ता पक्का करना चाहते हैं। यूपीएससी का इम्तिहान देने के लिए हर साल लाखों बच्चे तैयारी करते हैं जबकि चयन कुछ ही का होता है। एक सफल के पीछे हजारों असफल खड़े रहते हैं। कई-कई बार तो दशकों इसमें निकल जाते हैं, मगर सफलता के साथी सब हैं असफलता की कहानी कोई नहीं कहता। न ही उस संघर्ष और जी तोड़ मेहनत के बारे में बताया जाता है कि वर्षों तक अठारह-बीस घंटे मेहनत करने और सब कुछ दांव पर लगाने के बावजूद कुछ हाथ नहीं आया।
आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों की सफलता का प्रतिशत औरों से ज्यादा है, इसीलिए बच्चे दिल्ली आते हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या में बच्चे बिहार से आते हैं। एक रिपोर्ट में बताया गया था कि साल 2002 से 2012 में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अठारह हजार, एक सौ चौहत्तर बच्चों ने इंटरव्यू दिया था। मगर सफल सिर्फ दो हजार, दो सौ इकतालीस बच्चे ही हुए थे। सफलता का प्रतिशत इतना कम होने पर भी इस परीक्षा की तैयारी करने वाला हर बच्चा सोचता है कि वह अपने परिश्रम से जीत हासिल कर लेगा, पर ऐसा होता बहुत कम के साथ है।
यूपीएससी को कठिनतम परीक्षाओं में से एक माना जाता है। अफसोस होता है कि बच्चों के परिजन, साथ में जहां रहकर ये तैयारी करते हैं वे सेंटर्स, न इनके स्वास्थ्य का खयाल रखते हैं न इनकी मामूली सुविधाओं का। ये पैसे बरसाने वाली मशीनें हैं, जो जितनी बड़ी संख्या में आएंगी लोगों की जेबें उतनी ही फूलती जाएंगी। तभी तो दिल्ली में कुल कोचिंग सेंटर्स की संख्या पांच सौ तिरासी है और सिर्फ सड़सठ के पास सुरक्षा मानकों को पूरे करने वाले प्रमाण पत्र हैं। आखिर बिना सुरक्षा मानक पूरे किए इन सेंटर्स को क्यों चलने दिया गया।
फिर कोचिंग सेंटर्स हमेशा अपनी सफलताओं को बहुत रंगीन बनाकर पेश करते हैं। बहुत से इसमें झूठ-सच का सहारा भी लेते हैं। इसमें एक उदाहरण देना काफी होगा। करीब सत्ताईस-अट्ठाईस साल पहले एक युवा का न केवल आईआईटी बल्कि देश के बहुत से इंजीनियरिंग संस्थानों में चुनाव हुआ था। जैसे ही रिजल्ट आया कोचिंग संस्थानों से फोन आने लगे कि वह युवा अपना फोटो उन्हें छापने की अनुमति दे। जिसमें वे कह सकें कि इस युवा ने इतनी सफलता इसलिए पाई कि अमुक संस्थान से ट्रेनिंग ली थी। वे इसके लिए बड़ी रकम देने को भी तैयार थे। जबकि इस युवा ने खुद ही पढ़ाई की थी। इस युवा ने कोचिंग संस्थान वालों से मना कर दिया। ऐसा आज भी होता है। कोचिंग संस्थान चाहे यूपीएससी के हों, इंजीनियरिंग के हों, अथवा मेडिकल या एमबीए के, अधिकांश की कहानी कमोबेश एक जैसी ही होती है। कोटा में भी यही हाल देखने को मिलता है। वहां तो और भी कम उम्र के बच्चे मेडिकल की तैयारी करने आते हैं। बहुत बार इतने निराश होते हैं कि जान दे देते हैं।
लेकिन अन्य परीक्षाओं के साथ यूपीएससी की कहानियां बेहद दर्दनाक हैं। खास तौर से तब जब वे असफलता से जुड़ी हों। बहुत बार इस आशा में कि बच्चा बड़ा अफसर बन जाएगा, माता-पिता अपनी जमीन, खेत मकान सब कुछ बेच देते हैं, कर्ज ले लेते हैं, मगर जरूरी नहीं कि उनका बच्चा सफल ही हो। और कई बार ऐसा होता है कि एक सफलता की आशा में पूरा का पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है। भारत में माता-पिता का ध्यान अक्सर सरकारी नौकरी पर रहता है। और यदि नौकरी सरकारी है और ऊपरी कमाई वाली भी है तो कहना ही क्या। क्योंकि एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए तो जीवन भर के लिए पक्की समझिए। इसीलिए विवाह के मामले में भी लोग उन लड़कों को पसंद करते हैं जिनकी सरकारी नौकरी होती है।
कई साल पहले यह लेखिका एक ऐसे दक्षिण भारतीय लड़के से मिली थी जो बहुत पढ़ा-लिखा था। अपने हुनर में माहिर था, मगर बड़ी उम्र हो जाने के बावजूद उसकी शादी दो कारणों से नहीं हो रही थी, एक तो उसकी सरकारी नौकरी नहीं थी और दूसरे वह विदेश में नौकरी नहीं करता था। दोनों में से एक भी बात होती तो शायद उसकी शादी समय पर हो गई होती। उत्तर भारत में भी ऐसी ढेरों कहानियां मौजूद हैं। जो लोग तमाम प्रयासों के बावजूद यूपीएससी में सफल नहीं हो पाते, इसका दुःख उन्हें जिंदगी भर सालता रहता है। अपने ही किसी साथी को बड़ा अफसर देख उनका दुःख और बढ़ जाता है। फिर जिस सपने को लेकर दिल्ली आए थे, वह पूरा नहीं हुआ तो वे अपने नाते-रिश्तेदारों, अड़ोसी-पड़ोसियों की नजर में गिर जाते हैं। तरह-तरह का अपमान झेलते हैं।
समाज में शक्ति और अधिकार के प्रति इतना सम्मान है कि बाकी मानवीय गुण पीछे छूट जाते हैं। इस मामले में महान लेखक जयशंकर प्रसाद के नाटक स्कंद गुप्त का ही पहला वाक्य याद आता है-अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement