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पसीने की कमाई पर बड़ी कंपनियां ललचाई

05:49 AM Oct 31, 2024 IST

डॉ. रमेश ठाकुर

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दिवाली मिट्टी के बर्तनों दीये-बर्तनों के उपयोग वाला त्योहार माना जाता है, लेकिन अब उस पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। ग्राहक देशी कुम्हारों से खरीदने के बजाय ऑनलाइन कंपनियों से बर्तन मंगवाने लगे हैं। आज़ादी के बाद आबादी का एक बड़ा तबका मिट्टी के व्यवसाय को अपना पुश्तैनी धंधा मानता रहा है, जो अब धीरे-धीरे सिमटने लगा है। दिवाली जैसे त्योहारों पर भी कुम्हारों के बर्तन अब ज्यादा नहीं बिकते, जबकि पहले दिवाली ऐसा पर्व होता था, जब माटी के शिल्पकारों के घरों में खुशियां बिखरती थीं। धनतेरस-दिवाली पर उनकी आमदनी बेहिसाब होती थी। दिवाली पर उनकी कमाई इतनी हो जाती थी, जिससे साल भर का गुजारा हो जाता था। त्योहारों के अलावा सामान्य दिनों में भी बिक्री होती थी। बड़े त्योहारों पर करीब एकाध महीने पूर्व कुम्हार दूर-दराज क्षेत्रों में जाकर चिकनी मिट्टी का जुगाड़ करते हैं। उनसे दीये, कुज्जे, कलश व अन्य मिट्टी के बर्तन तैयार करते हैं। मौजूदा समय में बड़ी-बड़ी कंपनियां इस क्षेत्र में कूद चुकी हैं। कुम्हारों द्वारा बने बर्तनों को रंग-बिरंगे करके उन्हें अपना बनाकर कंपनियां ऑनलाइन बेचने लगी हैं। वे सस्ते में कुम्हारों को ऑर्डर देकर उनसे कच्चा माल खरीद लेती हैं और उसको रंग-रोगन करके महंगे में बेचती हैं।
माटी कला हमारी भारतीय संस्कृति का प्राचीन समय से अहम हिस्सा रही है। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध और तकनीकी सुविधाओं के विस्तार ने इस कला को धूमिल करा दिया है। ग्राहकों का जब से देशी किस्म से बने बर्तनों से मोहभंग हुआ है, कारीगर भी इस शिल्पकारी से दूरी बनाने लगे हैं। मिट्टी के बर्तनों और इससे जुड़ी अद्भुत कलाकारी से मौजूदा पीढ़ी तो तकरीबन दूर ही हो चुकी है। विलुप्त होती इस संस्कृति को बचाने के लिए वर्ष 2018 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कुम्हारों के लिए ‘माटी कला बोर्ड’ स्थापित करने और इस धंधे से जुड़े लोगों को रोजगार देने का मन बनाया था। योजना के मुताबिक प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने और मिट्टी के बर्तनों को बढ़ावा देने की कार्ययोजना तैयार की थी। माटी कला से जुड़े कामगारों को प्रशिक्षण देने का भी प्रावधान किया था। लेकिन योजना बनने के तुरंत बाद कोरोना का कहर शुरू हुआ और योजना ठंडे बस्ते में चली गई। सबसे बड़ी बात यह कि कुम्हारों की समस्याओं की आवाज उठाने वाला या उनका ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाला भी कोई नहीं है।
इसके अलावा, माटी संस्कृति के संरक्षण के लिए समय-समय पर केंद्र व राज्य सरकारों ने अपने हिसाब से कुछ न कुछ प्रयोग किए हैं, जैसे पॉलिथीन गिलासों पर प्रतिबंध लगाकर चाय के लिए कुल्हड़ों का प्रयोग करना। लेकिन समय जैसे-जैसे बीतता है, गर्भ में पनपते नियम-कानून भी दम तोड़ देते हैं। लालू प्रसाद यादव जब रेल मंत्री हुए, तो उन्होंने देशभर के रेलवे स्टेशनों पर खानपान की दुकानों पर कुल्हड़ का इस्तेमाल अनिवार्य किया। लेकिन उनके हटते ही, उनका नियम भी हट गया। जबकि, ऐसे कदम पर्यावरण के लिए अच्छे होते हैं। हालांकि, समय कितना भी क्यों न बदला हो, पर कुम्हारों की आमदनी अब भी अच्छी खासी है क्योंकि पहले के मुकाबले मिट्टी के बर्तनों के भाव अब महंगे हैं। एक घड़ा जो कभी एकाध रुपये में मिलता था, अब उसकी कीमत सौ रुपये के ऊपर होती है। बावजूद इसके, मिट्टी के कारीगरों की मौजूदा पीढ़ी फिर भी इस व्यवसाय को नहीं अपनाना चाहती क्योंकि जितनी मेहनत है, उतनी कमाई नहीं।
मिट्टी के बर्तनों का व्यवसाय मिट्टी की ही तरह कच्चा माना जाता है। धूप न निकले तो कच्चा माल जैसे दीये, कलश, धूपदानी, मटके, कुल्हड़, ढक्कन व अन्य बर्तन जल्दी से सूखते नहीं। अगर मौसम बिगड़ जाए, तो कई बार तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है। ऐसे नुकसानों की कोई भरपाई नहीं होती, जैसे फसलों के नुकसान पर सरकारी मुआवजा मिलता है; उन्हें वह भी नहीं दिया जाता। बदलते वक्त की नब्ज को अब कुम्हारों ने भी पकड़ लिया है। मजबूरी में कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को तैयार करके थोक और फुटकर में बेचने लगे हैं। कंपनियों से बड़े स्तर पर ऑर्डर मिलते हैं। हालांकि कंपनियां उन्हें उतनी कीमत नहीं देतीं, जितनी बाजारों से मिल जाती है। कंपनियों को मिट्टी के बर्तन बेचना अब कुम्हारों की मजबूरी भी बन गई है। कुम्हारों के देशी बर्तन फीके पड़ जाते हैं, तब वे हारकर उन्हें कंपनियों को ही देना उचित समझते हैं।
यह बड़ी बात है कि माटी के कलाकार बिना किसी सहयोग व सरकारी सुविधाओं के कड़ी मेहनत से बर्तन तैयार करते हैं। कोरोना काल में तो उनका व्यवसाय पूरी तरह से पिट गया था। दिवाली के अलावा दुर्गा पूजा त्योहार में भी कुम्हारों को मां दुर्गा की प्रतिमाओं को बनाने का ऑर्डर मिलता है। कुल मिलाकर कुम्हार समाज के लिए साल में दो-तीन पर्व विशेष होते हैं, जिसमें मिट्टी की प्रतिमाएं और बर्तन बनाने का काम मिलता है। समय की दरकार यही है कि माटी के शिल्पकारों के लिए सरकारी योजनाएं बननी चाहिए। नुकसान होने पर उन्हें मुआवजा मिले।

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