भाईजान
अनिल गांधी
‘…इस कार्यकाल के दौरान किए गए आपके अध्यापन का आकलन करने के बाद यह निर्णय लिया गया है कि आपकी सेवाएं अब राज्य सरकार को नहीं चाहिए। तद्नुसार आप स्पष्ट कीजिए कि क्यों न आपकी सेवाएं आपकी प्रोबेशन अवधि के समापन के साथ ही निरस्त कर दी जाएं…’
मुख्यालय के पूरे सरकारी पत्र की इन तीन पंक्तियों को देबू ने तीन बार पढ़ा। दूसरी दफ़ा पढ़ने के बाद प्रत्येक शब्द और हाथ की कम्पन में तालमेल होने लगा था। हक्का-बक्का था। प्रिसिंपल कुमार साहब उसकी गर्दन के ऊपर उठने की प्रतीक्षा में थे। प्रिंसिपल के कमरे में सामान्यतः छात्रों, लेक्चरर्स और प्रशासनिक स्टाफ़ की आवाजाही लगी रहती थी, लेकिन इस बैठक के दौरान प्रवेश निषेध की चपड़ासी को ख़ास हिदायत दे दी गई थी। आख़िरकार देबू ने आहिस्ता से गर्दन ऊपर की। चेहरे पर छाये विषाद के साथ पथराई आंखों से जैसे ही प्रिसिंपल की तरफ़ देखा, उसने अपने दाएं हाथ की उंगलियों को चकरीदार घुमाकर पत्र की तरफ़ केवल इशारा किया। देबू का गला सूखा था। फिर भी होंठ हिलने लगे।
‘सर, मेरा क़सूर…’
‘सर शब्द अब बोलना आया है तुम्हें। वहां बोलते तो ये नौबत न आती। सीनियर आईएएस ऑफ़िसर और वो भी डायरेक्टर हायर एजुकेशन को तुमने भाईजान कह दिया। मुझे देखो, पैंतीस साल से हूं टीचिंग प्रोफ़ेशन में, मजाल है किसी आईएएस को सर के अलावा कुछ बोला हो। आईएएस की नेमप्लेट देखते ही सर खुद-ब-ख़ुद ज़ुबान पर आ जाता है। यक़ीन मानो देबू, कई मर्तबा तो अपने पढ़ाए आईएएस अफ़सर के लिए भी सर निकल जाता है मुंह से। ये अलग जमात है… परमानेंट रूलर्ज़। ये आका हैं, इसलिए मैंने आईएएस को नाम दिया है ‘इंडियन आका सर्विस’। राजनेता तो आते हैं, चले जाते हैं, लेकिन ये सत्ता पर हरदम क़ाबिज़ रहते हैं। तुमने कभी देखा है पूरे मुल्क में इनका कोई काम रुकते… पूरा नेट्वर्क… बैचमेट्स…’
देव कुमार यानी देबू को उस पर आन पड़ी मुसीबत से निकलने की तरकीब कहीं भी प्रिसिंपल की तक़रीर में सुनाई नहीं दी । इसलिए पॉज़ पाते ही क्यू ले लिया।
‘सर अब अच्छे से समझ में आ गया कि आईएएस को सर कहकर ही सम्बोधित करना है। लेकिन बिना किसी वजह के ऐसे कैसे टर्मिनेशन नोटिस…’
‘तुम शरीर से ही नहीं, दिमाग़ से भी बच्चे हो। वजह? अरे भाई, पिछले दो साल में तुम्हारे पांच ट्रांसफ़र हो चुके हैं। सचिवालय में बाबुओं का काम क्या है? फ़ाइलों का मुंह भरना। इसी कॉलेज में आपके हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट मुझे लिखित में दे चुके हैं आपकी नाक़ाबिलियत की शिकायत। ये अलग बात है कि वो भी आपकी नातकल्लुफ़ी से परेशान हैं। सोचो, इसी तरह की शिकायतें सचिवालय में मौजूद हो सकती हैं। चलो एक मिनट मान भी लें कि आपकी कोई कम्प्लेंट नहीं है तो मेन्युफ़ेक्चर करने में कितना वक्त लगता है। और फिर डायरेक्टर हायर एजुकेशन की अपनी असेसमेंट…’
