छठ के अहसासों में विद्यमान रहेगी बिहार कोकिला
चेतनादित्य आलोक
बिहार की प्रख्यात लोक गायिका शारदा सिन्हा का 5 नवंबर को देर शाम 72 साल की उम्र में निधन हो गया। आश्चर्य कि मूलतः छठ महापर्व के गीतों से प्रसिद्धि प्राप्त करने वाली शारदा सिन्हा का देहांत भी छठ के दौरान ही नहाय-खाय के दिन हुआ। बताया जाता है कि इसी वर्ष 21 सितंबर को 80 साल की आयु में ब्रेन हेमरेज से उनके पति ब्रज किशोर सिन्हा की मृत्यु हो जाने के बाद से ही शारदा सिन्हा बीमार रहने लगी थीं। बहरहाल, गीतों के माध्यम से अपने चाहने वालों के दिलों पर शारदा सिन्हा हमेशा राज करती रहेंगी। उनके निधन से भोजपुरी जगत में जो सूनापन पैदा हुआ है, वह कभी भरा नहीं जा सकता। चाहे विवाह का शुभ अवसर हो अथवा छठ महापर्व का, उनके गीतों के बिना सब कुछ अधूरा-सा प्रतीत होता है। संगीत की दुनिया में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’ तथा ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था।
शारदा सिन्हा को जानने वाले बताते हैं कि वह कलाकारों को बहुत सम्मान देती थीं। साथी कलाकारों के साथ वह प्रेमपूर्ण व्यवहार करती थीं। शारदा सिन्हा की इच्छा प्रारंभ में नर्तकी बनने की थी। उन्होंने एक नृत्य गुरु के समक्ष अपनी यह अभिलाषा प्रकट भी की थी, लेकिन नृत्य गुरु ने उन्हें गायन के क्षेत्र में अपना भाग्य आजमाने की राय दी। नृत्य गुरु ने तब उनसे कहा था कि उनकी आवाज में जो कशिश है, वह गायन में अद्भुत निखार लाएगी। उस नृत्य गुरु की बातों को शारदा सिन्हा ने सत्य साबित करते हुए गायन के क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ दिया। अपनी आवाज का जादू बिखेरते हुए न केवल भोजपुरी, बल्कि मैथिली, मगही, बज्जिका, हिंदी आदि भाषाओं में भी अनेक प्रकार के लोकगीतों का गायन किया था। बताया जाता है कि करिअर के शुरुआती दौर में एक बार उन्हें ‘प्रयाग संगीत समिति’ के आयोजन ‘बसंत महोत्सव’ में अपना हुनर दिखाने का जब अवसर मिला, तब प्रयाग में आयोजित उक्त कार्यक्रम में उन्होंने अपनी गायकी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था। एक गायिका के रूप में उन्होंने आंचलिक लोक-संगीत को एक नया आयाम दिया।
लोकप्रिय गायिका शारदा सिन्हा ‘बिहार कोकिला’ के रूप में विख्यात रही हैं। उनका जन्म 1 अक्तूबर, 1952 को बिहार के सुपौल जिलांतर्गत हुलास गांव में हुआ था। बचपन से ही घर में संगीत का माहौल होने के कारण उनका रुझान गीत-संगीत की ओर हो गया था। बाद में जब उनका विवाह बेगूसराय जिला स्थित सिहमा गांव के मैथिली भाषा-भाषी ब्रज किशोर सिन्हा से हुई, तो वहां उन्हें मैथिली लोकगीतों को सुनने का अवसर मिला। मायके और ससुराल दोनों जगहों पर संगीतमय माहौल होने के कारण संगीत के सुरों के प्रति उनका लगाव और गहरा होता चला गया। वैसे उन्होंने स्व. पं. सीताराम से गुरु-शिष्य परंपरानुसार शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उनकी गायकी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें फूहड़पन का नामोनिशान नहीं है।
