बढ़ते तनाव के बीच शांति की संभावना क्षीण
अरब भूमि पर लंबे समय से इस्राइली कब्जे के हश्र में 1987 में फलस्तीनी लड़ाकू संगठन हमास बना था, वक्त के साथ फलस्तीनियों का आंदोलन ‘इंतिफादा’ के नाम से मशहूर हुआ। हमास, जिसको ज्यादातर पश्चिमी देश कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन मानते हैं, वह फलस्तीनी इलाकों पर इस्राइल के कब्जा-अभियानों को कड़ी टक्कर देने में एक बड़ी शक्ति बनकर उभरा। इस्राइल द्वारा अपनी नीतियों पर बने रहने के कारण, कब्जाए गए क्षेत्रों में फलस्तीनियों का विरोध बढ़ता चला गया, जिनका अंतिम ध्येय है गाज़ा पट्टी और जॉर्डन नदी के पश्चिमी खित्ते पर इस्लामिक राज्य की स्थापना। यह संकल्प, मिस्र का इस्राइल से राजनयिक संबंध कायम करके अपने इस पड़ोसी से दोस्ती बना लेने के बावजूद है। लेकिन मिस्र भी हमबिरादर अरबी लोगों और मुल्कों की भावनाओं की अनदेखी नहीं कर पाएगा।
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 1992 में निर्णायक इच्छाशक्ति दिखाते हुए इस्राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए। जहां भारत फलस्तीनियों के जायज हकों का निरंतर समर्थन करता आया है, वहीं इस्राइल के साथ भी हमारे रिश्ते बढ़ते गए। भारत की यह धारणा पहले भी थी और आज भी यही है कि अपने अड़ोस-पड़ोस में, सुस्पष्ट सीमाओं वाले इस्राइल की सुरक्षा की गारंटी बने रहे। भारत का दृढ़ विश्वास है कि इस्राइल या किसी अन्य द्वारा हिंसा का सहारा लेने से समस्या हल नहीं होने वाली, बल्कि इससे पाट सिर्फ और चौड़ा होगा। यह हकीकत है कि इस्राइल को अपनी सीमाओं पर फलस्तीनी गुटों का आक्रमण निरंतर झेलना पड़ता है। ठीक इसी समय, यह बात भी ज़हन में रखनी होगी कि फलस्तीनियों को उनके मानवीय, क्षेत्रीय, आर्थिक और राजनीतिक हकों से महरूम नहीं किया जा सकता।
इस्राइली नीतियों और जबरन कब्जा करने के विरुद्ध आंदोलनों की अगुवाई करने वाले हमास संगठन की स्थापना एक फलस्तीनी इमाम और कार्यकर्ता अहमद यासीन ने 1973 में की थी। हमास पहले भी, और वर्तमान में भी, एक लड़ाकू संगठन है, जो इस्राइल के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन चलाने की वकालत करता है। कोई हैरानी नहीं कि हमास के प्रतिद्वंद्वी और धर्मनिरपेक्ष ‘फाताह’ नामक गुट का उद्भव भी जल्द ही हुआ, जिसको स्पष्टतः मिस्र और पश्चिमी जगत का समर्थन प्राप्त है। फिर भी लड़कर अपना इलाकाई हक प्राप्त करने वाली छवि के चलते हमास फलस्तीनियों का नायक है और उसने लोगों से आह्वान किया कि वे फलस्तीनी विधान परिषद में उसके उम्मीदवार चुनकर भेजें। वर्ष 2006 में फलस्तीनी विधान परिषद चुनाव में प्रतिद्वंद्वी फाताह को हराने के बाद हमास के हाथ में गाज़ा पट्टी का नियंत्रण आ गया।
दरअसल, हमास इस्राइल के जिस्म में गड़ा हुआ एक कांटा है और वह भी कट्टरवादी धार्मिक नीतियों और रीतियों को लगातार बढ़ावा दे रहा है। उसके लड़ाके इस्राइल से लगातार भिड़ते रहते हैं। संक्षेप में, स्पष्टतः हमास का ध्येय है कि वर्ष 1967 में मिस्र को हराने के बाद जिस इलाके पर इस्राइल का कब्जा हो गया, उस पुरानी सीमा रेखा के अंदर वह एक इस्लामिक राष्ट्र स्थापित कर पाए। अब राजनीतिक तौर पर माना जा रहा है हमास इस्राइल से हल निकालने को तैयार है बशर्ते उसे वह इलाका मिलने की गारंटी हो, जो पहले मिस्र के पास था।
