चढ़ते सूरज को अर्घ्य देने को पाला बदल
राजनीति एक ऐसी जगह है जहां सारे फैसले जमीर को किनारे रखकर लिए जाते हैं। इसमें जो कुछ होता है, वो सिर्फ तात्कालिक स्वार्थ के लिए होता है। नैतिकता, खुद्दारी और आत्मसम्मान को हाशिये पर रखकर वे ऐसे फैसले करते हैं, जिसमें निष्ठा और प्रतिबद्धता के लिए कोई जगह नहीं बचती। पार्टी बदल भी राजनीति में एक ऐसी ही घटना है, जो बहुत सामान्य हो गई। इन दिनों मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेताओं की भागमभाग लगी है। नेता पाला-बदल जुगाड़ में लगे हैं। उनकी सोच है कि यदि गले का दुपट्टा बदलने से स्वार्थ सिद्धि होती है, तो फिर उसमें बुराई क्या है!
करीब साढ़े तीन साल पहले मध्यप्रदेश की राजनीति में एक भूचाल-सा आया था। तब कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ पार्टी से विद्रोह किया था। नतीजतन कांग्रेस की तत्कालीन कमलनाथ सरकार भरभराकर गिर गई। वर्ष 2018 का विधानसभा चुनाव हारी भाजपा ने फिर प्रदेश में सरकार बना ली। लेकिन, सिंधिया के विद्रोह की जड़ें इतनी गहरे तक उतर गई, कि वो आज भी पल्लवित हो रही हैं। यही वजह है कि 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना आंककर कई भाजपा नेता कांग्रेस के पाले में आए थे। लेकिन, अब हवा उलटी चलती दिखाई दे रही है, तो लोकसभा चुनाव से पहले कई नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा का पल्ला थामने में लगे हैं। इनमें वे नेता भी हैं, जो पहले भाजपा से कांग्रेस में गए थे, वे अब यू-टर्न लेने लगे।
कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके सांसद बेटे के भाजपा में जाने को लेकर भी बहुत हल्ला हुआ था। वह कोशिश राजनीतिक कारणों से साकार नहीं हो सकी, पर उसकी कमी कांग्रेस से चार बार राज्यसभा सदस्य रहे सुरेश पचौरी, पूर्व विधायक संजय शुक्ला, विशाल पटेल के साथ तीन बार के सांसद रहे गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी ने पूरी कर दी। सभी समर्थकों संग भाजपा में शामिल हो गए।
आखिर कांग्रेस में ऐसा क्या हो गया कि उसमें भगदड़ जैसे हालात बन गए। रोज कोई न कोई बड़ा नेता भाजपा खेमे में खड़ा दिखाई देने लगा। इसके मूल में राजनीतिक कारणों से इतर कोई न कोई स्वार्थ नजर आता है। किसी ने टिकट न मिलने से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी तो कुछ नेताओं के कारोबार पर आया संकट इसकी वजह है। लेकिन, सुरेश पचौरी जैसे 72 साल के नेता का कांग्रेस से क्यों मोहभंग हुआ और भाजपा में उनका क्या उपयोग है, ये किसी को समझ से परे है। कांग्रेस छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं का कहना है, कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का राम मंदिर लोकार्पण समारोह का निमंत्रण ठुकराना सही फैसला नहीं था। पार्टी में भगदड़ के जो हालात बने, उसका मूल कारण फिलहाल तो यही बताया जा रहा है। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को अंदाजा नहीं था कि इस फैसले का खमियाजा उन्हें इस तरह भुगतना पड़ेगा।
कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने के फैसले को कम से कम राजनीतिक विचारधारा में बदलाव तो नहीं कहा जा सकता। विचारधारा की जड़ें इतनी कच्ची नहीं होती कि झटके में उखड़ जाएं। अन्य कारण भी हैं, जिससे ये नेता कांग्रेस छोड़ने को मजबूर हुए। इंदौर के धन्नासेठ पूर्व विधायक संजय शुक्ला ने अपने विधायक कार्यकाल में क्षेत्र के लोगों को अयोध्या की मुफ्त यात्रा कराई। राम मंदिर लोकार्पण को लेकर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के रवैये ने उन्हें आहत किया। ऐसे ही हर नेता के पास कोई न कोई तार्किक कारण हैै। एक आंकड़े के अनुसार पांच हजार से अधिक कांग्रेसियों ने पार्टी का ‘हाथ’ छोड़ दिया।
ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं, जो पहले भाजपा में रहे, फिर माहौल बदला तो कांग्रेस में आ गए, चुनाव जीतकर सांसद और विधायक बने और अब वापस लौट गए या लौटने वाले हैं। धार संसदीय क्षेत्र से तीन बार सांसद और एक बार मनावर विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे आदिवासी नेता गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी ने भी गले में भाजपा का भगवा गमछा डाल लिया। जबकि, राजूखेड़ी का रणनीति में पदार्पण भाजपा का झंडा थामकर हुआ था। उन्होंने 1989 में मध्यप्रदेश के उपमुख्यमंत्री रहे कांग्रेस नेता शिवभानु सिंह सोलंकी को मनावर में हराया था। लेकिन, इसके बाद वे भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए और तीन बार सांसद चुने गए। उनका आरोप है कि कांग्रेस ने उनकी उपेक्षा की। लोकसभा चुनाव पैनल से नाम कटने पर उन्होंने पार्टी को अलविदा कहा।
वैसे इस दलदल से भाजपा को भी देर-सवेर नुकसान हो सकता है। इन नेताओं के आने से भाजपा के प्रतिबद्ध नेता हाशिये पर चले जाएंगे। जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके पूरे गुट के भाजपा में जाने के बाद प्रदेश के उन इलाकों में भाजपा के नेता हाशिये पर चले ही गए, जहां सिंधिया-गुट का दबदबा था। लेकिन राजनीति को हमेशा फास्टफूड की तरह देखा जाता है। तात्कालिक रूप से भाजपा को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को खत्म करने का मौका मिल रहा है, तो वह उससे चूकेगी भी नहीं। लेकिन, भविष्य के राजनीतिक परिदृश्य की अनदेखी नहीं की जा सकती!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।