आदमयुगीन बर्बरता
यह अमानवीय कृत्य तार्किकता से परे है कि बेटियों को निर्ममता से इसलिये मार दिया जाए कि उन्होंने अपनी मर्जी के जीवनसाथी के साथ अपनी नई दुनिया बसाने का फैसला ले लिया है। निस्संदेह, मां-बाप बड़े अरमानों से जिगर के टुकड़े को पालते-पोसते हैं। उनके भविष्य व वैवाहिक जीवन को लेकर उनके भी सपने होते हैं। लेकिन जब 21वीं सदी में उम्मीदों के नये आकाश तलाशती बेटियों के कदम दैहिक आकर्षण व सुकोमल अहसासों के चलते मनमर्जी की दिशा में बढ़ने लगते हैं तो उसके लिये मरने-मिटने वाले परिजन क्रूरता से उसका जीवन खत्म कर देते हैं। निस्संदेह, सदियों पुरानी रूढ़ियों व जातीय ग्रंथियों वाला हमारे समाज का एक तबका पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पा रहा है। उसके परिवारिक निर्णय आज भी समाज में लोकलाज और कथित शान के नजरिये से प्रभावित होते हैं। यह समझ से परे है कि जिस हरियाणा की बेटियां तमाम खेलों में सोने के तमगे बटोरने से लेकर एवरेस्ट की चोटियाें की ऊंचाइयां बार-बार नाप रही हैं, उस समाज में बेटियों को लेकर ये दकियानूसी सोच क्यों है? क्यों बहन की रक्षा के लिये राखी बंधवाने वाला भाई आवेश में उसकी जान ले लेता है? वो कितना भयानक मंजर होगा जब बहन भाई को हत्यारे के रूप में आता देखती होगी? निश्चय ही इक्कीसवीं सदी में कथित ऑनर किलिंग की घटनाएं किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा ही है। देश-दुनिया में ऐसी क्रूरता का कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। प्रगतिशील सोच की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से तीन तरफ से जुड़े हरियाणा में सोलहवीं सदी की सोच क्यों जीवित हो रही है यह समाज विज्ञानियों के लिये विचारणीय प्रश्न है। इसके बावजूद जीवन के तमाम क्षेत्रों में हरियाणा ने नये मानक स्थापित किये हैं। लेकिन सिरसा की सरबजीत कौर और कैथल की कोमल रानी की दिल दहला देने वाली हत्याएं हजार सवाल पूछती हैं। भले मां-बाप की दृष्टि में जीवन साथी चुनने में उन्होंने गलती की हो, लेकिन इस पर आदिम युगीन दंड उससे बड़ा अपराध है।
बहरहाल, इस घटनाक्रम के आलोक में यह विरोधाभास भी सामने आता है कि जो राज्य अपनी महिला खिलाड़ियों, विशेषकर पहलवानों के लिये दुनियाभर में प्रसिद्ध है, उस समाज में कुछ बेटियों को लैंगिक अन्याय का दंश क्यों झेलना पड़ रहा है। वह भी उस हरियाणा में जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम की शुरुआत की थी। पूरे देश में इस मुहिम को सकारात्मक प्रतिसाद भी मिला। इस मुहिम का मकसद राज्य में शिशु लिंगानुपात में सुधार करना और नारी सशक्तीकरण को बढ़ावा देना था। निश्चित रूप से पिछले वर्षों में राज्य में जन्म के समय के लिंगानुपात के आंकड़ों में सुधार भी आया। जो हरियाणा लिंगभेद के लिए सवालों के घेरे में था, वहां यह अनुपात नौ सौ का आंकड़ा भी पार कर गया। लेकिन इसके बावजूद सामाजिक परिवर्तन के दीर्घकालीन लक्ष्य पाने में सफलता नहीं मिली, विशेष रूप से ग्रामीण हरियाणा में। दरअसल, राज्य में एक तबके में पितृसत्तात्मक मानसिकता की जड़ें खासी गहरी हैं। जो ग्रामीण समाज में लड़कियों के जीवन पर लगातार नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं। ये वही हरियाणा है जिसके बीबीपुर गांव में नौ साल पहले तत्कालीन सरपंच सुनील जागलान ने ‘सेल्फी विद डॉटर’ अभियान की शुरुआत की थी। जिसकी शेष देश में ही नहीं विदेशों में भी खासी चर्चा हुई थी। तमाम माता-पिताओं ने बताने का प्रयास किया था कि उन्हें अपनी बेटियों पर गर्व है। निश्चित रूप से ऐसे प्रगतिशील कदम समाज की सोच में बदलाव के लिये उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। ऐसी एक नहीं तमाम प्रगतिशील पहलों के लिये प्रयास होने चाहिए। बहरहाल, जिस हरियाणा की बेटियां तमाम वैश्विक स्पर्धाओं में सफलता के नये आयाम स्थापित कर रही हैं, वहां से कोई नकारात्मक संदेश नहीं जाना चाहिए। हालांकि, किसी भी सभ्य समाज में ऑनर किलिंग जैसी अमानवीय प्रवृत्ति को तार्किक नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन बेटियों को भी बदलते परिवेश में कई मुद्दों पर गंभीरता से सोचना चाहिए। उन्हें अपने जीवन से जुड़ा निर्णय लेने का पूरा अधिकार है, लेकिन उससे पहले सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक दृष्टि से इतनी मजबूत बनना होगा, ताकि उनके फैसले पर किंतु-परंतु न हो।