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पुस्तक समीक्षा

08:56 AM Aug 13, 2023 IST
पुस्तक : भूले-बिसरे क्रांतिकारी लेखक : डॉ. हरीश चंद्र झन्डई प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर पृष्ठ : 124 मूल्य : रु. 200.

भूले-बिसरे क्रांतिकारियों का स्मरण

ज्ञाानचंद्र शर्मा

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अंग्रेजी सत्ता के प्रतिरोध का एक बड़ा उदाहरण सन‍् 1857 की बड़ी क्रांति से सौ साल पूर्व उठे झारखंड की जनजातियों के ‘हूल’ संघर्ष के रूप में मिलता है। यद्यपि यह आन्दोलन एक छोटे से क्षेत्र तक सीमित था परंतु इसका प्रभाव बहुत व्यापक था।
सन‍् 1857 का स्वतंत्रता संग्राम अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित और व्यापक था व चोट भी बहुत गहरी थी। अनेक भीतरी और बाहरी कारणों से इसमें हम सफल नहीं हो सके परंतु चिंगारी जो धधकी थी, मंद तो पड़ गई, अंग्रेजों के अनेक यत्नों के बावजूद बुझी नहीं, भीतर ही भीतर सुलग रही थी।
सन‍् 1885 में एओ ह्यूम नाम के एक अंग्रेज ने ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेज़ सरकार और आम जनता के मध्य सम्पर्क-सूत्र स्थापित करना था ताकि विरोध के किसी भी स्वर से उसका ध्यान भटकाया जा सके। इसके बावजूद वह चिंगारी बुझी नहीं और समय-समय पर शहीदों ने अपने प्राणों की समिधा से इसे धधकाया भी। यह कहना कि हम ने आज़ादी बिना रक्त की एक बूंद बहाये प्राप्त की है, इन बलिदानियों के बलिदान का अपमान है। ये लोग हमारे स्वतंत्रता के मंदिर की नींव के पत्थर हैं। इसके लिये इन्हें शत-शत नमन!
मातृभूमि-हित अपने प्राण न्योछावर करने वाले बहुत से शहीद ऐसे भी हैं जिनकी पहचान समय के प्रवाह में खो गई। डॉ. हरीश चंद्र झन्डई ने ऐसे भूले-बिसरे क्रांतिकारियों को प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। अपनी पुस्तक ‘भूले बिसरे क्रांतिकारी’ में उन्होंने ज्ञात-अल्पज्ञात बीस पुरुष और बाईस महिला क्रांतिकारियों के भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान का भावपूर्ण अंकन किया है।
लेखक एक प्रतिबद्धता के साथ अपने कथन के महत्व को प्रतिपादित करने में सफल रहा है।

‘भ्रांति’ में जीवन की नई दिशा

रश्मि खरबंदा

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पुस्तक : भ्रान्ति लेखक : राज कुमार शर्मा प्रकाशक : ह्वाइट फैलकन प्रकाशन, चंडीगढ़ पृष्ठ : 179 मूल्य : रु. 454.

