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यादों की आहट की बेबाक अभिव्यक्ति

07:05 AM Jun 16, 2024 IST

रमेश जोशी
जीवन में सबसे सरल काम है अपने बारे में बोलना लेकिन अपनी तरह से झूठ-मूठ बोलना। अपने बारे में सच बोलना दुनिया का सबसे कठिन काम है। साहित्य में यह धर्म-संकट सबसे अधिक आत्मकथा और संस्मरण लेखन में आता है। काशीनाथ सिंह ने यह काम अपने संस्मरणों की पुस्तक ‘आहटें सुन रहा हूं यादों की’ में बखूबी किया है।
बहुत संभावना रहती है कि लेखक सच को अपने समय की सभ्यता और संस्कृति के अनुसार सजाए-संवारे। मनुष्य अन्य मानवेतर प्राणियों की तरह पूर्णतः प्राकृतिक नहीं हो सकता। मनुष्य और विशेष रूप से तथाकथित भद्रलोक सच बोलने में भी बहुत ‘स्याणपट्टी’ लगाता है। जब गांधी जैसे संत इस काम में कुछ सफल होते हैं तो उनकी आत्मकथा कालांतर में सबकी आत्मकथा बन जाती है, एक शाश्वत प्रासंगिकता अर्जित कर लेती है।
अपने जीवन में आए विभिन्न विशिष्ट साहित्यिक व्यक्तियों के साथ संगत में बीते विगत 60 वर्षों का बेतरतीब लेखाजोखा काशीनाथ सिंह अपनी इस संस्मरणात्मक पुस्तक में करते हैं। चूंकि उनका समस्त जीवन काशी में बीता तथा काशी और काशीनाथ सिंह ने एक-दूसरे को भरपूर जिया। काशी में यह काशीत्व कहीं भी विलुप्त नहीं है। वह दूसरों की औपचारिकता को उघाड़ने के साथ-साथ अपने को भी नहीं बख्शता। खेल में ‘सेल्फ गोल’ कर लेना शायद खेल का सबसे आनंदपूर्ण क्षण होता है इसे पेशेवर खिलाड़ी नहीं जानते।
देश के हिन्दी साहित्य की मानसिकता, सामाजिकता और शक्ति केंद्रों के बनते-बिगड़ते समीकरणों के इस कालखंड में वे अपने जीवंत संपर्क में आए जिन पात्रों, साहित्यकारों को अपने संस्मरणों में शामिल करते हैं, वे एक-दूसरे को स्थापित-विस्थापित करते नहीं बल्कि उनके अच्छे-बुरे, सशक्त और कमजोर सभी पक्षों को बड़ी बेबाकी और स्थित प्रज्ञता से उद्घाटित करते हैं।
यह संकलन अपनी खिलंदड़ी भाषा, निस्पृह बनारसी तेवर और चमकदार फ्लैश बैक के कारण पठनीय बन पड़ा है। वे शब्द चुनते नहीं बल्कि प्रसंग और भाव के अनुसार शब्द अपनी सहज देशजता के साथ उतरते से लगते हैं और उस प्रसंग को जीवंत बना देते हैं। और पाठक को लगे है तो ठीक लेकिन कभी सुना नहीं।

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पुस्तक : आहटें सुन रहा हूं यादों की लेखक : काशीनाथ सिंह प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 224 मूल्य : रु. 299.

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