जटिल हालात में संतुलित कूटनीतिक पहल
मौजूदा जटिल परिस्थितियों के मद्देनजर कूटनीतिक दायरे में भारत सधे तरीके से खेलना सीख रहा है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश में, भारत की मध्यमार्गी अति-यथार्थवादी विदेश नीति वक्त का सबक है। बीते सप्ताह विदेश सचिव विक्रम मिसरी द्वारा बांग्लादेश में अपने समकक्ष से वार्ता में भी इसी नीति पर अमल किया गया। यानी ढाका में अंतरिम सरकार से भी पूर्व की अवामी लीग सरकार जैसा व्यावहारिक रिश्ता बनाये रखने का इरादा जताया गया।
ज्योति मल्होत्रा
पिछले सप्ताह दिल्ली में विदेश मामलों की संसदीय स्थायी समिति के सामने विदेश सचिव विक्रम मिसरी द्वारा बांग्लादेश की अपनी यात्रा का सार नपे-तुले शब्दों में बताना, यथार्थवादी मध्यमार्ग कूटनीति की ओर भारत की स्वागतयोग्य वापसी दर्शाता है, और इसी वजह से भारत की विदेश नीति की ख्याति रही है।
सबसे दिलचस्प यह है कि मिसरी ने शेख हसीना पर उठे सवाल का जवाब पूरी स्पष्टता के साथ दिया। मुखातिब भले ही वे अपने सांसदों से थे, लेकिन बिना शक,उनके इस बयान को बांग्लादेश ने भी उतनी ही सावधानी से सुना और देखा होगा। परिणाम एक बढ़िया संतुलन वाला रहा, एक ऐसे मित्र का चतुराई पूर्ण बचाव, जिसके कार्य-कलाप से न तो आप अतीत में पूर्ण रूपेण सहमत थे और न ही वर्तमान परिस्थितियों में, लेकिन आप उससे पूरी तरह किनारा भी नहीं कर सकते।
मिसरी ने बताया कि हसीना द्वारा बांग्लादेश की अंतरिम सरकार, मुख्य सलाहकार मुहम्मद युनूस के अलावा वहां के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सरकार की नाकामी को लेकर हाल ही में जो अति आलोचनात्मक टिप्पणियां की गई थीं, वे उन्होंने निजी संचार उपकरण के माध्यम से की हैं– जैसे कि आईपैड या कंप्यूटर इत्यादि - किसी टेलीकॉम सेवा प्रदाता से पाए नंबर द्वारा। मिसरी ने एक बार भी यह नहीं कहा कि भारत हसीना की बातों की ताईद करता है या नहीं। उन्होंने विशेष तौर पर कहा कि बांग्लादेश के साथ भारत के संबंध किसी ‘एक राजनीतिक दल विशेष’ पर निर्भर न होकर, उसके केंद्र में बांग्लादेश के नागरिक हैं।
तो, आइए हम दोनों स्थूल पंक्तियों के बीच की बारीक़ी को समझें। मिसरी ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत हसीना के साथ संबंधों वाले पुराने समय से आगे बढ़ने और नए बांग्लादेश के साथ सामान्य स्थिति बहाल करने को तैयार है - आखिरकार, ऐसा भी नहीं है कि भारत ने विगत में अपने इस पूर्वी पड़ोस की कम-दोस्ताना सरकारों से व्यावहारिक रिश्ता न निभाया हो। इसके बारे जानना हो तो इतिहास के प्रति रुचि रखने वाले और पुराने राजदूत रोनेन सेन से उस घड़ी के बारे में पूछिए, जब 1975 में एक रोज आधी रात के बाद या अलसुबह (जिसे आप अपनी घड़ी के हिसाब से कुछ भी कहें) हसीना के पिता मुजीब-उर-रहमान की हत्या कर दी गई थी,और अगर यह हत्या नहीं थी, तो इतनी क्रूर घटना होना क्योंकर बदा था। इसी प्रकार वयोवृद्ध किंतु तेज याद्दाश्त के धनी एक अन्य राजनयिक देब मुखर्जी से पूछिए कि हसीना और खालिदा जिया के साथ उनकी वार्ताएं कैसी रहीं और दशकों तक बांग्लादेश को चलाने वाली ये दो महिलाएं इतनी शिद्दत से एक-दूसरे से इतनी नफ़रत क्यों करती हैं और क्यों 4 अगस्त की ‘क्रांति’ या ‘पराजय’ -यह आप पर निर्भर है कि इसे कैसे लें - अपरिहार्य थी।
चलिए आगे बढ़ते हैं। दिल्ली में मिसरी कह तो भारतीय सांसदों को रहे थे किंतु सुना बांग्लादेश को रहे थे। यह एक बदसूरत प्रकरण रहा, हमारे लिए भी। इस बारे में मिसरी कभी नहीं कहेंगे, न ही कोई और सेवारत भारतीय राजनयिक, लेकिन तथ्य यही है कि इस जनवरी में जब शेख हसीना ने अपना आखिरी चुनाव जीता और उससे पहले जनवरी 2019 में चुनावी विजय पाई, भारत उनके साथ खड़ा रहा। ऐसा करके भारत ने कूटनीतिक तौर पर बमुश्किल अपनी नाक बचाए रखी।
