सीने में जोर भर के चोर को कह दो चोर
शमीम शर्मा
आचार-संहिता लग गई मतलब अब किसी को नेता जी के चरणों में धोक नहीं मारनी अब तो वे ही हमारे पांवों में लौट लगायेंगे। तरह-तरह की नौटंकी दिखायेंगे। नेताओं के वादों की बरसात से गरीब की झाेपड़ियां टपक उठेंगी। नौकरी के प्रलोभनों से युवा नारे लगाता हुआ अपनी एड़ियां घिस लेगा। गांव-शहरों में नेताओं की जीत-हार पर करोड़ों की शर्तें लगेंगी और इस जुए की आड़ में कइयों के वारे-न्यारे होंगे तो कइयों का दिल भी बैठ जायेगा।
टिकट की मारामारी भी आचार-संहिता लगते ही शुरू हो जाती है। और हमें यह नहीं पता कि कई नेता तो ऐसे हैं जिन्होंने कभी बस या ट्रेन की टिकट भी नहीं ली, वे भी चुनावी टिकट के लिए जूझ रहे हैं। जिनके पल्ले अपने पड़ोस और कुनबे के ही वोट नहीं हैं, वे भी टिकट के लिए दावेदारी पेश कर रहे हैं। पर व्हाट्सएप, एक्स और फेसबुक के सहारे चुनावी जंग में कूदने वाले मुंह की खायेंगे क्याेंकि जनता काम मांगती है।
जो तुमको हो पसन्द वही बात कहेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो रात कहंेगे। किसी समय के एक फिल्मी के गीत की यह पंक्ति आज के राजनीतिक परिवेश पर अक्षरशः लागू हो रही है। कुर्सी के मारों की सारी ओपिनियन खत्म हो चुकी हैं। इस वक्त तो वे जनता की हां में हां मिलाएंगे। गलत हो या ठीक... बस सब ठीक है। ये कैसे नेता हैं। बस एक तराना या यूं कहो कि एक रटना लगाए रखेंगे कि वोट उन्हें ही देना।
वोटरों की भी वह पीढ़ी तो अब खत्म ही हो गई है जो अपने सीने में जोर भर कर चोर को चोर कह सकें। हम सब भी गुर्जर, यादव, जाट, ब्राह्मण, बनिया, पंजाबी होने से आगे नहीं जा पाए हैं। कई क्षेत्रों के वोटरों ने परिवार की चौथी पीढ़ी तक को जिताने का ठेका उठा रखा है। लोकतंत्र कोई पंसारी की दुकान नहीं है कि पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही घराना चौकड़ी मारकर जमा रहे। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद वोट डालने का अधिकार मिलता है। चुनावों के चक्कर में अपने आपसी रिश्ते खराब न करें। ये हारने-जीतने वाले तो फिर से घी-शक्कर हो जायेंगे पर हमेशा के लिये अपने जूत बज जायेंगे।
000
एक बर की बात है अक रामप्यारी पहल्ली बर चाय बणाकै कप हाथ मैं पकड़े अपणे घरआले नत्थू तैं देण लाग्गी। नत्थू था बड्डा अफसर, बोल्या-ए बावली! किमें लक्खण सीख ले, चाय ट्रे मैं ल्याया करैं। आगले दिन रामप्यारी चाय ट्रे मैं घालकै लेगी अर बूज्झण लाग्गी- न्यूं ए चाटैगा अक चम्मच ल्या दूं?