रोटी
सुभाष रस्तोगी
रोटी
गोल हो या चपटी
मोटी या पतली
फूली या पिचकी
बेसनी या रुमाली
आग में सिकने के बाद
उसका एक ही धर्म होता है
भूख मिटाना आदमी का
मां कहा करती थी
मां रोटी की—
तमाम किस्मों से
नफरत किया करती थी
रोटी रुमाली हो
या फिर तंदूर में सिकी हुई
एकदम कड़क
या फिर अमीर रोटी
खालिस घी से तर-ब-तर
रोटी सूखी टिक्कड़ हो
या फिर बासी कुबासी
रोटी का ही एक ही धर्म होता है
पेट की भूख मिटाना
गरीब की भूख तो मिट जाती है
सूखी टिक्कड़ रोटी से भी
ये तो धनियों के चोंचले हैं
खाए अघाए लोगों के/कि
रोटी आए लक-दक
घी से तर-ब-तर थाली में!
लेकिन मां कहा करती थी
कि रोटी
वही अच्छी होती है
जिसका आटा गुंधता है
औरत की देह के पसीने में
और चूल्हे की सोंधी गंध में
जिसका सिका होता है
पोर-पोर
अब तो मां रही नहीं
तो किस्सा कोताह यह कि—
इस रोटी के किस्से भी
फाख्ता हुए
लेकिन मैं किस्म-किस्म की रोटी में
ढूंढ़ता फिरता हूं
मां के हाथों की गंध
दरअसल—
मां के हाथों की
चूल्हे की सोंधी आंच में
सिकी रोटी ही
जिंदगी को—
मानीखेज बनाती है।