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अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र उत्पन्न चुनौतियां

06:40 AM Jul 08, 2024 IST
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र उत्पन्न चुनौतियां
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जी. पार्थसारथी

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जहां भारत में आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार स्थापित हुई है, वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव अभियान ने समूची राजनीतिक प्रक्रिया और कार्यविधि में भ्रम और दुविधा पैदा की है। राष्ट्रपति बाइडेन और उनके प्रतिद्वंद्वी ट्रंप के बीच रंजिश पुरानी है, पिछली बार बाइडेन ने ट्रंप को मात जो दी थी। दुनिया ने देखा कि किस तरह बाइडेन अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण कतई फिट नहीं हैं, टेलीविजन पर प्रतिद्वंद्वी ट्रंप के साथ दिखाई गई रिवायती राष्ट्रव्यापी बहस के दौरान भी उनके दवा लेने पर सबने गौर किया। अपने राष्ट्रपति की सेहत को लेकर अमेरिकी चिंतित हैं। आगामी राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय की तटस्थता पर भी सवाल उठ रहे हैं।
मौजूदा संकेतों के अनुसार हाल-फिलहाल बाइडेन की जीत की संभावना कम है। जो भी है, बाइडेन के विदेशमंत्री जोसेफ ब्लिंकन और एनएसए जेक सुलिवन के अपने समकक्षों एस. जयशंकर और अजीत डोभाल के साथ संबंध अच्छे हैं। भारत-अमेरिका के बीच सुचारु कामकाज में, इनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। भारत के नवनियुक्त विदेश सचिव विक्रम मिसरी अमेरिका और चीन में भारत की ओर से काम कर चुके हैं, लिहाजा दोनों से कौशलपूर्वक बरतने में वे पूरी तरह योग्य हैं। स्पष्ट है कि भारत की नीतियों का ध्यान मुख्य रूप से अपने पड़ोसी देश, खासकर पूरबी दिशा में मलक्का की खाड़ी के देशों से लेकर होरमुज़ की खाड़ी के तेल संपन्न अरब राष्ट्रों से रिश्ते मजबूत और शांतिप्रिय रखने पर रहेगा। सर्वविदित है कि ट्रंप का प्रधानमंत्री मोदी के साथ निजी राब्ता बहुत बढ़िया है, लेकिन बाइडेन के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। जाहिर है भारत में मानवाधिकारों की चिंता को लेकर हालिया अमेरिकी बयानों के पीछे बाइडेन पूरी तरह जिम्मेवार थे। कोई हैरानी नहीं, प्रधानमंत्री मोदी रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मिलने मास्को जाएंगे, जो न केवल भारत के प्रति दोस्ताना रवैया रखते हैं बल्कि मददगार भी हैंैं।
बहरहाल, भारत-अमेरिका के बीच मतभेदों के बावजूद, हमारे रिश्ते वक्त के साथ मजबूत हुए हैं। ऐसे ही यूके के दोनों दलों, लेबर और कंजर्वेटिव के साथ मधुर बने हुए हैं। यूरोप के विषय में यही दृश्य है, फ्रांस और जर्मनी, दोनों भारत से संबंध सुधारने के इच्छुक हैं। फ्रांस भारत को अनेकानेक किस्म के हथियार देने में एक भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता रहा है। जिसके अंतर्गत मिराज 2000 लेकर अग्रिम श्रेणी के राफेल लड़ाकू जहाज हमें मिले हैं। भारत ने 36 राफेल जेट पाने हैं, और 26 और खरीदने के वास्ते सौदे पर बातचीत जारी है। यह पनडुब्बियों के आयात के अलावा है। बहरहाल, ध्यान रखना होगा कि भारत अमेरिका के साथ अपने बढ़ते संबंधों के परिप्रेक्ष्य में, अन्य