क्रिकेट व खिलाड़ियों की गरिमा में संतुलन जरूरी
कुछ ही दिन हुए हैं जब आईसीसी विश्व टेस्ट मैच प्रतियोगिता का फाइनल मैच भारत के ‘अरबपति क्रिकेटरों’ और ऑस्ट्रेलिया के व्यावसायिक खिलाड़ियों की टीमों के बीच हुआ, ऐसा कहने के लिए क्षमा चाहूंगा। ऑस्ट्रेलियाइयों ने थके और पस्त भारतीयों को बड़े अंतर से धो डाला। जहां भारतीय टीम के अधिकांश खिलाड़ी लगभग तीन महीने चली आईपीएल प्रतियोगिता खेलकर आए थे वहीं ऑस्ट्रेलियाई टीम में दो ही खिलाड़ी थे, जिन्होंने आईपीएल में भाग लिया था।
मैंने लेख का आरंभ अंतिम दृश्यावली से किया जबकि शुरुआत आरंभ से होनी चाहिए थी अर्थात जब 1950 के दशक से मेरी यादें क्रिकेट से जुड़ने लगीं। तब मैं पुणे में स्कूली विद्यार्थी था और क्रिकेट का शौक उन दिनों भी था। उस वक्त टेस्ट मैच और रणजी ट्रॉफी ही क्रिकेट के मुख्य प्रारूप थे। टेस्ट मैच खेलने वाले देशों में इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत, वेस्ट इंडीज़ और पाकिस्तान थे। टेस्ट मैच पांच दिन चलता और बीच में एक दिन आराम का होता। उन वक्त के चोटी के क्रिकेट खिलाड़ी आज की किंवदंतियां हैं और यदि मेरी यादzwj;्दाश्त सही है तो वे सब शौकिया खिलाड़ी ही थे। वे आजीविका के लिए किसी सरकारी या निजी संस्थान में नौकरी किया करते थे। गिनाने को बहुत नाम याद आ रहे हैं लेकिन किसी और दुनिया की यह सूची लंबी हो जाएगी।
यह 1970 का दशक था, जब हमें पहली मर्तबा ऑस्ट्रेलिया के चैनल नाइन के अरबपति मालिक कैरी पैकर द्वारा शुरू किए गए नई किस्म के सीमित ओवरों वाले एक दिवसीय क्रिकेट मैच देखने को मिले और इसकी विश्व सीरीज़ चली। उस वक्त सोच थी कि पूर्ण कालिक बनने को खिलाड़ियों को माकूल पैसा नहीं मिल पा रहा। साथ ही, कलर टीवी के आने से खेलों से जुड़े टेलीविजन कार्यक्रमों में ज्यादा रुचि जगने लगी, जिससे चाहे-अनचाहे खेल, कंपनियों के प्रायोजन और टेलीविजन के प्रति आसक्ति भरे घालमेल ने जन्म लिया। गौरतलब है कि एक भी भारतीय खिलाड़ी ने इस सीरीज़ में भाग नहीं लिया था। यहां मैं सर डोनाल्ड ब्रैडमैन (हालांकि उन्हें खुद को ‘सर’ कहलवाना पसंद नहीं था) के शब्दों को उद्धृत करूं तो : ‘कुछ खासियतों को मैंने बहुत सहेज कर रखा और जिन्हें मैं खेल कौशल के साथ जरूरी समझता हूं। वह यह कि एक खिलाड़ी को अपनी जिंदगी इज्जत, ईमानदारी, साहस और शायद सबसे अहम है, नम्रता, के साथ जीनी चाहिए’। ब्रैडमैन खुद ताजिंदगी इन खूबियों की जिंदा मिसाल रहे। लेकिन आज हमें क्या देखने को मिल रहा है?
जैसे-जैसे तकनीक विकसित होती गईndash; पिछले कुछ दशकों में तो इसने कुलांचें भरी हैंndash; सबसे बड़ा असर संचार और संप्रेषण के माध्यमों पर पड़ा है। यह सफर अखबारों से शुरू होकर रेडियो-टेलीविज़न और वर्तमान में मोबाइल फोन जैसे माध्यम तक आया है, जो अपनी तकनीकी क्षमता की बदौलत हमें वास्तविक समय में खबरें, घटनाएं, वीडियो, फिल्में, पॉडकास्ट इत्यादि की सुविधा मुहैया करवा रहा है। मनोरंजन उद्योग भी कई गुणा बढ़ा है और लोगों का ध्यान खींचने में चैनलों, एप्लीकेशंस, वेबसाइटों को कड़ी टक्कर दे रहा है। व्यू, लाइक, फॉलोअर्स इत्यादि नई शब्दावली ने जन्म लिया है। बेशक ग्राफिक्स अधिक कल्पनाशील और दिलकश हो रहे हैं, लेकिन नतीजे में दर्शक को बांधे रखने की अवधि न्यूनतम होती जा रही है – क्योंकि उसे तो तुरत-फुरत आनंद चाहिए। पांच दिवसीय क्रिकेट के दिन लद गए या कहें तो 50 ओवर वाला एक दिवसीय मैच भी इतिहास हो चला है। आज तो टी-20 का युग है। कॉर्पोरेट्स के अलावा मीडिया और विज्ञापन बनाने वाले इसे हाथों-हाथ ले रहे हैं। सबसे अहम, दर्शक भी तेज गति के और नस-नस में उत्तेजना भरने वाले इस तमाशे के मुरीद हैं ndash; रोमन ग्लैडिएटर्स की भांति आज के क्रिकेटर चौकों-छक्कों से लोगों को रोमांच से भर देते हैं। इस सब में सवाल पैदा होता हैndash; क्या यह क्रिकेट है?
