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जरूरत के बदलाव

06:49 AM Dec 22, 2023 IST

निस्संदेह, ब्रिटिशकालीन आपराधिक कानूनों को समय की जरूरत के हिसाब से बदलना देश की आवश्यकता रही है। जिसके बाबत देश के आपराधिक कानून को बदलने वाले तीन महत्वपूर्ण विधेयक बुधवार को लोकसभा में पारित कर दिये गए। इनमें भारतीय न्याय संहिता विधेयक, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य विधेयक शामिल थे। हालांकि, विपक्षी नेता बड़ी संख्या में विपक्षी सांसदों के निलंबन के बीच इन महत्वपूर्ण विधेयकों को गंभीर चर्चा के बिना पारित करने को लेकर सवाल उठा रहे हैं। साथ ही विपक्षी नेता इन विधेयकों के कुछ प्रावधानों को अदालत में चुनौती देने की भी बात कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ये बिल भारतीय दंड संहिता-1860, दंड प्रक्रिया संहिता-1898 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 की जगह लेंगे। सरकार का तर्क है कि ये विधेयक औपनिवेशिक काल के कानूनों का स्थान लेंगे और इन्हें वक्त की जरूरत के हिसाब से न्याय संगत बनाने की कोशिश की गई है। यह भी कि इनका मकसद दंड की जगह न्याय देने की कोशिश है। दरअसल, आजादी के बाद अपराध का पूरा तंत्र बदल चुका है। वहीं नई तकनीक से न्याय को अधिक विश्वसनीय बनाने का प्रयास भी किया जा रहा है। नये विधेयक में मॉब लिंचिंग को घृणित अपराध मानते हुए इसके लिये फांसी का प्रावधान किया गया है। साथ ही नाबालिग से बलात्कार के दोषी के लिये भी फांसी की सजा का प्रावधान किया गया है। एक ओर ब्रिटिश शासन के दौरान से चले आ रहे राजद्रोह कानून को खत्म किया गया है लेकिन देश के खिलाफ काम करने वाले को देशद्रोह कानून के तहत दंडित किया जाएगा। गैंगरेप के मामले में बीस साल की सजा या आजीवन कारावास की सजा होगी। यौन हिंसा के मामले में बयान महिला न्यायिक मजिस्ट्रेट ही दर्ज करेगी। इसके अलावा झूठे वायदे कर या पहचान छिपाकर यौन संबंध बनाना अब अपराध की श्रेणी में आ जाएगा। साथ ही डिजिटल एविडेंस को कानूनी साक्ष्य के रूप में मान्यता मिलेगी।
वहीं दूसरी ओर इंडिया गठबंधन के नेता इन विधेयकों के कानून बनने के बाद पुलिस राज बढ़ने की आशंका जता रहे हैं। वे किसी अभियुक्त को पुलिस हिरासत में रखने की अधिकतम सीमा 15 दिन से बढ़ाकर 90 दिन करने पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। वहीं गृहमंत्री अमित शाह इस बदलाव को औपनिवेशिक काल के कानूनों से मुक्ति बता रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस ने इस मुद्दे पर संवेदनशील ढंग से कभी नहीं सोचा। उल्लेखनीय है कि ये तीन बिल गत अगस्त में मानसून सत्र के अंतिम दिन लोकसभा में रखे गये थे। जिसके बाद इन बिलों को संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया। इस समिति की अध्यक्षता भाजपा सांसद बृजलाल कर रहे थे। विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि लोकसभा में इन महत्वपूर्ण बिलों को बिना बहस के पारित कराया गया जबकि सदन में 97 सांसद निलंबित किये जा चुके थे। बहरहाल, राज्यसभा में बिल पारित होने के बाद राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर इन्हें कानून का दर्जा मिल जाएगा। वहीं गृहमंत्री का कहना है कि अब तक आतंकवाद की व्याख्या किसी भी कानून में नहीं की गई थी, पहली बार राजग सरकार आतंकवाद की व्याख्या करने जा रही है। वहीं सरकार का दावा है कि प्रस्तावित कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार और सबके साथ समान व्यवहार के आधार पर लाए गये हैं। वहीं दूसरी ओर विपक्षी इंडिया गठबंधन की बैठक में इस मामले में विमर्श किया गया। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश का आरोप था कि इन विधेयकों को बिना चर्चा के पास करवाने के लिये ही विपक्षी सांसदों को निलंबित किया गया है। बहरहाल, यह तार्किक नहीं लगता कि देश की आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी ब्रिटिशकाल में भारतीयों को दंडित करने के लिये बनाये कानून अस्तित्व में रहें। लेकिन वहीं दूसरी ओर हमारी न्याय व्यवस्था से जुड़े इन विधेयकों पर गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत भी थी। निस्संदेह, वक्त के साथ अपराध का चेहरा, अपराधियों की प्रवृत्ति और अपराधियों के तौर-तरीके भी बदले हैं। बहरहाल, न्याय व्यवस्था का वह सूत्र वाक्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि भले ही समय लगे, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।

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