हालांकि, वह अपने कैरियर के आरंभ में मैथिली लोकगीत गाती थीं, लेकिन शीघ्र ही जब उन्हें भोजपुरी में अपना हुनर दिखाने का अवसर मिला तो उन्होंने भोजपुरी में अपना नाम रोशन करने में देर नहीं लगाई। वहीं, उन्होंने बाॅलीवुड की हिंदी फिल्मों के लिए भी कई गीत गाए, लेकिन उनको वास्तविक पहचान तो छठ गीतों से ही मिली। टी-सीरीज, टिप्स एवं एचएमवी सहित कई बड़ी और नामचीन संगीत कंपनियों के लिए उन्होंने गीत गाए। इन कंपनियों के कुल नौ एल्बमों के लिए उन्होंने 60 से भी अधिक छठ गीत गाए।
बिहार कोकिला के रूप में विख्यात शारदा सिन्हा ने अपने पूरे कैरियर में बाॅलीवुड की फिल्मों के लिए भी कई गीत गाए थे। इनमें ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के लिए ‘तार बिजली से पतले’ और ‘हम आपके हैं कौन’ के लिए ‘बाबुल जो तुमसे पाया’ तथा ‘मैंने प्यार किया’ के लिए ‘कहे तोसे सजना’ जैसे यादगार गीतों को अपने सुरों से सजाया, जो संगीत के क्षेत्र में उनकी दीवानगी और ऊंचाई काे दिखाते हैं।
‘महिमा बा राउर अपार छठी मैया...!’ भोजपुरी भाषा का यह अत्यंत लोकप्रिय छठ गीत शारदा सिन्हा ने 2003 में गाया था। इसके अलावा 2003 में ही उन्होंने मैथिली भाषा में इस गीत को भी गाया था- ‘सकल जगतारिणी हे छठी मैया...!’ इसी प्रकार, ‘पहिले-पहिले हम कईनी, छठ मैया, बरत तोहार...’ गीत उन्होंने 2016 में गाया था, जिसने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात कर दिया। बताया जाता है कि इसी गीत ने देश के अतिरिक्त विदेशों में बसे भारतवंशी युवाओं को छठ महापर्व की महत्वपूर्ण परंपराओं से जोड़ने कार्य किया था। उनका एक और लोकप्रिय छठ गीत ‘हो दीनानाथ...’ 1986 में जारी हुआ था, जिसने श्रद्धालुओं को भक्ति में सराबोर करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे ही, ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल झुके झुके...’ गीत को भी उन्होंने 1986 में ही गाया था।
छठ गीतों की तरह ही शारदा सिन्हा के विवाह गीत भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। देखा जाए तो उन्होंने बेटी की विदाई के दर्द को इतनी खूबसूरती से अपने गीतों में उतारा है कि प्रायः यह गीत प्रत्येक विवाह में बजाया ही जाता है। ‘बाबुल का घर छोड़कर...’ गीत लोगों को इतना भावुक करने वाला है कि दुल्हन की विदाई के समय प्रायः इसे सुनकर हर व्यक्ति की आंखें नम हो जाती हैं। इसके विपरीत विवाह के अवसर पर हंसी-ठिठोली से भरपूर गीत ‘सांवर-सांवर सुरतिया तोहार दुल्हा...’ में दुल्हन की सखियां दूल्हे की खिंचाई करती हैं। इस गीत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके बोल और भाव अत्यंत मधुर होने के कारण यह लोगों के दिलों में रच-बस चुका है। इसी प्रकार, ‘शिव से गौरी ना बियाहब...’ गीत भी विवाह के मौके पर दूल्हे की खिंचाई करते हुए दुल्हन पक्ष की महिलाएं गाती हैं। इसके अलावा 1977 में गाया गया ‘दूल्हा धीरे-धीरे चलियो...’ मंडप में दूल्हे के प्रवेश के समय गाया-बजाया जाने वाला एक लोकप्रिय गीत है।