इसके बाद देबू की आंखें भर आईं और अपनी सीट से खड़ा हुआ और प्रिसिंपल के पैर छूने के लिए बढ़ा, लेकिन हाथ से इशारा कर उसने वहीं रुकने की हिदायत दी।
‘आप मेरे पिता समान हैं, इस विपदा से मुझे निकालिए… आपका कोई ओल्ड आईएएस स्टूडेंट…’
प्रिसिंपल साहब ने डिपार्टमेंट को क़रीब से देखा था, परखा था। देबू का जितना सेवाकाल था, उतने तो उन्होंने आकस्मिक अवकाश ले लिए होंगे। पिघले नहीं क्यूंकि प्रैक्टिकल थे। अपनी गलती को महसूस भी कर रहे थे कि काहे शेखी मारी कि उनके पढ़ाए छात्र आईएएस हैं। सच्चाई तो यह थी राज्य कॉडर में केवल दो ही छात्र थे और इन्हीं की बदौलत उन्होंने मनचाही पोस्टिंग ली है, समय से प्रिसिंपलशिप हासिल कर ली। आंखें छत पर टिकीं थीं, टांगे हिलाते-हिलाते सोच रहे थे की कुछ अति हो गई देबू के साथ। आख़िरकार दोनों हथेलियों को मेज़ पर जमाते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी।
‘हूं… पंडित जी महाराज की मदद करना धर्म का काम है… सोचने दो। लेकिन एक बात याद रखना ‘नो कॉन्फ़्रंटेशन’।’
हुआ यूं कि कॉलेज में दीक्षांत समारोह में विष्णु कश्यप, प्रदेश की उच्च शिक्षा निदेशालय के निदेशक मुख्य अतिथि थे। निश्चित तिथि की पूर्व संध्या पर कश्यप सर्किट हाउस पहुंच गए। प्रिसिंपल साहब ने उनका गुलदस्ते से स्वागत किया, लेकिन उन्हें केवल बता दिया गया कि कल साहब सही समय पर कॉलेज पहुंच जाएंगे। उनसे बैठने के लिए तो पूछा ही नहीं गया। ऐसा होना सम्भव भी नहीं था, क्योंकि सीनियर होने के नाते ज़िलाधिकारी खुद मौजूद थे। देबू को प्रिसिंपल साहब साथ ले गए थे, क्यूंकि कॉलेज में सबसे नौजवान वही था, दुबला-पतला, फुर्तीला–किसी भी अप्रत्याशित कार्य के लिए तत्पर। ब्यूरोक्रेट्स के इन तौर-तरीक़ों से प्रिंसिपल साहब भली-भांति परिचित थे, इसलिए उन्हें खीझ नहीं आती थी, किंतु देबू को अटपटा लगा दोनों का व्यवहार। विशेषकर, प्रिंसिपल की जी हज़ूरी।
अगले दिन पूरे लाव-लश्कर के साथ निदेशक महोदय कॉलेज पहुंच गए। एक बार फिर प्रिंसिपल ने देबू को स्वागत समिति में शामिल किया। यही नहीं उसे अपने साथ चिपकाए रखा। समारोह से पहले प्रिंसिपल अपने कक्ष में निदेशक को कॉलेज के बारे में जानकारी दे रहे थे और देबू अल्प आहार का समन्वय कर रहा था। निदेशक महोदय देबू को देखे जा रहे थे तो प्रिंसिपल ने परिचय कराना उचित समझा।
‘सर, ये देव कुमार शर्मा हैं। फ़िज़िक्स के लेक्चरर…’
‘ओह, मुझे ताज्जुब हो रहा था कि आख़िर यहां स्टूडेंट क्यूं… एडहॉक है?’
