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पहचान की लड़ाई का बोझ ढोते अश्वेत लोग

07:23 AM Oct 23, 2023 IST
राजेश रामचंद्रन

पांच जून, 1986 के दिन, जो बाइडेन ने कहा था ‘यदि इस्राइल वजूद में न भी होता तो संयुक्त राज्य अमेरिका को इस क्षेत्र के हितों की सुरक्षार्थ इस्राइल का आविष्कार करना पड़ता। यह हमारा 3 बिलियन डॉलर का सर्वोत्तम निवेश है’। बता दें कि जो बाइडेन उस वक्त अमेरिकी सीनेटर थे।
ये उद्गार विन्सेंट चर्चिल या बाद में उनके जैसे किसी अन्य साम्राज्यवादी के हो सकते थे, क्योंकि इसमें महायुद्ध उपरांत बनी उस वैश्विक व्यवस्था की प्रतिध्वनि सुनाई देती है, जो पश्चिमी जगत ने एशिया में अपनी औपनिवेशिक बस्तियों की लिए सोच रखी थी और उन्हें आज़ादी देने उपरांत लाचार समाजों पर थोप दी। एक विस्तारवादी यहूदी राष्ट्र, पुरातन काल से अपनी जमीन पर बसे मूल निवासियों के इलाके लगातार हड़पकर, उस जगह पश्चिमी मुल्कों से निकलकर आए अपने लोगों की बस्तियां बनाने में जुटा है और यह काम साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा औपनिवेशिक देशों को आजाद करके निकलते वक्त आपसी रार की लकीरें खींचने और भावी युद्धों के बीज बोने की साजिश के अनुरूप है। भारत-पाकिस्तान विभाजन में कम से कम 10 लाख से अधिक लोग मारे गए और एक करोड़ बेघर हुए थे।
ओटोमन साम्राज्य पर विजय के बाद, जोकि अधिकांशतः भारतीय फौजियों - खासकर पंजाबियों का -लहू बहाकर प्राप्त हुई थी, ब्रितानी हुकूमत ने 100 साल पहले बड़ी चतुराई से ‘पहचान की लड़ाई’ की जो नीति अमल में लानी शुरू की थी, वह आज भी जारी है। इसमें शक की जरा सी भी गुंजाइश नहीं है कि कौन सा पक्ष मौत के इस घिनौने खेल में पुराने साम्राज्यवादियों के वारिस बनकर वही सब दोहरा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और ब्रितानी प्रधानमंत्री ने आनन-फानन में इस्राइल पहुंचकर सिद्ध कर दिया है कि एशिया में ब्रितानी औपनिवेशिक शासकों ने जो ‘नियम-आधारित व्यवस्था’ पीछे छोड़ी थी, वह आज भी वैसी है और इसकी बुनियाद धार्मिक पहचान को लेकर आपस में लड़ते मजहबों पर टिकी है और लगातार मजबूत हो रही है।
शासन-कला में ब्रितानियों की महारत धार्मिक पहचान की राजनीति को इजाद करने में रही है और इसमें नफरत की राजनीति नैसर्गिक रूप से संलग्न है। यह नीति अभी भी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को दरकिनार करने और उसे दूसरों से नफरत करने की ओर मोड़ देने की ताकत और संभावना रखती है। कई मुल्कों में, उदाहरणार्थ भारत में, यासीर अराफात को अपने परेशान लोगों की न्याय और अलग देश की आकांक्षा का एक संघर्षरत नायक मानकर स्वीकार किया। परंतु हमास के संस्थापक अहमद यासीन की स्वीकार्यता पुरातनपंथी राक्षसी प्रचारक की है, जो अपने ज़हरीले प्रवचनों से युवाओं को बरगलाकर निश्चित ही मौत की ओर धकेलने में लगा है। पुराने समय के साम्राज्यवादियों के वारिस, सम्मिलित प्रतिबद्धताओं को हराकर, धार्मिक पहचान के आधार पर रार पैदा करने में सफल रहे हैं, जिसका अनुमोदन उनके सह-धर्मियों के अलावा कोई अन्य नहीं करता। इससे भी बदतर कि यासीर अराफात के बरक्स हमास के सरगना यासीन को शांति या आजाद मुल्क की इच्छा नहीं है, वह तो एक अंतहीन ‘पवित्र धर्म युद्ध’ चलाए रखने का हामी है।
इस्राइली भी, अपने धार्मिक हकों के लिए दूसरों से लड़ना एक वजह गिना रहे हैं। उनके राजनेता नफरत के बिना शक्तिहीन हैं, इसी पर उनकी राजनीति चलती है और निजी राजनीतिक पेशा भी। इसलिए, वे फलस्तीनी प्राधिकरण की बजाय हमास से बरतते हैं, क्योंकि वे समस्या का हल निकलना नहीं चाहते इसलिए हमास को वैध बना रहे हैं। जिस तरह बेंजामिन नेतन्याहू की दक्षिणपंथी सरकार फलस्तीनी मुस्लिमों से नफरत करती है उसी प्रकार बदले में हमास भी यहूदियों के विरुद्ध घृणा फैलाता है। हमास को दुश्मन करार देकर नेतन्याहू सरकार और कुछ नहीं बल्कि उसको वैधता प्रदान कर रही है क्योंकि वह राजनीतिक ढांचे में दूसरों से नफरत को पूरी तरह से संस्थागत बनाना चाहती है। साल 2011 में, हमास द्वारा बंधक बनाए एक इस्राइल सैनिक के बदले 1027 फलस्तीनियों को सौंपा गया था, और सरकार ने यह सौदा फलस्तीनी प्राधिकरण के साथ न करके,हमास के साथ किया गया था।
