पानी के सुलगते सवाल
कैसी विडंबना है कि देश की राजधानी में राज्य सरकार की मंत्री को पड़ोसी राज्य हरियाणा से आग बरसाती गर्मी के बीच गुहार लगानी पड़ रही है कि मानवता के आधार पर दिल्ली को अधिक पानी दें। भारतीय जीवन-दर्शन में जरूरतमंद को पानी पिलाना पुण्य माना जाता रहा है। वक्त के साथ ही इस संकट पर संवेदनहीनता सरकार और लोगों के स्तर पर नजर आ रही है। दिल्ली का जल संकट कोई पहली बार सामने नहीं आया। यह तंत्र की काहिली और राजनीतिक नेतृत्व की नाकामी का ही नमूना है कि झुलसाती गर्मी में वे लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। समाज का संपन्न वर्ग तो किसी तरह पानी का जुगाड़ कर ही लेता है, लेकिन गरीब व निम्न मध्यवर्गीय लोगों को इस संकट से ज्यादा दो-चार होना पड़ता है। शर्मनाक यह है कि पक्ष व विपक्ष द्वारा जल संकट का समाधान करने के बजाय घड़े फोड़कर राजनीतिक लाभ लेने की कुचेष्टा हो रही है। यह समय घड़े फोड़ने का तो नहीं है, क्यों नहीं सभी राजनीतिक दल संकटकाल जैसी चुनौती महसूस करते हुए प्यासे लोगों के घड़े पानी से भरने का प्रयास करते? नीति-नियंताओं को इस जल संकट को आने वाले कल के बड़े संकट का ट्रेलर मानकर चलना चाहिए। बंगलुरू के भयावह जल संकट की बात पुरानी नहीं है। देश के कई अन्य भागों में जल संकट की आहट साफ देखी जा रही है। दरअसल, कथित आधुनिकता के नाम पर पानी का विलासिता से दुरुपयोग किया गया। उसी दिल्ली में कहीं स्वीमिंग पुल खुले हैं, कहीं कारें धोई जा रही हैं, कहीं लॉन सींचे जा रहे हैं तो कहीं एक पानी के टैंकर में कई-कई पाइप डालकर पीने का पानी जुटाने के लिये मारामारी चल रही है। ऐसे संकट के समय तो दुश्मन भी पसीज जाते हैं, फिर किस बात की राजनीति?
बहरहाल, यह हमारे नीति-नियंताओं की नाकामी की पराकाष्ठा ही है कि हम अपने नागरिकों को पानी जैसी मूलभूत सुविधा नहीं दे पा रहे हैं। हमारी नीतियां चांद पर पानी तलाशने की रही हैं मगर हर घर जल नहीं मिल रहा है। सवाल उन राजनेताओं पर भी है जो वोट की राजनीति के लिये आये दिन बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणा करते रहते हैं और मुफ्त पानी दे भी रहे हैं। निश्चित रूप से व्यवस्थित व कारगर जलापूर्ति के लिये मुफ्त की नीति घातक होती है। बेहतर होता कि पानी मुफ्त देने के बजाय गुणवत्ता का पर्याप्त पानी देने के लिये योजना बनती। वॉटर रिसाइक्लिंग और ग्राउंड वॉटर रिचार्ज के लिये योजना बनती। काश! यमुना को साफ करने की ईमानदार कोशिश होती। यदि ऐसा होता तो दिल्ली के लोगों को पानी के लिये आंसू न बहाने पड़ते। सवाल जनता की जवाबदेही का भी है जो पानी के दुरुपयोग व सदुपयोग पर विचार नहीं करती। हम सार्वजनिक जल के बर्बाद होने पर खामोश क्यों रहते हैं? यदि पानी का विलासिता से उपयोग होता है तो किसी के हिस्से के पानी का हम दुरुपयोग कर रहे होते हैं। जनता क्यों आवाज नहीं उठाती कि हमारी जीवनदायिनी नदियों को किसने गंदे नाले में तब्दील कर दिया। क्यों सदानीरा यमुना का पानी उपयोग लायक नहीं रह गया है। गाल बजाने वाले दिल्ली के सत्ताधीश उन फैक्टरियों पर अंकुश क्यों नहीं लगा पाए, जिनके रासायनिक कचरे ने यमुना को जहरीला बना दिया है। क्यों हर सीवरलाइन का मुंह नदियों की तरफ खुलता है? स्थानीय निकायों में घटिया किस्म की राजनीति करने वाले लोग क्यों नहीं आदर्श और दूरदर्शी पेयजल योजनाएं बनाते? जिस तरह से दिल्ली में लगातार आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है, उसके लिए हमें दिल्ली के लिये दूरदर्शी पेयजल योजना बनानी होगी। स्थानीय प्रशासन ध्यान दे कि टैंकर माफिया जल संकट को कैसे मुनाफे के कारोबार में बदल रहा है? क्यों पुलिस को नदी के पानी की निगरानी करनी पड़ रही है? ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि स्थानीय निकाय पुलिस की निगरानी में वैकल्पिक जल आपूर्ति के लिये प्रयास करें? यह समय संकट से सामूहिक रूप से मुकाबले का है। साथ ही वर्ष 1994 में उ.प्र., राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल व दिल्ली के बीच तीन दशक पहले हुए समझौते को बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में नये सिरे से परिभाषित किया जाना चाहिए।