हाल के दिनों में हैरान करने वाली घटना घटी, जब 7 अक्तूबर को हमास ने इस्राइली इलाकों पर बहुत बड़ा आतंकी हमला किया। चार दिनों की भीषण लड़ाई के बाद खबर आई कि हमास ने लगभग 1200 इस्राइली मार डाले और 150 को बंधक बना रखा है। लेकिन अब इस्राइल का जवाबी हमला वक्त की बात है। लेकिन उम्मीद करें कि इस्राइली बेगुनाह आम नागरिकों की जिंदगी की कद्र करेगा। इसी बीच, अमेरिका उस इलाके में तैनात अपनी नौसेना को और सुदृढ़ कर रहा है, जो कि इस्राइली द्वारा अपना इलाका फिर से प्राप्त करने की मुहिमों में प्रतीकात्मक मदद के तौर पर वहां है। आने वाले महीनों में अमेरिका में राष्ट्रपति और प्रांतीय सरकारों के चुनावों के मद्देनज़र, बाइडेन प्रशासन के पास विकल्प कम ही है, सिवाय इसके कि जो भी ‘माकूल तरीका’ इस्राइल चुनेगा, उसका साथ दे। इसमें अमेरिका को अपने यूरोपियन सहयोगियों से समर्थन मिलने का भरोसा है। अमेरिका को एक अन्य सैन्य कार्रवाई में फंसते देख, जिसका अनुमोदन इस्लामिक जगत में कोई नहीं करना चाहेगा, रूस और चीन ऐसे नज़ारे का आनंद लेना चाहेंगे।
पश्चिम एशिया में बढ़ते तनाव से जो हालात पैदा हो सकते हैं, उससे निपटने के लिए भारत अच्छी स्थिति में दिखाई दे रहा है। इस्राइल फलस्तीनी इलाकों पर बड़े पैमाने पर चढ़ाई करने के लिए तैयारी कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने हमास के हमले के बाद इस्राइली समकक्ष बेंजमिन नेतन्याहू से भारत की ओर से सहानुभूति और समर्थन व्यक्त किया था। मोदी ने कहा ‘आतंकी हमले की खबर से गहरा झटका लगा है, हमारी संवेदनाएं और प्रार्थनाएं विपत्ति-ग्रस्त बेगुनाह लोगों और उनके परिवारों के साथ हैं। इस मुश्किल घड़ी में हम इस्राइल के साथ खड़े हैं।’ विदेश मंत्रालय ने हालांकि बाद में स्पष्टीकरण देते हुए कहा ‘भारत हमेशा से संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य फलस्तीन राष्ट्र की स्थापना के लिए, जो कि मान्यता प्राप्त सीमाओं के भीतर और सुरक्षित हो, संबंधित पक्षों के बीच सीधी वार्ता का हामी रहा है।’ संक्षेप में, भारत पश्चिम एशिया में बन रही स्थिति का अवलोकन सावधानीपूर्वक कर रहा है।
जहां भारत के संबंध अरब मुल्कों के साथ सौहार्दपूर्ण और रचनात्मक रहे हैं, हमें अपने ज़हन में इन पश्चिमी पड़ोसियों को सबसे अधिक तरजीह देने की बात रखनी होगी। खाड़ी के अरब राष्ट्रों, विशेषकर सऊदी अरब और यूएई, जिनके साथ हमारे निकट संबंध और प्रगाढ़ हो रहे हैं, इन सब से अच्छे संबंध बने रहें, इस पर खासतौर पर ध्यान केंद्रित हो। सऊदी अरब के युवराज सलमान जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने आए थे और इसके बाद चली द्विपक्षीय वार्ता में दोनों मुल्कों के संबंध और मजबूत होने जा रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि सऊदी अरब और यूएई भारत के साथ दीर्घ-कालीन भागीदारी करने जा रहे हैं, जिसके तहत यूरोप तक पहुंचने वाला, भारत-पश्चिम एशिया आर्थिक गलियारा बनेगा। आज भी, लगभग 34 लाख भारतीय कामगार यूएई में रह रहे हैं, जिन्होंने पिछले साल लगभग 16 बिलियन डॉलर भारत में अपने परिवारों को भेजे हैं, इसी तरह सऊदी अरब में रहने वाले 26 लाख भारतीयों से 5 बिलियन डॉलर आए।
प्रधानमंत्री नेतन्याहू को अपने पड़ोसी अरब मुल्कों और फलस्तीनियों से रिश्तों में जितनी संवेदनशीलता बरतनी चाहिए थी, वह न होने की वजह से ईरान और लड़ाकू अरब गुटों में निकट सहयोग देखने को मिलेगा। पहले ही अरबी लोग अपनी मुसीबतों के लिए अमेरिका को जिम्मेवार ठहराते हैं। अब यह धारणा और पुख्ता होगी, वजह साफ है, इस क्षेत्र की हकीकतों से दूर उसका आकलन। यथार्थवादी नजरिए से, फलस्तीनी लोगों की मुसीबतों का हल पहले ही क्षीण था, अब यह संभावना और कमजोर हो जाएगी, इस इल्जाम का सामना इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को करना पड़ेगा। इस्राइल के प्रति अरबों का अविश्वास और दुश्मनी और बढ़ेगी। हमारे पश्चिमी पड़ोस में शांति और सौहार्द की उम्मीद काफी कमजोर लगती है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।