वैश्विक शक्ति केंद्रों के साथ संबंध किस किस्म के रख पाएगा। विश्वभर के देशों से साथ रिश्तों में, भारत की प्रतिक्रिया चीन की बढ़ती ताकत के संदर्भ में क्या होगी, यह भी ध्यान का अन्य बिंदु होगा। यह बात भारत के अड़ोस-पड़ोस यानी मल्लका की खाड़ी से लेकर होरमुज़ की खाड़ी के खित्ते पर अधिक लागू है। इस इलाके में चीन द्वारा अपनी शक्ति बढ़ाने का मंतव्य भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक हितों को प्रभावित करने के इरादे से भी है।
यूरोपियन यूनियन भले ही सहयोग की दृष्टि से चीन को बतौर साझेदार ले रही है। लेकिन वह चीन को खतरनाक प्रतिद्वंद्वी की तरह भी देख रही है। दरअसल, चीन की नीतियां यूरोपियन यूनियन के साथ व्यापारिक संबंधों में असंतुलन बना रही हैं। चीन और रूस के बीच बढ़ती निकटता को लेकर भी यूरोपियन यूनियन की चिंता साफ दिखाई देती है। रक्षा मामलों में यूरोपियन देश अमेरिका के बतौर कनिष्ठ सहयोगी बने रहते हैं, इस बात की संभावना कम है कि वे चीन की आक्रामकता के सामने टिकने वाली किसी विदेशी शक्ति का साथ या उसकी मदद करेंगे, जब तक कि अमेरिका उनकी पीठ पर हाथ न रखे।
यदि अमेरिका की मदद न हो तो चीन की आक्रामकता का सामना कर रहे एशियाई देशों को यूरोपियन यूनियन से मदद की आस एक प्रकार से शून्य है, खासतौर पर जब नौबत चीन के साथ लड़ाई की बने। सनद रहे कि चीन के इलाकाई दावों से बने दबाव को झेल रहे फिलीपींस को भारत ने ब्रह्मोस मिसाइलें दी हैं। लेकिन बात जब चीन के साथ अपनी सीमाओं पर तनाव और अनिश्चितता की आए तो भारत अपनी चौकसी में कमी लाना गवारा नहीं कर सकता। विशेषकर जब चीन भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी मुल्कों पर पूरी शिद्दत से डोरे डालने में लगा हो ताकि दक्षिण एशिया सागर या हिंद महासागर के बंदरगाहों में अपनी नौसेना के लिए ठहराव सुविधाएं सुनिश्चित कर सके। वह पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह तक अबाध पहुंच पहले ही हासिल कर चुका है। चीन की निगाह लंबे वक्त से म्यांमार पर भी टिकी है, जहां भारत सित्त्वे बंदरगाह का कामकाज संभालने जा रहा है। इसी बीच, ईरान के चाबहार बंदरगाह का विकास कार्य करवाने को भारत की प्रस्तावित मदद स्वीकार होने पर अफगानिस्तान व मध्य एशिया तक पहुंचने में, भारत को पाक से होकर जाने की जरूरत नहीं रहेगी।
इस्राइल-फलस्तीनी युद्ध शुरू के बाद से भारतीय नौसेना की भूमिका पर अब अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी साफ तौर पर दिखाई दे रही है। पिछले छह महीनों में, भारतीय नौसेना के जहाजों ने अदन की खाड़ी में मालवाहक जहाजों को संरक्षण देकर पार करवाया है। इसमें साथ लगे अरब सागर और पूरबी सोमालिया तट का इलाका भी शामिल है। इस्राइल-फलस्तीन युद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय विवाद और हिंसा को जन्म दिया है। सूझबूझ से काम लेते हुए भारत ने खुद को इस विवाद से फंसने नहीं दिया। इसी बीच, भारत ने अपने ध्यान का मुख्य केंद्र अरब की खाड़ी के मुल्कों की ओर जारी रखा है, जहां लगभग 3.4 करोड़ भारतीय कामगार रोजी-रोटी के लिए बसे हुए हैं। भारत समझबूझ कर इन देशों के साथ अपने संबंध और प्रगाढ़ करने के प्रयास कर रहा है।

लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

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