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स्वदेशी रक्षा उत्पादन से ही चुनौतियों का मुकाबला

06:30 AM Mar 21, 2024 IST
स्वदेशी रक्षा उत्पादन से ही चुनौतियों का मुकाबला
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सी. उदय भास्कर

भारत ने हाल ही में एमआईआरवी या मिर्वी (मल्टीपल इंडीपेंडेंट टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल) सक्षमता वाली अग्नि-5 मिसाइल का सफल परीक्षण किया। यह एक प्रशंसनीय उपलब्धि है, इसके लिए डीआरडीओ के वैज्ञानिक बधाई के पात्र हैं। मिर्वी क्षमता पाने के साथ भारत चुनींदा राष्ट्रों के समूह में शामिल हो गया है। अभी तक यह काबिलियत केवल अमेरिका, रूस, यूके और चीन के पास थी। यह तकनीक 5000 किमी. या उससे अधिक दूरी तक, इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाइलों को मारक क्षमता प्रदान करती है। एमआईआरवी समक्षता होने का मतलब है एक वारहैड में कई परमाणु वारहैड होते हैं और इनमें हरेक अलग-अलग जगह स्थित टागगेट को निशाना बना सकता है।
इस किस्म की उपलब्धि पहली मर्तबा अमेरिका ने 1970 के दशक के शीत युद्ध-काल में और बाद में सोवियत संघ ने पाई थी, आगे चलकर बाकी के उपरोक्त वर्णित तीन राष्ट्रों ने यह क्षमता पाई। मिर्वी की खास विशेषता है कि मिसाइल रोधी रक्षा तंत्र इसके सामने पंगु है और प्रति-घात आधारित संयम बनाने में इसका योगदान महत्वपूर्ण और जटिल प्रभावों वाला है। चीन ने मिर्वी समर्था 2015 में हासिल कर ली थी। जिस तरह मुख्य ताकतें सामूहिक नरसंहारक समक्षता पाने में तकनीकी-सामरिक पायदान चढ़ रही हैं, उसके मद्देनज़र अपने पास निवारक उपाय होना निश्चित अपरिहार्यता बन जाती है। अक्तूबर, 1964 में चीन परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बना और कुछ झिझक के बाद भारत मई, 1998 में। सोवियत संघ के विघटन और अमेरिका का बतौर एकमात्र वैश्विक बाहुबली बनकर उभरने के बाद, चीन ने सीमा-पारीय संहारक सक्षमता पाने में निवेश करना शुरू किया, मिर्वी समर्था पाना इस नीति का हिस्सा है। सामरिक हिसाब से, अमेरिका के संदर्भ में, चीन ने अपने ऊपर सामूहिक नरसंहार हमले की आशंका से प्रति-घात उपाय हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए। लेकिन भारत और चीन के रिश्तों के संदर्भ में यह अवयव अलग स्तर का है और अग्नि-5 मिर्वी परीक्षण हमारी भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। हालांकि, मुख्य अंतर यह कि एशिया के ये दो विशाल मुल्क पड़ोसी हैं और इनके बीच 4000 किमी सीमारेखा है। फिर, भूमि विवाद अनसुलझे हैं और दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने की स्थिति में हैं, कुछ संभागों में जमीनी हालत तनावपूर्ण बनी हुई है।
भारत के मिसाइल कार्यक्रम ने 1980 के दशक के शुरू में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में, स्पष्टतः चाल पकड़नी शुरू कर दी थी। उस दौर में डीआरडीओ की यह उपलब्धि उल्लेखनीय थी क्योंकि अमेरिका ने भारत पर अनेकानेक तकनीक-प्रतिबंध थोप रखे थे। पृथ्वी श्रेणी की साधारण मिसाइलों के साथ परीक्षण शुरू करके, इंटिग्रेटेड गाइडेड मिसाइल कार्यक्रम ने मिर्वी समक्षता वाली अग्नि-5 प्रदान कर भारत की सामूहिक संहारक क्षमता में इजाफा किया है। चीन-भारत-पाकिस्तान संबंधों के परिपेक्ष्य में, इस क्षमता का सामूहिक विध्वंस के मामले में क्षेत्रीय प्रति-घात संयम बनाने में काफी प्रभाव रहेगा।
