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दमकते दिव्यांग

12:03 PM Sep 01, 2021 IST

टोक्यो में चल रहे पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों की स्वर्णिम सफलता निस्संदेह प्रेरणादायक है। इस मायने में भी कि कुदरत व हालात के दंश झेलते हुए उनका मनोबल कितना ऊंचा था कि उन्होंने मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति खेल में कितनी कामयाबी हासिल की। सामान्य ओलंपिक खेलों में भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक ही दिन में पांच पदक हमें हासिल हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें दो स्वर्ण पदक भी शामिल हैं। सचमुच पैरालंपिक में हमारे खिलाड़ियों ने नया इतिहास लिखा है। उनका प्रदर्शन हर सामान्य व्यक्ति के लिये भी प्रेरणा की मिसाल है कि जज्बा हो तो जीवन में कुछ भी हासिल किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी शिखर की ऊंचाई हासिल की जा सकती है। दरअसल, ये खिलाड़ी दो मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। एक तो अपने शरीर व सिस्टम की अपूर्णता के विरुद्ध और दूसरे दुनिया के अपने जैसे लोगों के साथ खेल स्पर्धा में। दरअसल, हम आज भी उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं जहां दिव्यांगों को समाज सहजता से स्वीकार करता है। उन्हें समाज के तानों से लेकर अपनों का तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। उन्हें तरह-तरह के नकारात्मक संबोधन से पुकारा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने दिव्यांग शब्द देकर उन्हें जरूर गरिमा का संबोधन दिया है। वैसे देश में दिव्यांगों के जीवन के अनुकूल परिस्थितियां विकसित नहीं की जा सकी हैं। खेल के लिये अनुकूल हालात तो दूर की बात है। निश्चय ही ये खिलाड़ी इस मुकाम तक पहुंचे हैं तो इसमें उनके परिवार का त्याग व तपस्या भी शामिल है। ऐसे स्वर्णिम क्षणों में देश के प्रधानमंत्री का फोन पर इन खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना इन प्रतिभाओं को जीवन का अविस्मरणीय अहसास दे जाता है। जो उन जैसे तमाम खिलाड़ियों को भी एक प्रेरणा देगा कि वे जीवन में कुछ ऐसा कर सकते हैं कि जिस पर देश का प्रधानमंत्री भी गर्व कर सकता है।

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यह अच्छी बात है कि देश की मुख्यधारा के मीडिया ने इन खिलाड़ियों के उत्साहवर्धन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। निस्संदेह, इस मुश्किल हालात में इन खिलाड़ियों की उपलब्धियां स्तुति योग्य हैं। हम न भूलें कि देश-दुनिया पिछले डेढ़ साल से कोरोना संकट से जूझ रही है। इन खिलाड़ियों को मुश्किल हालात में इस मुकाम तक पहुंचने के लिये अभ्यास करना पड़ा है। उन्नीस वर्षीय अवनि पहली महिला हैं, जिसने पैरालंपिक की इस स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। वहीं हरियाणा के लाल सुमित अंतिल ने भी भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर नया इतिहास रच दिया। अपना रिकॉर्ड भी तोड़ा और विश्व रिकॉर्ड भी। पहले ओलंपिक में हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने स्वर्ण पदक जीता था, अब सुमित की उपलब्धियों पर पूरे देश को गर्व है। ऐसा लग रहा कि हरियाणा भाले से सोने पर निशाना लगाने वालों की खान बनता जा रहा है। शायद किसी ओलंपिक में यह पहली बार होगा कि भाला फेंक में स्वर्ण, रजत व कांस्य पदक भारत के ही खिलाड़ियों ने जीते हों। पुरस्कार वितरण समारोह में इस तरह तिरंगा लहराया जाना हर भारतीय के लिये गौरव का क्षण है। इससे पहले भाविना पटेल ने टेबल टेनिस स्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारतीय विजय अभियान की शुरुआत की थी। पैरालंपिक में भाला फेंक स्पर्धा में रजत हासिल करने वाले देवेंद्र झाझारिया का योगदान भी अविस्मरणीय है। वे अपने रिकॉर्ड में सुधार के बावजूद स्वर्ण हासिल न कर पाये। गर्व की बात है कि वे वर्ष 2004 और 2016 के पैरालंपिक स्पर्धाओं में भारत के लिये भाला फेंक में स्वर्ण लेकर आये थे। उन्होंने भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ियों में सोना जीतने की भूख भी जगायी है। बड़ी बात है कि दो दशक तक कोई खिलाड़ी लगातार पैरालंपिक में सोना-चांदी जीतता रहे। इसके अलावा हरियाणा के ही एक लाल योगेश कथूनिया के डिस्कस थ्रो में रजत पदक, ऊंची कूद में रजत पदक जीतने वाले हिमाचल के निषाद कुमार व भाला फेंक में कांस्य जीतने वाले दिल्ली के सुंदर सिंह गुर्जर के योगदान की भी प्रशंसा की जानी चाहिए। मंगलवार को हाई जंप में मरियप्पन थंगावेलू ने रजत, शरद कुमार ने कांस्य तथा 10 मीटर एयर पिस्टल में सिंहराज अधाना ने कांस्य जीत कर पहली बार पदकों को दहाई के अंक तक पहुंचाया है।

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