बीसीसीआई दिनोदिन अमीर होती चली गई और आईपीएल की बोली में दुनियाभर के क्रिकेटर अपनी कीमत लगवा रहे हैं। राजनेताओं द्वारा संचालित बीसीसीआई विश्व में सबसे ज्यादा धनी क्रिकेट बोर्ड है और क्रिकेटर और खेल आयोजकों पर खुलकर खर्च करने की हैसियत रखता है। जैसे प्राचीन काल में कभी दासों की मंडी लगा करती थी, आज क्रिकेट खिलाड़ियों की बोली लगती है और बोलीदाता फ्रेंचाइज़ी मालिक हैं। इस सब में, किसी की व्यक्तिगत या क्रिकेट की गरिमा कहां रह गई? जब आप किसी फ्रेंचाइज़ी के लिए वस्तु बन गए तो वह जैसे चाहे इस्तेमल करेगा या नहीं? आईपीएल बोली से अपना नाम वापस लेने के बाद ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज़ मिचेल स्टार्क ने गार्जियन अखबार को कहा : ‘लेकिन यह करके मैंने खुद को ऐसी स्थिति में रखना चाहा है ताकि ऑस्ट्रेलिया के लिए अपना सर्वोत्तम क्रिकेट दे सकूं… मुझे इसका कोई अफसोस नहीं, पैसा आता-जाता रहेगा, लेकिन जो मौका मिला (राष्ट्रीय टीम में), उसके लिए बहुत शुक्रगुजार हूं। पिछले 100 सालों के टेस्ट क्रिकेट इतिहास में 500 से कम खिलाड़ी हैं, जिन्हें ऑस्ट्रेलिया की टीम में खेलने का मौका मिला है। इसका हिस्सा बनना अपने आप में बहुत खास है।’
धनी बीसीसीआई चाहती तो सभी राज्यों में क्रिकेट एकेडमियां शुरू करती, जहां पर उभरते युवा खिलाड़ियों में कौशल और ऐसे मूल्य भरे जाते जो किसी को न केवल महान खिलाड़ी बल्कि विनम्र इंसान बनाने लिए जरूरी हैं। केवल क्रिकेट ही नहीं, धन की कमी से जूझने वाले तमाम खेल संघों की मदद होनी चाहिये। उदाहरणार्थ, हॉकी संघ, जहां पुनरुद्धार चल रहा है या फिर एथलेटिक्स में, जहां दर्जनों नए ‘नीरज चोपड़ा’ (जेव्लिन थ्रोअर) बनने की संभावनाएं मदद की बाट जोह रही हैं।
ब्रांड्स प्रोमोशन से लेकर विज्ञापनों में छाये क्रिकेटर आज के नए मॉडल हैं। इस मामले में वे बॉलीवुड सितारों को पछाड़ रहे हैंndash; हर चीज बेचकर। दरअसल, बॉलीवुड और क्रिकेट की दुनिया एक-दूसरे में हिल-मिल रहे हैं जिससे दोनों के बीच वैवाहिक संबंधों का युग शुरू हो गया है। आज चोटी के क्रिकेटरों की आमदनी सैकड़ों करोड़ रुपये में है और एक की कमाई तो 1000 करोड़ रुपये से अधिक बताई जा रही है। इस खेल में आगे शामिल हुए बुकीndash; वैसे भी जहां बहुत ज्यादा पैसे का प्रवाह हो, वहां यह कैसे न होंगे? आम आदमी हो या पैसे वाला, जिसे देखो वह मैचों पर धन लगा रहा है… मामला हर ओवर का हो या गेंद-दर-गेंद का, सट्टा बाजार में बड़े दांव लगते हैं। वे शौकिया खिलाड़ी जो खेल को प्यार की वजह से खेलते थे, उस संस्कृति के नहीं थे जहां पर पैसा बनाना ही एकमात्र प्रयोजन हो। निश्चय ही गिरावट आयी है। क्या हम खेल और खिलाड़ी की गरिमा के बीच संतुलन बनाए रखने वाला तरीका नहीं ढूंढ़ सकते? देश के दूर-दराज से उठकर आये खिलाड़ियों को सफल और मशहूर होते देखना प्रेरणास्पद होगा। उन्हें न केवल नाम कमाने की चाह है बल्कि अपने परिवार को ऊपर भी उठाना है। परंतु क्या बोली में किसी उच्चतम बोलीदाता के हाथ बिकना और कॉर्पोरेट्स द्वारा खेल का दोहन करके मुनाफा कमाना ही एकमात्र रास्ता बचा है? मैं सोचता हूं कि लाला अमरनाथ, विजय मर्चेंट, विजय हजारे, वीनू मांकड़ जैसे पुराने खिलाड़ी यदि आज होते तो इस पर क्या कहते? पुनः डॉन ब्रैडमैन के शब्द उधार लूं तो : ‘मेरी दुनिया कविता पढ़ने और क्रिकेट देखने का योग है, और जैसा कि बहुत से विचारक भी मानेंगे, यह दोनों जुदा नहीं हैं’। बिना शक, यहां उनका प्रयोजन टेस्ट क्रिकेट से था।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल रहे हैं।