एक गैर-इरादन संयोगवश, जहां भारत अपनी एमआईआरवी सफलता का जश्न मना रहा है, वहीं स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में भारत सबसे बड़ा शस्त्र आयातक बना हुआ है। मार्च, 2024 की रिपोर्ट बताती है कि 2014-18 और 2019-23 कालखंड में भारत के शस्त्र आयात में 4.7 फीसदी इजाफा हुआ।
किंतु सत्य की कसौटी पर, फैलाई गई यह धारणा गलत पाई जाती है कि भारत ने अपनी सैन्य अस्त्र-शस्त्र जरूरतों में काफी हद तक आत्म-निर्भरता पा ली है और अब एक बड़ा निर्यातक भी है। इस बाबत रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किए दावे उल्लेखनीय हैं।
इस विरोधाभास की व्याख्या यह है कि जहां डीआरडीओ का मिसाइल विकास कार्यक्रम स्पष्टतः सफल है, वहीं रिवायती अस्त्र-शस्त्रों के मामले में प्रगति बहुत धीमी है, तारीफ लायक कितने स्वदेशीकरण हुए? अलबत्ता यह सही है कि टोह, निगरानी और संचार उपकरण क्षेत्र में किया विकास प्रशंसनीय है पर ऐसे प्रसंग डीआडीओ के लगभग नगण्य उपलब्धियों वाले सकल इतिहास में अपवाद स्वरूप हैं।
यह शर्म की बात है कि पिछले 50 सालों में, एक ओर भारत ने सामूहिक संहारक क्षमता (मिसाइलें, अणु बम और परमाणु शक्ति) पाने में उल्लेखनीय प्रगति की है तो वहीं स्वदेशी तकनीक से रिवायती सैन्य हथियार बनाने की गति अत्यंत धीमी रही है। व्यक्तिगत अस्त्र (राइफल) से लेकर बड़ी तोपें, टैंक और लड़ाकू हवाई जहाज, इनके स्वदेशीकरण की चाल शोचनीय है। चाहे यह शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व हो या सैन्य अधिकारी, रक्षा मंत्रालय के नौकरशाह हो या सरकारी वैज्ञानिक, हर कोई इस कोताही के लिए जिम्मेवार है। जिस तंत्र को वे पोषित करते हैं, उसका जोर केवल आयात को बढ़ावा देने पर है।
जाने कितनी मर्तबा डीआरडीओ की कार्य-कुशलता की समीक्षा इस क्षेत्र के और अन्य विषयक विशेषज्ञों ने की है, जिसमें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम (जिन्होंने डीआरडीओ के अपने कार्यकाल में मिसाइल विकास कार्यक्रम की अगुवाई की थी) से लेकर विजय केलकर, पाल्ले रामा राव और नरेश चंद्रा शामिल थे, लेकिन डीआरडीओ की उत्पाद-विकास प्रगति में कोई खास सुधार नहीं आया। इसने पिछले पांच सालों में उच्च श्रेणी की अनेकानेक सफलताओं के दावे तो किए किंतु कुल मिलाकर यह 10-90 वाला मामला है यानी मामूली 10 फीसदी सफलता गाथा को सार्वजनिक तौर बढ़ा-चढ़ाकर 90 प्रतिशत और विश्वस्तरीय बताना। मरणासन्न पड़े रक्षा एवं अनुसंधान क्षेत्र में गतिशीलता भरने को कुछ पहलकदमी जरूर हुई है, लेकिन यह प्रयास आकांक्षाएं अधिक हैं और ले-देकर इन्हें ‘काम चालू आहे’ में गिना जा सकता है।
अगली सरकार के लिए राष्ट्रीय रक्षा चुनौतियां बहुत बड़ी होने वाली हैं, लेकिन एक गुणदोष यहां दोहराना मौजूं है ः बात जब देश की सुरक्षा की हो तो राजनीतिक मजबूरियां इस विषय-वस्तु को गंदला न करें और न ही अवांछित अथवा गलत तथ्यों वाली कहानियां गढ़कर फैलाई जाएं।
किसी विकासशील देश के लिए अपने सैन्य शस्त्रागार का स्वदेशीकरण करना एक दुरूह काम है, और इसमें अनेक बार विफलताएं भी मिलेंगी। तेजस युद्धक विमान का हालिया क्रैश यहां एक उदाहरण है। इसका हल शतुर्मुर्गी रवैया अपनाने में नहीं बल्कि विफलताओं की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करने में है और आगे के लिए सबसे उचित मार्ग ढूंढ़ने में। पिछले चार दशकों में जिस प्रकार उतार-चढ़ाव वाला अनुभव रहा है, उसको जारी रखने की बजाय, आत्मनिर्भरता की डगर में उच्च दर्जे की संस्थागत सत्यनिष्ठा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धात्मकता की लपट होना जरूरी है।

लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के निदेशक हैं।

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