प्रदूषण की राजधानी
सरकार-समाज युद्ध स्तर पर करें प्रयास
निश्चय यह शर्म की बात है कि हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली दुनिया में सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी घोषित की गई है। निस्संदेह, यह तंत्र की काहिली और समाज के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार की बानगी भी है। विडंबना यह भी है कि दिल्ली समेत भारत के बारह शहर विश्व में सर्वाधिक प्रदूषित पंद्रह शहरों में शुमार हुए हैं। निश्चित रूप से ये शर्मनाक हालात हमारी तरक्की के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगाते हैं। ऐसे कथित विकास व समृद्धि के क्या मायने हैं कि हम बच्चों व बुजुर्गों को स्वच्छ हवा नहीं दे पा रहे हैं। कल्पना कीजिए उन मरीजों की स्थिति की, जो पहले ही सांस व फेफड़े से जुड़े रोगों से ग्रस्त हैं। उनके जीवन में यह प्रदूषित हवा किस तरह ज़हर घोल रही होगी, कल्पना करने से भी डर लगता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का वह आंकड़ा डराने वाला है, जिसमें विश्व के करीब सात हजार आठ सौ शहरों के डेटा विश्लेषण के बाद कहा गया कि दुनिया में वायु प्रदूषण से हर साल सत्तर लाख मौतें होती हैं। निश्चित रूप से यह आंकड़ा पिछले दिनों आई कोरोना महामारी की क्षति से भी बड़ा है। यह वैज्ञानिक सत्य है कि हमारे शहरों की हवा में मौजूद पीएम 2.5 प्रदूषक कणों के कारण अस्थमा, कैंसर, हार्टअटैक व फेफड़ों की अन्य बीमारियां बढ़ जाती हैं। निश्चित रूप से एक स्वच्छ, स्वस्थ और स्थिर पर्यावरण हर व्यक्ति के मानवाधिकार का हिस्सा है, जिसको सुनिश्चित करना सरकारों का नैतिक दायित्व है। लेकिन विडंबना देखिए कि किसी भी चुनाव में जानलेवा होता पर्यावरण प्रदूषण मुद्दा नहीं बनता। यह दुखद स्थिति है कि वायु प्रदूषण के मामले में हमारी गिनती बांग्लादेश व पाकिस्तान के बीच हो रही है, जो हम से कुछ ज्यादा प्रदूषित हैं। निश्चित रूप से स्विट्ज़रलैंड की संस्था आईक्यूएयर की विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2023 आंख खोलने वाली है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि दिल्ली वर्ष 2018 के बाद चौथी बार दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी घोषित हुई है। लेकिन गाल बजाते सत्ताधीश आत्मप्रशंसा के गीत गाने में व्यस्त हैं।
यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हमारी प्राणवायु निरंतर ज़हरीली क्यों होती जा रही है। कहना कठिन है कि इसमें आबादी के बोझ से बजबजाते शहरों की भूमिका है, हमारे तंत्र की नाकामी की देन हैं या हमारी जीवनशैली का खोट सामने आ रहा है। सर्दियों के मौसम की दस्तक के साथ अक्तूबर व नवंबर में दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है। इस दौरान कई स्थानों पर वायु गुणवत्ता का सूचकांक बेहद गंभीर 450 से ऊपर पहुंच जाता है। लेकिन शासन-प्रशासन के लोग कभी इसके लिये किसानों पर पराली जलाने की जिम्मेदारी थोप देते हैं तो कई बार मौसम के मिजाज की दलील दे देते हैं। बार-बार सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद प्रदूषण के स्थायी समाधान की कोशिश नहीं होती। ऑड-ईवन सिस्टम, पानी का छिड़काव, वाहनों के मानकों में बदलाव, फैक्टरियों व निर्माण कार्य पर रोक, पुराने व डीजल वाहनों के नियमन आदि कुछ फौरी उपायों से प्रदूषण नियंत्रण की कवायद तो होती है, लेकिन संकट का स्थायी समाधान होता नजर नहीं आता। एक नागरिक के रूप में हम भी सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल से बचते हैं। दिल्ली में मेट्रो रेल की सुविधाओं के बावजूद सड़कों पर कारों का सैलाब थम नहीं रहा है। सामाजिक स्तर पर वाहन शेयर करके यात्रा करने से हम कतराते हैं। आम लोगों में ऐसा राष्ट्रीयबोध नजर नहीं आता है कि हम देश व समाज के लिए कुछ सुविधा व विलासिता का त्याग कर सकें। दरअसल, प्रदूषण का संकट न सिर्फ ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान की कई स्टेज लागू करने से होगा और न ही सिर्फ सरकारी प्रयासों से। एक नागरिक के रूप में हम अपने कर्तव्यों का किस हद तक पालन करते हैं, वायु स्वच्छता का स्तर पर इस बात पर निर्भर करेगा। ऑड-ईवन सिस्टम भी एक आधा-अधूरा उपचार है। निश्चित रूप से यह बड़ा संकट है और इस संकट का समाधान भी बड़े उपायों व दृढ़ इच्छाशक्ति से ही होगा। राजनेताओं को भी पराली तथा अन्य मुद्दों में संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों से उठकर देश हित में कड़े फैसले लेने होंगे।