पुस्तक ‘भ्रान्ति’ के लेखक राज कुमार शर्मा एक बहुप्रतिभावान व्यक्ति हैं। वर्ष 2017 में दक्षिण एशियाई वेटरन टेबल टेनिस में कांस्य पदक जीत कर उन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया।
पुस्तक ‘भ्रान्ति’ के 23 अध्यायों में मुख्य किरदार कुम्भा की अनोखी कहानी को समेटा गया है। कुम्भा इतिहास में स्नातक करने के उपरांत अपनी गृहनगरी, दोस्त और यहां तक कि परिवार भी छोड़, ऐसी जगह की तलाश में निकल पड़ता है जो उसने अपने सपनों में कई बार देखी है। एक ऐसी जगह जहां उन्नति है, बाज़ार-व्यापार है और भीड़ की चकाचौंध में दिखती सुनहरे काल के भारत की तस्वीर है। कौशल और विकास से पूर्ण ऐसे स्थान की खोज कुम्भा को कर्नाटक राज्य के हम्पी में ले आती है। 14वीं से 16वीं शताब्दी के बीच शासन करने वाले विजयनगर साम्राज्य की तत्कालीन उन्नत सभ्यता नेे ऐतिहासिक धरोहर वाले स्थलों को जन्म दिया। अब खंडहर में तब्दील हो चुके उन समृद्धि के स्तंभों में आज भी कुम्भा उनके अच्छे समय की महिमा को देख सकता था। उसकी इच्छा यही थी कि वह गौरवशाली अतीत के साथ एकांत जीवन व्यतीत करना चाहता था।
कुम्भा अनजाने ही एक नया परिवार बना लेता है। गांव का मूर्तिकार पार्थवी इसका पहला सदस्य बनता है। इसी के साथ कुम्भा का अनूठा व्यवहार कहानी की नायिका को उसके जीवन में ले आता है। मालिनी एक मानव व्यवहार शोधकर्ता होने के नाते हम्पी काम के सिलसिले में आती है। कुम्भा की असामान्य और अनभ्यस्त जीवनी उसे आकर्षित करती है। कालांतर दो साल का यही समर्पण और प्रेम कुम्भा के जीवन को पूरी तरह से बदल देता है।
कहानी रोचक मोड़ों और दिलचस्प किरदारों से पूर्ण है।

सर्वकालिक प्रश्नों का मंथन

शशि सिंघल

पुस्तक : हिन्दी की 11 कालजयी कहानियां संपादन : नरेंद्र कुमार वर्मा प्रकाशक : डायमंड बुक्स पृष्ठ : 144 मूल्य : रु. 175.

हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु महत्वपूर्ण कार्य कर रहे नरेंद्र कुमार वर्मा ‘हिन्दी की 11 कालजयी कहानियां’ नामक कहानी संग्रह लेकर आये हैं।
नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा संपादित इस संग्रह में 11 कहानियां हैं। पहली कहानी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की अमर कहानी ‘उसने कहा था’ प्रेम, त्याग व देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है। ‘हार की जीत’ कहानी में सुदर्शन जी ने इसी बात को बाबा भारती, उनका प्रिय घोड़ा सुल्तान व डाकू खड्ग सिंह के माध्यम से बखूबी समझाया है। ‘अपना-अपना भाग्य’ कहानी में लेखक जैनेंद्र कुमार ने देशभर में व्याप्त सामाजिक विषमता, ग़रीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई का ज़िक्र करते हुए व्यक्तिगत स्वार्थों से उठकर नैतिकता, परोपकार व सामाजिक ज़िम्मेदारी का संदेश दिया है।
वहीं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अमर व अंतिम कहानी ‘कफ़न’ ग़रीबी, जातिवाद व सामंतवाद की परतों को उधेड़ती पूंजीवादी व्यवस्था पर तंज़ है। लेखक भीष्म साहनी ने ‘चीफ़ की दावत’ कहानी के माध्यम से शिक्षित युवा पीढ़ी पर करारा व्यंग्य करते हुए मध्य वर्गीय समाज के खोखले व दिखावटीपन को दर्शाया है।
लेखक धर्मवीर भारती की ‘गुल की बन्नो’ में परित्यक्त स्त्री के साथ कटु व छलपूर्ण व्यवहार के साथ-साथ अस्वस्थ या कुबड़े व्यक्ति का समाज द्वारा मज़ाक उड़ाने का भी चित्रण किया गया है। लेखक ने गुलकी के माध्यम से ऐसी स्त्री का चित्रण किया है जो शारीरिक व आर्थिक रूप से असमर्थ होने के कारण अन्याय को अपना भाग्य समझ कर अपनाती है। लेखक हरिशंकर परसाई की ‘अपनी-अपनी बीमारी’ और अज्ञेयजी की ‘विपथगा’ कहानी को भी इस संग्रह की मुख्य धारा से जोड़ा गया है।
संग्रह की सभी कहानियों की भाषा सरल व सहज है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि कालजयी लेखकों की कालजयी कहानियों का यह संकलन हिन्दी पाठकों को पसंद आएगा।

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