नापाक गठजोड़ से संचालित तबादलों का बड़ा खेल
गुरबचन जगत
(मणिपुर के पूर्व राज्यपाल, पूर्व डीजीपी जम्मू व कश्मीर)
मेरी यादें मुझे 1990 के दशक के मध्य में ले जा रही हैं, जब मैं चंडीगढ़ स्थित पुलिस मुख्यालय में एक प्रशासनिक अधिकारी की हैसियत से नियुक्त था। एक दोपहर, पुलिस महानिदेशक ने मुझे बुलाया और इच्छा जताई कि मुझे भी पंजाब भवन में मुख्यमंत्री के साथ बैठक में उनके साथ जाना चाहिए। हम दोनों समय पर पहुंच गए, लेकिन मुख्यमंत्री वहां नहीं थे, कुछ देर बाद उनकी ओर से एक सहयोगी आया। गर्मजोशी भरी दुआ-सलाम के आदान-प्रदान के बाद, मंत्री ने अपनी जेब से कागज की एक पर्ची निकाली और महानिदेशक को थमा दी। मेरे बॉस जल्द आपा खो देने के लिए मशहूर थे और मैं उनका चेहरा लाल होते हुए देख पा रहा था। फिर उन्होंने वह पर्ची मुझे पकड़ा दी, इसमें लगभग 20 तबादलों की सूची थी। प्रस्तावित बदलियां एक ही सिद्धांत पर आधारित थीं- सभी मौज-मस्ती वाले फील्ड में और तमाम बढ़िया अधिकारी दफ्तरी कामकाज पर। डीजीपी ने मुझसे मेरी राय पूछी, मैंने उनकी सोच का समर्थन किया और कहा कि एक भी प्रस्ताव स्वीकार करने लायक नहीं है। महानिदेशक उठ खड़े हुए और जैसे ही हम बाहर निकलने के लिए तैयार हुए, मंत्री ने सुझाव दिया कि इस मामले पर हम चर्चा कर सकते हैं और चाहें तो कुछ बदलाव भी किए जा सकते हैं। लेकिन उन्हें दो टूक बता दिया गया कि ऐसी सौदेबाजी हमारे बस की नहीं है, सो इस निश्चय के साथ बैठक से बाहर आ गए। मैंने महानिदेशक को उनके घर छोड़ा और कहा कि अब हमें खुद भी अपनी बदली के लिए तैयार रहना चाहिए। दो दिनों के बाद, हम दोनों को सूबे से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया और साथ ही मुख्य सचिव को भी (जाहिर है, उन्हें भी ऐसा ही अनुभव हुआ होगा)। हालांकि, वह वक्त अलग था और मूल्य और सिद्धांत अपनी जगह कायम थे, लिहाजा हम में से किसी की भी नौकरी पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। वास्तव में, महानिदेशक की नियुक्ति बतौर राज्यपाल एक सूबे में हो गई। मुख्य सचिव की प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में और मुझे जम्मू-कश्मीर का पुलिस महानिदेशक बनाया गया।
यह प्रसंग तब का था जब हम अभी उग्रवाद के जंजाल से पूरी तरह उबरे नहीं थे। वैसे भी बदलियों और नियुक्तियों को लेकर पुराने नियम-कायदे अभी भी जारी थे। पुलिस महानिदेशक की ओर से गृह विभाग को प्रस्ताव भेजा जाता और यदि गृह सचिव और डीजीपी के बीच कोई मतभेद हो, तो उसे दूर कर करने के बाद, नाम आगे मुख्यमंत्री को भेज दिया जाता। साथ ही, उग्रवाद के कारण, महानिदेशक के भेजे प्रस्ताव सामान्यतः स्वीकार हो जाते थे। इससे पहले भी,स्वतंत्रता-पूर्व काल में यही प्रथा थी और इस पर अमल बड़े जिम्मेदार तरीके से किया जाता था। ऐसे मामलों में, बड़े पैमाने पर राजनीतिक हस्तक्षेप होने का सवाल नहीं था। 