भ्रष्टाचार के पुल
बरसात आने से पहले ही बिहार में एक सप्ताह के भीतर एक के बाद एक तीन पुलों का गिरना सार्वजनिक निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार व धांधलियों को बेनकाब करता है। लगातार धड़ाधड़ गिरते पुल न केवल ठेकेदारों बल्कि उन्हें संरक्षण देने वाले राजनेताओं पर भी सवालिया निशान लगाते हैं। एक सप्ताह के भीतर बिहार के मोतिहारी में रविवार को एक पुल गिरने की तीसरी घटना हुई। इससे पहले अररिया और सिवान में भ्रष्टाचार के पुल गिरे थे। पूर्वी चंपारण के मोतिहारी में डेढ़ करोड़ की लागत से बनने वाला जो पुल गिरा, उसकी एक दिन पहले ही ढलाई हुई थी। रात में पुल भरभरा कर गिर गया। यदि यह पुल यातायात खुलने के बाद गिरता तो न जाने कितनी जानें चली जातीं। आरोप है कि घटिया सामग्री के कारण पुल बनने से पहले गिर गया। शनिवार को सिवान में गंडक नहर पर बना तीस फीट लंबा पुल गिर गया, जो चार दशक पहले बना था। इसी तरह मंगलवार को अररिया में बारह करोड़ की लागत से बना पुल गिर गया था। पुल के तीन पाये ध्वस्त हो गए थे। बिहार में निर्माण कार्यों में धांधलियों का आलम यह है कि पिछले पांच सालों के दौरान दस पुल निर्माण के दौरान या निर्माण कार्य पूरा होते ही ध्वस्त हो गए। उल्लेखनीय है कि बीते साल जून में भागलपुर में गंगा नदी पर करीब पौने दो हजार करोड़ की लागत से बन रहे पुल के गिरने पर भारी शोर मचा था। लेकिन उसके बाद भी हालात नहीं बदले। पुलों के गिरने का सिलसिला यूं ही जारी है। जो बताता है कि नियम-कानून ताक पर रखकर बेखौफ घटिया सामग्री वाले सार्वजनिक निर्माण कार्य जारी हैं। जाहिर है ऊपर से नीचे तक की कमीशनखोरी और जनता की कीमत पर मोटा मुनाफा कमाने वाले ठेकेदारों की मनमानी जारी है। तभी निर्माण कार्य में घटिया सामग्री का उपयोग बेखौफ किया जा रहा है। यदि शासन-प्रशासन का भय होता तो पुल यूं धड़ाधड़ न गिर रहे होते।
सवाल ये उठता है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम देश की विकास परियोजनाओं की गुणवत्ता की निगरानी करने वाला तंत्र क्यों विकसित नहीं कर पाए? यह जरूरी है कि सार्वजनिक निर्माण गुणवत्ता का हो और उसका निर्माण कार्य समय पर पूरा हो। इन योजनाओं को इस तरह डिजाइन किया जाए, जिससे कई पीढ़ियों को उसका लाभ मिल सके। साथ ही वह दुर्घटनामुक्त और जनता की सुविधा बढ़ाने वाला हो। मगर विडंबना देखिए कि बिहार के पुल उद्घाटन से पहले ही धराशायी हो रहे हैं। स्पष्ट है कि मोटे मुनाफे के लिए घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग किया जा रहा है। वहीं दूसरा निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों का काम निर्माण सामग्री की गुणवत्ता की निगरानी करना होता है, वे आंखें मूंदे बैठे हैं। जो समाज में मूल्यों के पराभव व आपराधिक तत्वों की निर्माण कार्यों में गहरी दखल को ही दर्शाता है। यही वजह है कि भारी यातायात के दबाव वाले दौर में पुल अपना ही बोझ नहीं संभाल पा रहे हैं। यूं तो कभी किसी हादसे की वजह से भी पुल गिर सकते हैं, मगर निरंतर कई पुलों का कुछ ही दिनों में गिरना साफ बताता है कि दाल में काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है। जिसमें भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका है। दरअसल, सार्वजनिक निर्माण की गुणवत्ता की यदि समय-समय पर जांच होती रहे तो ऐसे हादसों से बचा जा सकता था। इन हादसों की वजह यह भी है कि राजनेताओं व दबंगों के गठजोड़ से ऐसे लोगों को ठेके मिल जाते हैं, जिनको न तो बड़े निर्माण कार्यों का अनुभव होता है और न ही गुणवत्ता को लेकर किसी तरह की प्रतिबद्धता होती है। निस्संदेह, यह नागरिकों के जीवन से जुड़ा गंभीर मसला है। इसलिये सरकार और निर्माण कार्य से जुड़ी एजेंसियों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। वहीं दूसरी ओर यदि निर्माण कार्य यूं ही ध्वस्त होते रहे तो इससे सरकारी निर्माण कार्य की लागत में बहुत ज्यादा वृद्धि हो जाएगी। सरकारी राजस्व का भी नुकसान होगा। वक्त की मांग है कि सार्वजनिक निर्माण में भ्रष्टाचार रोकने के लिये सख्त कानून बनाये जाएं।