‘जी नहीं सर। पब्लिक सर्विस रिक्रूट है।’
इसके बाद निदेशक ने देबू को बुलाकर संक्षिप्त वार्ता की। समारोह के बाद सभी लेक्चरर्स उन्हें विदा करने सर्किट हाउस तक गए। क्योंकि प्रिंसिपल निदेशक साहब के कमरे में थे, लेक्चरर्स बाहर उनकी प्रतीक्षा बाहर लॉन में कर रहे थे। देबू को खीझ हो रही थी कि सभी लेक्चरर्स को विदा करने के लिए सर्किट हाउस आने का आदेश क्यूं दिया गया। आख़िरकार, प्रिसिंपल बाहर आए। लॉन में सभी ने उनके सम्बोधन के लिए गोलदार बना दिया।
‘साथियो, समारोह सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। श्रेय आपको जाता है। निदेशक महोदय ने पूरे कॉलेज स्टाफ़ को बधाई दी है। साथ में, मुझे ये आदेश दिया है कि अगर आप में से किसी को कुछ कहना या समस्या है तो मैं अनुमति प्रदान करूं। मेरी तरफ़ से कोई मनाही नहीं है। शाम पांच से छह के बीच का समय तय किया गया है इसके लिए…’
निदेशक महोदय की इस पेशकश से देबू बहुत प्रभावित लगा। भले इनसान लगे उसे। वैसे भी उसके साथ दोस्ताना व्यवहार किया था। उसने मन बनाया कि वह शाम को मुलाक़ात करने आएगा। ठीक पांच बजे वह सर्किट हाउस पहुंच गया। केवल दो कारें नज़र आ रही थी। ज़ाहिर है सर्किट हाउस में अतिथि कम थे। लम्बे बरामदे से होकर मस्तमौला की तरह सीधा कमरा नम्बर एक की तरफ़ कदम बढ़ा रहा था। जैसे ही वह जाली के दरवाज़े के हत्थे पर हाथ रखने को था, वैसे ही पीछे से एक आवाज़ सुनाई दी।
‘हेलो जनाब, किससे मिलना है?’
‘कश्यप जी से…’
‘टाइम लिया है?’
‘जी… कोई भी मिल सकता है, पांच-छह के बीच… ऐसा बोला है।’
यह व्यक्ति सिविल ड्रेस में पुलिस कर्मी लग रहा था। नाम-काम पूछा और देबू को कमरे से बहुत दूर, बाहर बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठाकर जल्दी ही लौट आया और इंतज़ार करने को कहा। पैंतालीस मिनट की थकाऊ प्रतीक्षा के बाद अंदर जाने को कहा गया। विशाल एंटी रूम में अकेले कश्यप जी टांगें मेज़ पर फैलाए सोफ़े पर बैठे थे। एक पेपर पढ़ रहे थे। देबू उनकी निगाहों की हरकत का इंतज़ार करने लगा। उसे लगा कि बैठने के लिए कहा जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। और जो हुआ वह उसकी समझ से बाहर था।
‘हूं… बताओ?’ निदेशक महोदय ने पेपर से ध्यान हटाए बग़ैर पूछा।
‘भाईजान बैठने की इजाज़त है?’ देबू के वाक्य में सादगी थी, किंतु कश्यप जी को बेअदबी लगी। गर्दन झटके से ऐसे ऊपर की मानो उसने अक्षम्य अपराध कर दिया हो!
‘भाईजान? क्या कहा भाईजान…’ दहाड़ थी। देबू का बदन कांप उठा। फिर भी स्थिति को सम्भालने का प्रयास किया।
‘हमारे यहां भाईजान सम्मान सम्बोधन है…’
‘इस सम्मान… जो भी कहा तुमने, नॉट इन ऑफ़िशियल मीटिंग… माइंड इट दिस इज़ ऑफ़िशियल मीटिंग… अपनी प्रॉब्लम बताओ जल्दी से।’
देबू क्षमा मांगना चाहता था, लेकिन निदेशक महोदय अधीर हो उठे। इसलिए अपने अंतिम शब्दों को रुक-रुक कर दुबारा बोला किंतु अंग्रेज़ी में।
‘व्हट इज़ यूवर प्रॉब्लम… स्पीक आउट।’
‘मान्यवर, मेरा पिछले दो वर्षों में पांच बार ट्रांसफर…’
‘ट्रांसफर इज़ एन इंसिडेंट इन द कैरियर ऑफ़ एन एम्प्लॉई…ये सुप्रीम कोर्ट ने कहा है… और कुछ?’