गाज़ा में अल-आहली अस्पताल में 500 आम नागिरकों की मौत का कारण बनी मिसाइलें कहां से और कितने छोड़ी, यह पक्का करने के लिए गहरे उतरने की कोई जरूरत नहीं है। बिना शक, इस दानवी कृत्य के पीछे नफरत ही मुख्य सूत्रधार है। जब वे केवल वही राजनीति जानते हैं, जिसमें दूसरों के धर्म से घृणा करना है, तब ऐसी कोई लकीर नहीं बचती, जो पार न की जा सके। जब हमास के लुटेरे हत्यारों ने नन्हे बच्चों की जान लेते वक्त, औरतों को अगवा या बलात्कार करते समय या निहत्थे आम लोगों को मारने में जरा सी दया नहीं दिखाई तो फिर इस्राइल फौज में उनके समकक्षों को किसने रोका है कि वे अस्पतालों पर बममारी न करें? हमास को दुश्मन करार देकर उसके खिलाफ युद्ध का ऐलान करना और गाज़ा में आम नागरिकों पर बमबारी करके इस्राइल सरकार ने अपना स्तर हमास के रक्तपात करने वाले गिरोहों जितना गिरा दिया है, जो गाज़ा में हर किसी को मारने को उद्यत हैं– आतंकवादी हो या नागरिक।
हमास का हैरतअंगेज़ अचानक किया हमला किंवदंती बन जाता, यदि इसमें जघन्य क्रूरता और 1300 इस्राइलियों की मौत न हुई होती, जिनमें अधिकांश आम नागरिक थे। इस क्षेत्र की सबसे तगड़ी सेना ने आखिर नौसीखियों के झुंड को अपने पर हमला करने और कैमरे, सेंसर, राडार एवं उपग्रह टोह इत्यादि उच्च कोटि की तकनीकों से लैस बाड़ को तोड़कर अंदर घुस आने देना गवारा कैसे किया? हमास लड़ाके बुलडोज़र से बाड़ गिराकर, हवाई मार्ग और वाहनों से 25 किमी. अंदर तक कैसे घुस गए और कैसे कोई खास प्रतिरोध नहीं हुआ? इसमें मिलीभगत या सौदे की या बृहद साजिश की बू आती है। नफे-नुकसान के आधार पर विश्लेषण करके इस कथित साजिश-कथानक को सिद्ध करना बेवकूफी होगी। लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन को चाहिए था कि इस्राइल को एकमुश्त सही ठहराने से पहले कड़े सवाल करते।
जब बाइडेन कहते हैं कि वे इस्राइल के साथ पूरी तरह खड़े हैं, तो इसमें यह क्यों नहीं जोड़ा कि इस्राइल गाज़ा के आम नागरिकों से युद्ध न करके उस आतंकवादी गुट को खत्म करे, जिसको अपने बेगुनाह आम लोगों को मरवाने में जरा हिचक नहीं। जॉर्डन और मिस्र ने अपनी सीमाएं बंद करके ठीक किया क्योंकि वे नहीं चाहते कि संकट की इस घड़ी का फायदा उठाकर इस्राइल गाज़ा वासियों को दूसरे देशों में खदेड़कर वहां अपने विस्तारवादी अभियान का दायरा आगे बढ़ा पाए। यह घड़ी वाकई शांति बनाने का आह्वान करने की है। शांति, वह जो हमास रहित और इस्राइली प्रतिकार के बिना हो।
गाज़ा के लोगों से यह अपेक्षा न की जाए कि वे हमास की निंदा करेंगे क्योंकि अब तक उन्होंने इस्राइल का दिया धोखा और बर्बादी ही तो देखी है। यह स्थिति ठीक श्रीलंका के किलिन्नोच्ची के तमिलों जैसी है, जिनके लिए एलटीटीई एक रक्षक सैन्य गुट था, भले ही प्रभाकरन उन्हें मानव-ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहा था (इसके पीछे भी वही ‘पहचान का संघर्ष’ था, जो औपनिवेशिक हुकूमत जाते समय पीछे छोड़ गई थी और बाद में पश्चिमी जगत ने आतंकवादियों को तूल देकर वैध बना डाला), कदाचित गाज़ा के लोग सशस्त्र हमास का समर्थन इस वजह से करते हों कि उन्होंने अपनी जिंदगी में इससे बेहतर देखा नहीं है।
अमेरिका, जो पश्चिम एशिया से बहुत सारा तेल निकालकर ले जा चुका है और औपनिवेशिक बस्तियों में लूट मचा चुके यूके को अब अपनी हरकतें बंद कर देनी चाहिए। केवल वही हैं जो इस्राइल को नर्म पड़ने, ऐतिहासिक घृणा तजने और द्वि-राष्ट्र वाले हल के लिए तैयार कर सकते हैं। पश्चिमी जगत जहां एक ओर अरब और इस्राइल की निकटता बनवाने में लगा है वहीं फलस्तीनियों को सरासर नज़रअंदाज कर रहा है। परंतु हमास के हमले ने सिद्ध कर दिया है कि पश्चिम एशिया की कूटनीति में नया अध्याय जोड़ने के लिए फलस्तीन में शांति एक पूर्व-शर्त है।
जहां तक भारत की बात है, हमारे हित अरब मुल्कों में कमाई करके हर साल लगभग 50 बिलियन डॉलर स्वदेश भेजने वाले नब्बे लाख भारतीय कामगारों से जुड़े हैं न कि उस यहूदीवादी देश से, जो हमें वह तकनीकें बेचने की कोशिशों में लगा है, जो उसकी अपनी सीमा-बाड़ पर विफल सिद्ध हुई हैं।

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लेखक प्रधान संपादक हैं।

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