19वीं सदी के मध्य में भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में सुधार लागू होने शुरू हुए (1854 में आईसीएस पर लॉर्ड मैकॉले की रिपोर्ट के परिणामस्वरूप) और नौकरी पर रखना किसी की मेहरबानी की बजाय योग्यता-आधारित प्रणाली में परिवर्तित हो गया। ये सुधार ब्रिटिश होम सिविल सर्विस में भी लागू किए गए। एल्के फ्रैंक (हंटर कॉलेज, सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क) द्वारा लिखे गए एक शोधपत्र में, उन्होंने सरकार परिवर्तन काल में नौकरशाही के महत्व का वर्णन किया है : ‘चूंकि नौकरशाही’ आधुनिक सरकार की धुरी है, इसलिए राजनीतिक परिवर्तन काल की प्रक्रिया में नौकरशाहों की भूमिका खासतौर पर अहम हो जाती है। जब एक सरकार पहले वाली की जगह लेती है, भले ही सत्ता का यह हस्तांतरण राजनीतिक व्यवस्था के अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन दर्शाता हो या फिर स्थापित संवैधानिक ढांचे के भीतर किसी पार्टी की किस्मत चमकी हो, नौकरशाहों से अपेक्षा होती है कि वे अपने पदों पर बने रहें और प्रशासन के क्रिया-कलाप में पूर्ववत भाग लेते रहें। नीतिगत तंत्र में चाहे कितने भी बड़े बदलाव हों, सरकार के पहिए थमने नहीं चाहिए। आवश्यक कार्यक्रम और संचालन जारी रहें, बुनियादी प्रतिबद्धताओं का सम्मान बना रहे, वरना पूरा सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा।’
यह योग्यता-तंत्र की मूल परिकल्पना के अनुरूप है और उन बुनियादी प्रतिबद्धताओं का सम्मान अवश्य रहे, जिनसे मिलकर लोकतंत्र एवं एक सक्षम सरकार का हृदयस्थल बनता हैं। हालांकि, राजनीतिक एवं प्रशासनिक काबिलियत, जवाबदेही और नैतिकता के मानकों में आमतौर पर आई गिरावट के अलावा सिविल सेवाओं में बाहरी हस्तक्षेप बढ़ने लगा। इसकी शुरुआत तब हुई जब सत्तासीन लोग अपने प्रभाव क्षेत्र में मनपसंद अधिकारी चाहते थे और अफसर भी जिस जगह मनमाफिक नियुक्ति चाहते थे, उसके लिए राजनीतिक संबंधों को भुनाने लगे– इस तरह आपसी हितों का पोषण करने वाली एक व्यवस्था स्थापित हो गई। पहले पहल, यह बूंदों के रूप में थी, लेकिन बाद में तो बाढ़ आ गयी। कारण था सिविल सेवाओं का राजनीतिकरण और राजनेता-अपराधी-पुलिस गठजोड़ का उद्भव, जिसमें आगे इजाफा हुआ सियासी दलों द्वारा ‘इलाका प्रभारी’ प्रणाली की शुरुआत से (विभिन्न राज्यों में इलाका प्रभारी को अलग-अलग नाम से जाना जाता है)। िसविल अधिकारी खुलकर ‘सियासी आकाओं’ के साथ गठजोड़ करने लगे और अपने राजनीतिक मालिकों की धन एवं बाहुबल से मदद करने के लिए आपराधिक गुटों को अभयदान देने लगे। जिला और उपमंडल स्तरीय पद, जैसे डीएसपी, एसडीएम और एसएचओ स्तर पर बदलियों का काम इलाका प्रभारियों के हवाले कर दिया गया, जो इन अधिकारियों को पैसा पहुंचाने वाले बिचौलिए भी बन गए, जिनकी प्रतिबद्धता अब अपने वरिष्ठ अधिकारियों या सेवा के प्रति न रहकर इस माफिया की ओर हो गई। इस घटनाक्रम