भाजपा की हैट्रिक
तमाम राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण व एग्जिट पोल के पूर्वानुमानों को दरकिनार करते हुए भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से हरियाणा विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत हासिल किया है। सतही तौर पर जो माहौल कांग्रेस के पक्ष में नजर आ रहा था, वह वोटों में तब्दील होता नजर नहीं आया। भाजपा के रणनीतिक अभियान ने लगातार दो बार सत्ता में रहने के चलते उपजे जनता के मोहभंग को दूर करने में कामयाबी हासिल कर ली। इतना ही नहीं उसका प्रदर्शन पिछले विधानसभा चुनाव से भी बेहतर रहा और वह अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में आ गई है। दरअसल, हरियाणवी समाज में मुखर अभिव्यक्ति वाली दबंग जाट बिरादरी की एकजुटता व उससे कुछ समुदायों में उपजा असुरक्षाबोध भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण करने में सहायक बना। जो एक साइलेंट वोटर की तरह इस राजनीतिक इबारत को गढ़ रहा था, जिसकी मंशा को राजनीतिक पंडित, मीडिया और एग्जिट पोल करने वाले भी नहीं पढ़ पाए। वहीं दूसरी ओर इस विधानसभा चुनाव में उन दलित मतदाताओं का विश्वास कांग्रेस हासिल नहीं कर पायी, जिन्होंने उसे लोकसभा चुनाव में भरपूर वोट दिए थे। निस्संदेह, हरियाणा में भाजपा को मजबूत संगठन का लाभ बोनस के रूप में मिला। वहीं दूसरी ओर भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ लोकसभा चुनाव के दौरान जो खटास देखी जा रही थी, उसे इस विधानसभा चुनाव के आते-आते भाजपा दूर करने में कामयाब रही, जिसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को माइक्रो मैनेजमेंट में सीधी तौर पर मिला। वहीं भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य में कांग्रेस को मिल रहे शुरुआती लाभ को पढ़कर, उसकी काट में एक केंद्रित व प्रभावी अभियाना चलाया। भाजपा ने किसान, जवान व पहलवान के मुद्दे पर उपजे आक्रोश को न केवल दूर करने का प्रयास किया बल्कि अपने समर्थन के आधार को भी बढ़ाया। विशेषकर यह कोशिश गैर जाट समुदायों में एकजुटता के प्रयासों के रूप में सामने आई। वहीं संगठन के स्तर पर भाजपा की जो बढ़त रही, उसका मुकाबला कांग्रेस का लचर सांगठनिक ढांचा नहीं कर पाया।
कह सकते हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने हरियाणा विधानसभा चुनाव की तैयारी कर ली थी। यही वजह थी कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने करीब-करीब दो पारियों में मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर को हटाकर उनकी जगह नायब सिंह सैनी की ताजपोशी कर दी थी। मकसद यही था कि लगातार दो दशक तक सत्ता में रहने के चलते उपजे सत्ता विरोधी रुझान को टाला जा सके। कमोबेश यह कोशिश रंग लायी। सैनी की सहजता-सरलता और उनका ओबीसी वर्ग से होने का लाभ गैर जाट समुदायों की एकजुटता के रूप में भी मिला। इसके विपरीत कांग्रेस में भूपेंद्र हुड्डा जैसा दिग्गज नेता तो था,लेकिन भाजपा के मुकाबले का सांगठनिक ढांचा नहीं था। वहीं दूसरी ओर पार्टी संगठन में मतभेद व मनभेद भी गाहे-बगाहे उजागर होते रहे। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के सुर भी उभरे। टिकट बंटवारे में केंद्रीय नेतृत्व, हुड्डा गुट व शैलजा गुट की प्राथमिकताओं ने कई तरह की विसंगतियां पैदा की। आप से सीटों के बंटवारे पर सहमति न बन पाने की वजह से आप को तो लाभ नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस के मतों का कुछ विभाजन जरूर हुआ। इस चुनाव में हरियाणा में नई संभावना के रूप में देखी जा रही जेजेपी व बसपा तथा चंद्रशेखर आजाद रावण की आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) का हश्र भी सामने आया। जाहिर है इनका प्रभाव भी कांग्रेस के दलित जनाधार पर जरूर हुआ। इनेलो व निर्दलीयों को कुछ सीटें जरूर मिली, लेकिन वे भाजपा को अपने बूते सरकार बनाने के मार्ग में बाधा नहीं बन सकी। बहरहाल, भाजपा की इस जीत का एक निष्कर्ष यह भी है कि कुशल चुनाव प्रबंधन के जरिये राष्ट्रीय पार्टियां कारगर रणनीति बनाकर कैसे खुद को स्थानीय राजनीतिक माहौल के अनुरूप ढाल सकती हैं। वहीं जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र अपनी खूबसूरती के साथ फिर मजबूत हुआ है। अनुच्छेद 370 खत्म होने के उपरांत एक दशक बाद हुए चुनाव में नेशनल कान्फ्रेंस व कांग्रेस गठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिला है। भाजपा के लिए यह उत्साह की बात है कि उसके द्वारा राज्य में हासिल मत प्रतिशत सर्वाधिक है।