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जीवंतता के रस से सराबोर बनारस

08:32 AM Apr 12, 2024 IST
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यहां गुफ्तगू का अलग अंदाज ए बयां है। खान-पान की एक शृंखला है। संकरी गलियों का विस्तृत इतिहास है। बदलते वक्त की गवाही है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की लंबी विरासत है। धर्म का जयघोष है। भाईचारे का संदेश है। शिक्षा की उच्च परंपरा है। लघु भारत की झलक है। यह बनारस है। यहां जीवन का हर रस है। बाबा विश्वनाथ की नगरी। काशी विश्वनाथ- प्रथम ज्योतिर्लिंग। अनूठे शहर बनारस के इतिहास की तरह यहां की कहानियां हैं, कुछ सुनी और कुछ अनसुनी। पौराणिक कथानक है कि गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को भगवान शिव ने पृथ्वी पर अपना निवास बनाया था।

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केवल तिवारी
बनारस यानी वाराणसी अथवा काशी। इन दिनों बनारस में ज्यादातर ‘नुक्कड़ बहस’ राजनीति पर जारी है। चुनावी बयार है। पीएम का संसदीय क्षेत्र है। आप ई-रिक्शे पर चलिए या लस्सी पीने के लिए किसी दुकान पर रुक जाइये। या कहीं कुछ खाने या खरीदने चले जाइये। कुछ देर की बातचीत के बाद राजनीति ही मुख्य विषय बन जाएगा। ऐसा क्या अक्सर होता है, पूछने पर ज्यादातर लोगों की राय, ‘जी हां, राजनीतिक बात के बिना तो जैसे भोजन पचता ही नहीं।’ पिछले दिनों काशी जाने का मौका मिला। कुछ दिन ठहरकर काशी यानी बनारस को समझा, जाना।
यूं तो काशी को लेकर कुछ न कुछ हर कोई जानता है, लेकिन होली के तुरंत बाद बनारस गए, जहां होली की खुमारी तारी थी। उत्तराखंड में उस होली गीत की तरह जिसके बोल हैं, ‘शिव के मन माही बसे काशी…।’ असल में बनारस यानी वाराणसी का पुराना नाम काशी है। धार्मिक ग्रंथों में भी काशी नाम ही मिलता है। कहा जाता है कि कशिका से काशी बना। इस शब्द का अर्थ चमकना बताया जाता है। कहा जाता है कि काशी हमेशा चमकती रहती है। यहां आध्यात्मिक चमक, धार्मिक चमक, भाईचारे की चमक है। ऋग्वेद में भी काशी का उल्लेख मिलता है। शिव की काशी कही जाने वाली इस नगरी के नामकरण को लेकर और भी कई कहानियां हैं। इन्हीं कहानियों में छिपी है इसकी रंगत। पाली भाषा में बनारसी से इसका नाम बनारस हुआ। बताया जाता है कि बनार नाम के राजा से यहां का नाम बनारस पड़ा। मुगलकालीन समय में भी यही नाम प्रचलित रहा। बौद्ध जातक कथाओं और हिंदू पुराणों में वाराणसी इसका नाम था। दो नदियों वरुण या वरुणा और असी से यह नाम पड़ा। मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे इस शहर के आसपास से कई सहायक नदियां होकर गुजरती हैं। इन प्रमुख प्रचलित नामों के अलावा भी इस धार्मिक शहर के कई अन्य नाम हैं, जिसकी चर्चा वहां पुराने लोगों से आप करेंगे तो उनके बारे में दंतकथाएं भी सुनेंगे। प्राचीन समय में संस्कृत पढ़ने लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी घराने की संगीत कला भी विश्व प्रसिद्ध है। इस शहर में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां से लेकर संगीत की विविध विधाओं के लोगों ने विश्व प्रसिद्धि पाई। वैसे कला, संस्कृति में बनारस घराने का स्वरूप जयपुर घरानों के समकक्ष मिलता है। वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केंद्र है। यह शहर रेशम, सोने व चांदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, कांच की चूड़ियों, पीतल के काम के लिए भी प्रसिद्ध है। बनारसी साड़ियां तो विश्वप्रसिद्ध हैं हीं। आइये इस सफर की चर्चा के साथ-साथ बनारस को देखें ऐतिहासिक, धार्मिक और पर्यटन नगरी के झरोखों से।

कैसे जाएं

बनारस जाने के लिए देश के हर इलाके से अलग-अलग रूट हैं। हमारा रूट था चंडीगढ़ से लखनऊ फिर लखनऊ से बनारस। यहां के लिए इंटरसिटी के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य राज्यों, बिहार, बंगाल जाने वाली तमाम ट्रेनें हैं। रास्ते में अनेक ऐतिहासिक स्थल मसलन- जाने-माने कवि मलिक मुहम्मद जायदी का क्षेत्र जायस, रायबरेली, गौरीगंज, अमेठी, प्रतापगढ़ आदि पड़ते हैं।

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स्टेशन भी अलग-अलग

बनारस यदि ट्रेन से जाना हो तो ध्यान रखें कि इस शहर में नामों की विविधता की भांति रेलवे स्टेशन भी अलग हैं। यहां मुख्य तौर से चार प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं। इनमें वाराणसी जंक्शन कैंट, वाराणसी सिटी स्टेशन, काशी रेलवे स्टेशन और मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन है। मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन को बनारस जंक्शन भी कहा जाता है। यहां लोगों ने बातचीत में बताया कि रेलवे स्टेशनों को स्मार्ट बनाया गया है। स्टेशनों पर सफाई की समुचित व्यवस्था तो हम लोगों को भी महसूस हुई।