भारत ने बार-बार हसीना को आगाह किया था कि चुनाव प्रक्रिया में विपक्षी दलों की सहभागिता बनाई जाए, खालिदा जिया और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के बाकी लोगों से बात करें, बांग्लादेश एक-दलीय शासन वाला लोकतंत्र नहीं है। भारत की यह सलाह जितनी मुजीब की बेटी के लिए थी उतनी ही बांग्लादेश के लोगों को भी, जिनकी वफादारियां अवामी लीग और बीएनपी के बीच बंटी हुई हैं। इसमें बांग्लादेश के साथ लगभग 4000 किमी. लंबी सीमा साझी रखने वाले हमारे उत्तर-पूर्वी राज्यों की सुरक्षा और स्थायित्व का आयाम भी जुड़ा था। बांग्लादेश के साथ भारत के नए संबंध उतने ही दिलचस्प होने वाले हैं जितना कि अफगान तालिबान के साथ बन रहे हैं। अभी कुछ हफ्ते पहले ही, वरिष्ठ भारतीय राजनयिक जेपी सिंह तालिबान के रक्षा मंत्री मुल्ला याकूब (मुल्ला उमर का बेटा) से मिलने काबुल गए थे। इस मुलाकात ने पास पड़ोस, खासकर पाकिस्तान, में खतरे की घंटी बजा दी है। कुछ अमेरिकियों को हैरानी हुई कि क्या भारत उनके कूटनीतिक हितों के विपरीत लोगों से दोस्ती करने जा रहा है- हालांकि बहुत संभव है कि भारत के अलावा अमेरिका भी अंदरखाते इस पर सहमत हो। सनद रहे कि दो साल पहले अमेरिकियों के काबुल से भाग खड़े होने के बाद से तालिबान ने अमेरिकी दूतावास की एक ईंट तक नहीं छुई, निश्चित रूप से, बड़े खेल का एक नया दौर शुरू होने का इंतजार सभी पक्ष कर रहे हैं। इतना तय है कि रूस ने प्रतिबंधित संस्थाओं की अपनी सूची से इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान को हटाकर उस पर अहसान किया है।
भारत के इस परम-यथार्थवादी रुख और वास्तव में क्या चल रहा है, शायद इस पर आपको हैरानी हो। आप खुद से पूछ सकते हैं : क्या यह वास्तव में सच है कि भारत एक ऐसी सरकार के साथ दोस्ती करना चाह रहा है जिसने महिलाओं के गाने-बजाने या लड़कियों के कक्षा छह से आगे की स्कूली पढ़ाई पर प्रतिबंध लगा रखा है और अधिकांश अन्य मानवाधिकारों को भी ताक पर रखा हुआ है? तथ्य यह है कि भारत उस किताब के पन्ने पर अमल कर रहा है जिसे पढ़कर बड़ी शक्तियां कूटनीतिक खेल चलाती रही और जब भी दिल किया, अध्याय-दर-अध्याय फाड़ डाले।
इसका सीधा उत्तर यह है कि अंततः भारत दोनों तरह से खेलना सीख रहा है। क्रूर तालिबान शासन का समर्थन इसलिए क्योंकि इससे भारत की उत्तरी सीमा को सुरक्षित करने में मदद मिलती है - भले ही अफगानिस्तान की साझी सीमा रेखा पाकिस्तान के साथ है न कि भारत के साथ - और इसलिए भी कि भारत को उम्मीद है कि भविष्य में पाकिस्तान पर दबाव बनाने को, उसके उत्तरी सीमांत इलाके में भारतीय एजेंटों की कार्रवाइयां चलाने में दोस्ताना तालिबान सरकार मददगार हो सकती है।
जैसे-जैसे साल का अंत हो रहा है, तीसरे कार्यकाल में मोदी सरकार की विदेश नीति में दिलचस्प बदलाव यह हुआ है कि अब इसका न तो कोई खास दोस्त है न ही दुश्मन (निश्चित रूप से पाकिस्तान अपवाद है)। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर झगड़ा खत्म करना और चीनियों के साथ समझौता करने का निर्णय पूरी तरह यह समझकर लिया है कि बहुत ऊंचाई पर सैन्य गतिरोध कायम रखने से कहीं अधिक अहम है द्विपक्षीय व्यापार में असंतुलन के बढ़ते अंतर पर ध्यान केंद्रित करना। कौन जाने, रूसियों ने इसमें मदद की हो।
गत सप्ताह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की मॉस्को यात्रा इस परम-यथार्थवादी विदेश नीति का उतना ही अंग है जितना कि आगामी ट्रम्प प्रशासन के साथ समझौता करने का निर्णय, चाहे किसी भी तरह से हो। पिछली बार जब ट्रंप सत्ता में थे, तो कुछ मतभेद- अमेरिकी चिकन-लैग, चिकित्सा उपकरण और सुपर-महंगी हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर भारत द्वारा उच्च आयात शुल्क लगाने से बने जैसे छोटे-मोटे विवाद - ने रिश्तों में खटास भर दी थी। इस बार, भारत इतने सतही और तुच्छ मुद्दों को शायद संबंधों के आड़े आना देना नहीं चाहेगा।
2024 का सबक यह भी है कि पास में शक्ति होना काफी नहीं है,उस ताकत का प्रयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यूनुस के बांग्लादेश से लेकर हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी के राज कपूर के खानदान से मिलने तक, संदेश सीधा सा है। अगर आप लंबे समय टिके रहेंगे तभी आप गिने जाएंगे।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।