लोहे के चने चबा चांदी ले आई चानू
टोक्यो ओलंपिक की शुरुआत में ही वेटलिफ्टिंग में चांदी का मेडल जीतकर मीराबाई चानू ने डेढ़ साल से महामारी के अवसाद में डूबे देश को उल्लास से भर दिया। वैसे तो वेटलिफ्टिंग में यह किसी महिला खिलाड़ी को दो दशक बाद मिला पदक था, लेकिन भारतीय ओलंपिक के इतिहास में पहला रजत पदक था, जिसे उन्होंने 49 किलोग्राम वर्ग में 202 किलोग्राम भार उठाकर जीता । सबसे बड़ी बात तो ये कि चानू रियो ओलंपिक के उस दु:स्वप्न से उबरी, जिसमें वह ‘डिड नॉट फिनिश’ के लांछन से अवसाद में चली गई थी। दरअसल, उस दिन उसके हाथ जाम हो गये और अभ्यास के दौरान रोज उठा सकने वाले भार को भी वह नहीं उठा पायी। वर्ष 2016 की इस घटना ने उन्हें अवसाद से भर दिया था। एक समय तो उसने खेल छोड़ने तक का मन बनाया, लेकिन मनोवैज्ञानिक उपचार काम आया और फिर उन्होंने अपने खेल में जबरदस्त वापसी की। कालांतर 2018 में आस्ट्रेलिया में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में उसने 48 किलो वर्ग में सोने का पदक जीता।
मणिपुर की राजधानी इंफाल से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर नोंगपोक काकचिंग गांव में 8 अगस्त, 1994 में जन्मी मीराबाई चानू को चुनौतियां जन्म के बाद ही महसूस होने लगी। गांव में खेल की कोई सुविधा नहीं थी। आय के साधन सीमित थे और परिवार बड़ा था। वह छह भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। संयोग से उन दिनों मणिपुर की महिला वेटलिफ्टर कुंजुरानी चर्चित नायिका थी और एथेंस ओलंपिक खेलने भी गई थी। उसकी लोकप्रियता से चानू के दिल में एक बात घर कर गई कि बड़े होकर वेटलिफ्टर ही बनना है। उसकी जिद के आगे घर वालों को झुकना पड़ा। जब वर्ष 2007 में उसने वेटलिफ्टिंग की प्रेक्टिस शुरू की तो अभ्यास के लिये लोहे का बार नहीं था और वह बांस के भार से ही अभ्यास करती। उसे रोज दूध और चिकन चाहिए होता, लेकिन परिवार के लिये यह मुमकिन नहीं था, लेकिन इसे उन्होंने बाधा नहीं बनने दिया।
अपने इरादों को अंजाम देने के लिये जब चानू ने अपने घर से बीस किलोमीटर दूर एक एकेडमी ज्वाइन की तो आने-जाने के खर्च की चिंता थी। वह ट्रकों से लिफ्ट लेकर गंतव्य स्थल तक पहुंचती ताकि किराया बचे। चानू की संवेदनशीलता देखिये कि टोक्यो से पदक जीतकर जब वह गांव लौटी तो उसने तमाम ट्रक ड्राइवरों को प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया और मिठाई खिलाई।
वाकई हमें किसी खिलाड़ी का पदक दिखायी देता है, इस मुकाम तक पहुंचने के लिये उसका त्याग व तप नजर नहीं आता। अपने 48 किलोग्राम भार वर्ग में अपनी जगह बनाये रखने के लिये चानू ने कई बार खाना तक नहीं खाया ताकि उसका वजन नियंत्रित रहे। यहां तक कि सगी बहन की शादी तक में नहीं जा सकी। जब खिलाड़ी पदक जीतता और हारता है तो उसकी आंख में छलकने वाले आंसू बहुत कुछ कह रहे होते हैं।
कमाल की बात है कि चार फुट- ग्यारह इंच की मीराबाई चानू विश्व स्पर्धाओं में बड़े-बड़े खिलाड़ियों के छक्के छुड़ा देती है। वह अपने वजन से चार गुना से अधिक वजन उठा लेती है। कहते हैं न कि ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात।’ चानू ग्यारह साल की उम्र में अंडर-15 चैंपियन बन गई थी। सत्रह साल की आयु में जूनियर चैंपियन बन गई। इतना ही नहीं, जिस नायिका कुंजुरानी से प्रेरित होकर चानू भारोत्तोलन की दुनिया में आई तो उनका ही राष्ट्रीय रिकॉर्ड उसने वर्ष 2016 में ध्वस्त कर दिया। विजय यात्रा की शुरुआत चानू ने विश्व वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में सोना जीतकर की। लेकिन घर की आर्थिक तंगी चानू को परेशान करती रही। यहां तक कि चानू को घर वालों को कहना पड़ा कि यदि वह रियो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई न कर पायी तो हमेशा के लिए खेल छोड़ देगी। लेकिन उसने कड़ी मेहनत व अभ्यास से टोक्यो की चांदी की राह तय कर ली। उसकी इस चांदनी राह में उसके कोच विजय शर्मा की भी बड़ी भूमिका रही, खासकर जब वह रियो ओलंपिक में अपनी स्पर्धा पूरी नहीं कर पायी तो वह भीतर से टूट गई, तब विजय शर्मा ने उसे उबरने और आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया।
इतना ही नहीं, मांसपेशियों के खिंचाव के कारण उसे कमर दर्द से भी जूझना पड़ा, जिसकी वजह से वह पिछले एशियाई खेलों में नहीं खेल पायी। पिछले दिनों टोक्यो से रजत पदक लाने पर जब मणिपुर के मुख्यमंत्री ने उसे इनाम दिया तो खुलासा किया कि प्रधानमंत्री मोदी ने पदक जीतने में चानू की मदद की। उन्होंने बताया कि मोदी जी के कहने पर मांसपेशियों के ऑपरेशन और प्रेक्टिस के लिये अमेरिका भेजने का खर्च भारत सरकार ने उठाया। निस्संदेह अमेरिका के स्ट्रेंथ एंड मेंटल कंडीशनिंग कोच हॉर्चिग ने चानू को चांदी का पदक दिलाने में अहम भूमिका निभायी। दरअसल, पहले वजन उठाते समय चानू के बाएं कंधे पर ज्यादा जोर पड़ता और लिफ्ट का संतुलन बिगड़ता था। कोच ने कुछ ऐसे व्यायाम जोड़े जो दोनों कंधों पर बोझ का संतुलन करते हैं।
निस्संदेह, टोक्यो में चांदी का पदक जीतना चानू ही नहीं, करोड़ों भारतीयों का सपना सच होने जैसा था। यही वजह है कि उसने पदक उन तमाम भारतीयों को समर्पित किया, जिन्होंने उसके लिये दुआ मांगी। टोक्यो में अंतिम मुकाबले में उनकी वह बॉली भी चर्चा में रही, जिसमें ओलंपिक का प्रतीक चिन्ह बना था। बताते हैं मां तोम्बी लीमा ने अपने जेवर बेचकर बेटी के शुभ के लिये इसे बनवाया था। चानू की एक खास बात और भी है कि जब वह विदेश यात्रा में होती है तो उसके बैग में भारत धरा की मिट्टी जरूर होती है। चानू की नजर अब 2022 के एशियाई खेलों पर है।