आरती और काशी विश्वनाथ दर्शन

बनारस में शाम को गंगा आरती होती है। दशाश्वमेध घाट पर प्रति शाम यह आरती होती है जिसमें भाग लेने के लिए देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं। अगर यह कहा जाए कि बनारस आने वालों के लिए प्रमुख आकर्षण यह गंगा आरती ही है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां आरती दर्शन या तो घाट पर बैठकर होता है या फिर नावों में बैठकर भी इसका आनंद लिया जा सकता है। भक्ति में तल्लीन लोग इस आरती में अपनी भागीदारी इसी में महसूस करते हैं जब सामने आरती हो रही हो और वह नाव में बैठकर देख रहे हों। हालांकि, लोगों के हाथों में मोबाइल आने से भक्तिरस में भी कुछ दिखावे की कड़वाहट भरती सी लगी। लोग देखने या आरती सुनने में कम, वीडियो बनाने या अपने परिजनों को वीडियो कॉल से कनेक्ट करने में ज्यादा मशगूल दिखे। इसके साथ ही डीजल इंजन से चलने वाली नावों के कारण गंगा नदी परिसर में प्रदूषण भी बढ़ता देख थोड़ा दुख हुआ, साथ ही सुकून मिला कि अनेक नावों में अब सीएनजी मोटर लग चुकी हैं। इसके अलावा करीब एक दशक पहले के मुकाबले गंगा की सफाई भी आकर्षित करने वाली रही। गंगा आरती से पहले यानी सुबह या अगले दिन बाहर से आए श्रद्धालु काशी विश्वनाथ के दर्शन, पूजन करने जाते हैं। यहां काफी कुछ व्यवस्थागत कर दिया गया है। मसलन, एक तय राशि देकर अभिषेक कराया जा सकता है, सामान्य दर्शन के लिए अलग पंक्तिबद्ध लोग। अथाह भीड़ के बारे में पूछने पर लोगों का कहना था ऐसा हमेशा ही होता है, लेकिन अयोध्या में राम मंदिर दर्शन को आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु काशी भी आ रहे हैं, इसलिए भीड़ थोड़ा अधिक है।

त्योहार के रंग

बनारस में हर त्योहार का अलग रंग नजर आता है, लेकिन होली पर तो माहौल ही अनूठा होता है। इस शहर में होली का पर्व एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक होता है। होली मिलन आगे भी जारी रहता है। यहां घाटों पर भस्म होली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। वाराणसी के महाश्मशान हरिश्चन्द्र और मणिकर्णिका घाट पर रंग एकादशी के दिन से श्मशान में होली खेलने का रिवाज है। शायद इस परंपरा के पीछे यह मान्यता रही हो कि जीवन और मरण तो ईश्वर के बनाए दो अवश्यंभावी तत्व हैं, इनसे परेशान होने के बजाय इनका उत्सव मनाया जाना चाहिए।

खान-पान के अलग अंदाज

बनारस में बड़े कुल्हड़ की लस्सी सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। इसके अलवा कपड़ों की बनायी गयी छलनी से छानी गयी चाय भी यहां खूब पी जाती है। ज्यादातर दुकानों पर चाय कुल्हड़ में मिलती है। इसके अलावा कचौड़ी, बेड़मी पूड़ी, दही जलेबी, रबड़ी और पेड़ों को खरीदते लोग मिल जाएंगे। पानी के बतासे यानी गोल गप्पों से लेकर हरे चने में प्याज-टमाटर डालकर खाने का रिवाज भी खूब है। जगह-जगह अंकुरित चने, खीरे में काला नमक लगाकर भी लोग खूब खाते हैं।

आसपास भी है बहुत कुछ

यहां अन्य चीजों के अलावा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं वहीं स्थित विश्वनाथ बाबा का भव्य मंदिर भी है। इसके बाद पास में ही, करीब आठ किलोमीटर दूर सारनाथ और करीब 95 किलोमीटर दूर मिर्जापुर में विंध्याचल देवी एवं अष्टभुजा देवी के दर्शन के लिए जा सकते हैं। इस पूरे सफर में आपको हाईवे निर्माण की एक रफ्तार के भी दर्शन होंगे। सारनाथ तक आप ई रिक्शा से भी जा सकते हैं। इससे आप पूरे इलाके को बहुत अच्छे से ‘एक्सपलोर’ कर सकते हैं। प्रमुख रूप से बौद्ध मतावलंबियों के इस क्षेत्र में आपको समृद्ध ऐतिहासिक परंपराओं के दर्शन होंगे। यहां स्थित संग्रहालय में सम्राट अशोक एवं उनसे भी पहले के समय की अनेक कलाकृतियां, बौद्ध स्तूप एवं बौद्ध धर्म मानने वालों के बारे में बहुत जानकारी हासिल हो जाएगी। एक दिन अगर सारनाथ घूमने के लिए निकालें तो प्राचीन ऐतिहासिक भव्यता के साथ-साथ आपको यहां की स्थानीय बोली भी आनंदित करेगी। इसके अलावा मिर्जापुर में गंगा में नौका विहार फिर विंध्याचल देवी मंदिर, पास में अष्टभुजा देवी मंदिर एवं सीताकुंड के नाम से प्रसिद्ध जलस्रोत देखने को मिलेगा। पहाड़ी पगडंडियों पर चलने जैसा अनुभव करते हुए आप धार्मिक महत्व की जानकारी तो जुटा ही सकते हैं साथ ही गंगा नदी की उस विशालता को भी महसूस कर सकते हैं जिसके बहाव में भीमकाय पत्थर बहकर आए और इस मैदानी इलाके में भी पहाड़ होने का अनुभव इस नदी की वजह से हुआ।

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