‘ये तो तुग़लकी आदेश हुआ न… जैसे आप प्रदेश की सेवा कर रहे वैसे हम भी…’
‘बस बहुत हो गया… आप जा सकते हैं।’
अंतिम वाक्य उन्होंने सोफ़े से खड़े होते हुए बोला और तपाक से अंदर चले गए। देबू अपने को असहाय, लाचार और मजबूर पा रहा था और कोस भी रहा था कि जब कोई साथी यहां नहीं आया तो उसे हीरो बनने की क्या ज़रूरत थी! कुछ दिनों तक तो उसे ये प्रकरण याद रहा किंतु एक महीने के अंदर-अंदर इसे एक दु:स्वप्न समझकर भूल गया। किंतु कश्यप जी नहीं भूले थे। नतीजा आज देबू के सामने था। नौकरी खोने का ख़तरा सिर पर मंडरा रहा था। कुछ भी हो, देबू की पहचान ‘भाईजान’ के रूप हो गई।
स्टाफ़ में देबू को मिले सरकारी फ़रमान की खबर दावानल की तरह फैल गई। लेक्चरर्स यूनियन की स्थानीय यूनिट के अध्यक्ष युद्धवीर यादव ने संज्ञान लेते हुए अगले ही दिन स्टाफ़ रूम में मीटिंग बुला ली। यादव के सम्बोधन को समाप्त होने में अधिक समय नहीं लगा।
‘मित्रो, आज हमारी सर्विस के लिए काला दिन है। भाईजान को भाईजान कहने के लिए डिस्मिसल का नोटिस सर्व किया गया है। प्रोबेशन के बाद ऐसे किसी को प्रदेश की सरकारी नौकरी से निकाले जाने का नोटिस… पहली बार सुना है। डायरेक्टर हायर एजुकेशन का दोगलापन देखिए, अपनी स्पीच में कितनी भूरी-भूरी तारीफ़ की टीचिंग कम्युनिटी की, गुरु गोविंद दोऊ खड़े… वाला दोहा बोलकर छात्रों का दिल जीत लिया। सबसे अधिक अभिभूत तो भाईजान हो रहे थे, बहुत बार तालियां बजाईं। स्टाफ़ को सर्किट हाउस में बुलाना एक ड्रामा था। भाईजान अभी नए हैं, समझ नहीं पाए कि आईएएस की करनी और कथनी में अंतर होता है। उन्होंने तो ये भी कहा की अब हर पांच सितम्बर को स्कूली टीचर्ज़ की तरह कॉलेज लेक्चरर्स को सम्मानित किया जाएगा। इसका पहला नमूना भाईजान का डिस्मिसल होगा। लेकिन हम उनके मंसूबे को पूरा नहीं होने देंगे। प्रदेश अध्यक्ष ने आश्वासन दिया है कि भाईजान का केस अदालत में यूनियन लड़ेगी।’
सभी ने यादव जी की पहल की तारीफ़ की। लेकिन देबू समझ गया था कि यूनियन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। भरोसा था कि प्रिंसिपल कुमार साहब कोई रास्ता निकालेंगे। इसलिए केवल हाथ जोड़कर एकजुटता के लिए सबका शुक्रिया अदा किया।
अगले तीन दिन बेचैनी और छटपटाहट में गुज़रे। दो दिन तो कुमार साहब अवकाश पर थे। तीसरे दिन दो बार उनके कमरे में जाने का प्रयास किया लेकिन बैक-टू-बैक मीटिंग्स चल रही थी। बुरे और अजीब ख़्यालों भरे थे ये तीन दिन। नौकरी चली गई तो नई जॉब की तलाश की जद्दोजहद की सोच से मन व्याकुल हो उठता। विधवा मां को कितना सहारा हो गया था उसके वेतन से। पुश्तैनी पुराने मकान की मरम्मत टलने की चिंता सता रही थी, क्योंकि शादी से पहले उसके फ़ेसलिफ़्ट का वादा कर रखा था मां से। पछता भी रहा था कि केंद्रीय विद्यालय की जॉब नहीं छोड़नी चाहिए था, किंतु स्कूल टीचर के टैग से परेशान था। अब मौजूदा परेशानी से वह परेशानी बेहतर लग रही थी। चौथा दिन शुभ निकला, प्रिंसिपल का बुलावा आ गया। प्रवेश करते ही दो कप चाय मेज़ पर रख दिए गए, साथ में बिस्कुट भी। आवभगत की जगह उसे इंतज़ार था कि बेशक आईएएस गुणगान गाथा का व्याख्यान दें, किंतु आशा की किरण की टिमटिमाहट दिखलाएं। चाय की पहली चुस्की के बाद उन्होंने बोलना शुरू किया।
