जल में कमल जैसा व्यवहार करें मोह-माया में
डॉ. विजयप्रकाश त्रिपाठी
विश्व की विभिन्न वस्तुओं का मोह आत्मा को कैद कर लेता है। मनुष्य की छोटी-छोटी वस्तुओं में मनोवृत्ति संलग्न बनी रहती है। जितना अधिक मोह, उतना ही अधिक बन्धन, उतनी ही अधिक मानसिक अशान्ति। विश्व की चमक-धमक में जितना विलीन होंगे, उतना ही आत्म तत्व गुप्त होता जायेगा।
एक सन्त विश्व से वैराग्य लेकर, संसार की सम्पूर्ण माया-ममता का बन्धन तोड़कर, संन्यास लेकर वन में तप हेतु चले गए। माया का परित्याग कर निरन्तर आत्मा में लीन हो गए। साधना करते-करते कई वर्ष बीत गए। मन पर संयम तथा उन्नत वृत्तियों पर शासन करने लगे। एक दिन क्या देखते हैं कि उनके आश्रम में दो सौ फीट की दूरी पर जानवरों का झुण्ड हरी घास चरने आ रहा है। इतने में एक भेड़िया ने आक्रमण करके झुण्ड से एक बकरी ले भागा। उस बकरी का बच्चा छूट गया। सन्त जी को दया आ गई। वे उस बकरी के बच्चे को उठा लाए। उस बच्चे हेतु हरी घास व पानी की व्यवस्था कर पालने लगे। दो महीने में ही उसका स्वास्थ्य बनने लगा। ममता-मोह बढ़ने लगा। उस बकरी के बच्चे की छाया हेतु सन्तजी ने एक झोपड़ी बनाई। सभी व्यवस्थाएं जुटाईं। तात्पर्य यह कि जिस विश्व को छोड़कर सन्त जी चले गए थे, मोहवश फिर उसी भवसागर में फंस गए। उनकी एकाग्रता बकरी के बच्चे में लीन हो गई।
व्यक्ति का मोह, मकान, वैभव-विलास, पुत्र-पुत्री तथा अनेकानेक वस्तुओं के प्रति होता है। यह मोहपाश है। जब उसकी किसी वस्तु को किसी तरह की हानि मिलती है या किसी स्वार्थ पर चोट लगती है, तब आत्मा को कष्ट होता है। मन की शान्ति भंग हो जाती है। व्यक्ति भीतर ही भीतर कष्ट का अनुभव करने लगता है।
पुत्र का मोह व्यक्ति का आत्मा का सबसे बड़ा बन्धन है। परिवार में किसी को कुछ हो जाये तो आपका मन दुःख से भर जाता है। पुत्र से आप कुछ अधिक आशा रखते हैं, पूरी न होने पर आपको पीड़ा होती है। आपके पास एक घर है, परन्तु आप एक और भी बनवाना चाहते हैं। यही नया बन्धन है। आवश्यकता से अधिक कुछ भी रखना, विभिन्न प्रकार के शौक, धन की तृष्णा, फैशनपरस्ती, भोग-विलास की अतृप्त कामना ही आत्मा के बन्धन हैं। इनमें से प्रत्येक में बंधकर मनुष्य फड़फड़ाया करता है। मोह का यह बन्धन मजबूत जंजीरों से आपको बांधे हुए है। जब कभी आपका मन शान्ति का लाभ उठाना चाहता है, तब-तब इनमें से कोई भोग-पदार्थ आपको खींचकर पुनः पहले वाली स्थिति में ला पटकता है।
आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य आप से एक प्रकार से बंधा है। यही ऋण-बन्धन है। विलास की वस्तुएं, जिनके एक दिन न होने से आप दुःख का अनुभव करते हैं, आपका बन्धन है। मादक द्रव्य, जैसे शराब सुरा, तम्बाकू, सिगरेट, पान-मसाला, चाय, कॉफी आदि वस्तुएं, जिनसे आप बंधे हुए हैं, आपको आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने नहीं देतीं। आपका प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक उत्तरदायित्व आप पर बन्धनस्वरूप होकर आता है। यदि आपको बढ़िया परिधान व कीमती कपड़े पहनने का व्यसन है, तो इनकी अनुपलब्धता में आप अपने मन की शान्ति भंग कर लेंगे। यदि किसी दिन साधारण भोजन प्राप्त हुआ और आप नाक-भौं सिकोड़ने लगे, तो यह भी मन की शान्ति को भंग करने वाला है। दो-चार दिन के लिए भी आपको साधारण घर, कुटी या धर्मशाला में रहना पड़े, तो आप परेशान हो उठते हैं। यह सब इसलिए है कि आपने विविध रूपों से अपने-आपको बांध लिया है। आत्मतत्व को खो दिया है। अपनी आत्मा के प्रति ईमानदारी से व्यवहार नहीं करते हैं।
आपका सम्बन्ध विश्व की इन अस्थिर एवं क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं से नहीं हो सकता। आप उत्तम वस्त्रों में अपने जीवन के निरपेक्ष सत्य को नहीं भूल सकते। आप स्वतंत्र, संसार के क्षुद्र बन्धनों से उन्मुक्त आत्मा हैं। आप वस्त्र नहीं, आभूषण नहीं, संसार के भोग-विलास नहीं, प्रत्युत सत्-चित्-आनन्द स्वरूप आत्मा हैं। आपका निकट सम्बन्ध आदि स्रोत परमपरमात्मा से है।
आप जो सम्बन्ध संसार से बांधे हुए हैं, वे दुःखस्वरूप हैं। मृत्यु से जो भय प्रतीत होता है, उसका कारण यही सांसारिक मोह है। माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि कोई भी सम्बन्धी आपके साथ सर्वधा नहीं रह सकता। यह बाह्य बन्धन है। सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि इनमें रहते हुए भी, सदा अपने-आपको पृथक समझा जाये। जैसे कमल जल में रहते हुए भी सदा जल से अलग रहता है, उसी प्रकार सांसारिक बन्धनों में रहते हुए, गृहस्थ के कर्तव्यों का पालन करते हुए भी सदैव अपने-आपको विश्व से पृथक देखिए।