ने सिविल सेवाओं में अपने से ऊपर अधिकारियों के प्रति जवाबदेही और इसकी नैतिकता की रीढ़ तोड़ दी, और कानून के शासन के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखने के दिन लद गए। अधिकतर अच्छे अफसरों को दरकिनार कर दिया गया या उन्होंने डेपुटेशन पर भारत सरकार में जाना चुना (यह बीमारी फैलने में कुछ समय लगा लेकिन अब तो गहरे तक पैठ कर चुकी है)। धन और बाहुबल की बढ़ती जरूरत के कारण, भ्रष्टाचार में गुणात्मक वृद्धि हुई और संगठित आपराधिक गुटों से बहुत बड़ी मात्रा में ‘गंदा पैसा’ आने लगा, वे नेताओं को बाहुबल भी मुहैया करवाते हैं। इससे पूर्णकालिक समग्लर, नशा एवं काले धन के धंधेबाजों से बने माफिया का युग शुरू हुआ – यानी गैंग। वह गैंग जिनके बारे में कभी सुना भी न था, लेकिन अब तो इनके फैलाव को संभालना मुश्किल हो रहा है। आपसी गैंगवार, गोलीबारी, जेलों में झगड़े और ड्रग माफिया को निशाना बनाकर हत्याएं हो रही हैं। देश-विदेश में इस नेटवर्क के फैलने में राजनीतिक दलों का हाथ सदा रहा है। जिस तरह लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होते हैं यह नेटवर्क और भी मजबूत हो गया है क्योंकि उनमें धन और बाहुबल, दोनों की जरूरत होती है।
मैंने नौकरी के दौरान विभिन्न स्थानों और पदों पर रहते हुए अनेक चुनाव प्रक्रिया में भाग लिया । मुझे कभी यह समझ नहीं आया कि चुनाव से ठीक पहले पुलिस और अन्य सिविल अफसरों के तबादले नतीजों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, भले वक्त में भी पुलिस वाले लोकप्रिय नहीं होते, लोग केवल उनसे डरते हैं न कि इज्जत करते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि ये ‘चुनिंदा’ पुलिस अधिकारी सिवाय आदमी और पैसा मुहैया करवाने के, और क्या मदद कर पाएंगे। वे तभी उपयोगी हैं यदि मतदान में पूरी और सरेआम धांधली करवाएं, शुक्र है अभी तक ऐसा नहीं हुआ। वे वोटिंग मशीनों में हेराफेरी करने में भी सक्षम नहीं और यह आरोप वैसे भी कभी सिद्ध नहीं हुआ, खासकर जब विभिन्न राजनीतिक दल जीत प्राप्त कर सत्तारूढ़ हो रहे हों। जो भी है, पुलिस और अन्य सिविल सेवा संस्था, जिनसे मिलकर आपराधिक न्याय प्रणाली बनी है, टूटी-बिखरी पड़ी है और जो स्वरूप पहले था, वह पहचान में नहीं आ रहा। न्यायपालिका, जो कि इस सिस्टम का एक अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ है, उसे भी आत्मनिरीक्षण करने और लाखों लंबित मामलों का हल खोजने की जरूरत है। जब भी कोई वीभत्स घटना घटती है तभी हम आंदोलन करने लगते और कार्यबल बनाए जाते हैं। हालांकि, समय बीतने के साथ, यह सब ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है- लेकिन मिलीभगत कायम रहती है। क्या ये नापाक गठजोड़ कभी तोड़ा भी जा सकेगा? ऐसा लगता है कि केवल लोगों की सामूहिक इच्छाशक्ति और ताकत ही इस रोग का इलाज कर सकती है।
लेखक ‘द ट्रिब्यून’ के ट्रस्टी हैं।