‘संकट बहुत गहरा है, देबू। कश्यप जी इतने ख़फ़ा हैं तुमसे कि अप्यांटमेंट के लिए मान ही नहीं रहे थे। बहुत सीनियर लेवल की अप्रोच लड़ाई। आख़िरकार मिलने के लिए मना लिया। अब ध्यान से सुनो। ये आईएएस महाराजाधिकारी होते हैं। इनकी ईगो हर्ट नहीं होनी चाहिए। इसलिए तुम्हें अपने फक्कड़पन को अपने व्यक्तित्व से बाहर निकाल फेंकना होगा। किसी तरह से इन्फ़ोर्मल नहीं होना। ही केन टेक लिबर्टी टू बी इंफ़ोर्मल, बट यू केन नोट अफ़ॉर्ड टू टेक लिबर्टी। बुलंदशहर के हो लेकिन आवाज़ में बुलंदी मत लाना। जी सर, यस सर, बस। ड्रेस कोड–सोबर, कोई बटन खुला नहीं। याद रखना ये मीटिंग कितनी क्रूशियल माने अहम है, तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता। तुम पहली बार चंडीगढ़ जा रहे हो, एक अलग अहसास होगा तुम्हें वहां की चौड़ी-चौड़ी सड़कों, दरख़्तों की लम्बी लाइनों…’
कुमार साहब धाराप्रवाह रूप से बोल रहे थे… हूं हां, कर ज़रूर रहा था लेकिन देबू उस स्लिप को बार-बार पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कश्यप जी का एड्रेस, मिलने की तिथि और समय।
विशाल लॉन था कोठी कश्यप जी के सरकारी बंगले का। सुबह साढ़े आठ बजे ही पहुंच गए थे– देबू और उसकी मां। पिछली रात को पंचायत भवन में ठहरने का इंतज़ाम भी कुमार साहब ने करवा दिया था। मां दो दिन पहले ही गांव से उसके पास आ गई थीं। साथ चलने की ज़िद भी उन्हीं की थी। मशविरा कुमार साहब का था।
नियत समय से पहले ही कश्यप जी बाहर लॉन में आकर उन दोनों के सामने थे। खड़े हो गए मां-बेटा। आज देबू ने नहीं पूछा बैठने के लिए।
‘सर… आई एम सॉरी…’
‘उस दिन तो बहुत क्रांतिकारी बन रहे थे…’
इससे पहले कि बात आगे बढ़े मां ने ‘आपका बच्चा है माफ़ कर दीजिए’ कहते हुए कश्यप जी के पैर छू लिए। उनके लिए मां का अचानक झुक जाना अप्रत्याशित था। मां की आंखें नम थीं। खड़े होकर दोनों को बैठने को कहा। खुद भी बैठ गए, किंतु नि:शब्द थे। देबू को भविष्य में सतर्क रहने की हिदायत के साथ आश्वासन दिया कि एक सप्ताह के भीतर कारण बताओ नोटिस वापस ले लिया जाएगा।
प्रिंसिपल कुमार साहब के दफ़्तर में बस वे दोनों थे। चाय, बिस्कुट के साथ इस बार मिठाई भी थी, जो देबू लाया था।
‘सर, आप मेरे लिए तो देवता हैं… इतने मेहरबान…’
‘मैं बुलंदशहर गया था। तुम्हारी माता जी को तुम्हारे साथ जाने के लिए मैंने ही सलाह दी थी। भली, नेक और दक़ियानूसी नहीं हैं। जातपात में विश्वास नहीं रखती… कितनी बड़ी बात है। लो मिठाई लो, देबू…’
देबू असमंजस में था कि कुमार साहब के पैर छुए या नहीं!