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बेल, फिर भी जेल

08:10 AM Aug 28, 2024 IST

देश में लंबे समय से यह मुद्दा चर्चा में रहा है कि आखिर क्यों जमानत मिलने के बावजूद हजारों विचाराधीन कैदी जेलों में अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि देश की जेलें जरूरत से ज्यादा कैदियों से भरी हुई हैं। जिसमें गरीब व वंचित समाज के लोगों की संख्या ही अधिक है। ऐसे गरीब लोगों की संख्या काफी है, जिनकी कोई जमानत लेने वाला तक नहीं होता। हम न भूलें कि जेलों का मकसद परिस्थितिवश अपराध की गलियों में फिसले लोगों के जीवन में सुधार लाना होता है, सिर्फ दंडित करना ही नहीं। खूंखार व पेशेवर अपराधियों को छोड़ दें, तो विषम हालातों में अपराधों की दुनिया में उतरे लोगों का हृदय परिवर्तन करके एक जिम्मेदार नागरिक बनाना भी जेलों में रखने का मकसद होता है। यही वजह है कि जमानत मिलने के बावजूद जेल के सीखचों के पीछे बंदी जीवन जीने वाले विचाराधीन कैदियों की रिहाई के प्रश्न पर गाहे-बगाहे चिंता व्यक्त की जाती रही है। निस्संदेह, हमारी जेलें कैदियों से खचाखच भरी हैं। उनमें कैदियों की संख्या निर्धारित संख्या से बहुत ज्यादा ही है। एक अनुमान के अनुसार करीब पांच हजार विचाराधीन कैदी जमानत मिलने के बावजूद रिहाई की प्रतीक्षा में हैं। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्देश जारी किए थे। जिसमें अदालतों से बांड और जमानत देने की शर्तों को संशोधित करने पर विचार करने को कहा गया था। शीर्ष अदालत ने इस दिशा में संकेत दिया था कि ऐसे कैदियों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों पर एक रिपोर्ट तैयार की जाए। जिससे विचाराधीन कैदियों की रिहाई की शर्तों में ढील दी जा सके। निस्संदेह, बदलते वक्त के साथ एक लोकतांत्रिक देश में न्यायिक व्यवस्था का चेहरा मानवीय बनाने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। वैसे भी न्याय की अवधारणा रही है कि निर्दोष व्यक्ति को किसी भी हालात में अन्याय से बचाया जाना प्राथमिक दायित्व होना चाहिए।
इसी आलोक में शीर्ष अदालत ने एक बार फिर न्यायाधीशों से कहा है कि वे जीवन की कड़वी हकीकत से आंख नहीं मूंद सकते। इसका अवलोकन स्थिति को अधिक स्पष्ट कर सकता है। अदालत का मानना रहा है कि जमानत देना और उसके बाद अत्यधिक शर्तें लगा देना, कुछ ऐसा ही है कि दाहिने हाथ से किसी को कुछ दिया गया, बाएं हाथ से छीन लिया गया। अदालत ने मानवीय दृष्टिकोण को संस्थागत बनाने की जरूरत पर बल दिया है। दरअसल, जमानत एक नियम है और जमानत से इनकार एक अपवाद है। इस बात को शीर्ष अदालत ने हाल के फैसलों में जोरदार तरीके से दोहराया है। यह माना गया कि यदि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये कोई मामला बनता है तो जमानत दी जानी चाहिए। अब चाहे भले ही किसी व्यक्ति का अपराध गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए के तहत ही क्यों न हो। दरअसल, आतंकी कृत्यों को दंडित करने वाले कानूनों को अकसर कठोर कर दिया जाता है। यही वजह कि त्वरित सुनवाई और स्वतंत्रता के हक को पवित्र अधिकार बताते हुए शीर्ष अदालत ने यह कहने से कोई परहेज नहीं किया कि निचली अदालतें और उच्च न्यायालय जमानत देने के मामलों में सुरक्षित दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करते नजर आते हैं। शीर्ष अदालत ने इस बात को लेकर गंभीर चिंता जताई कि देश की न्याय प्रणाली हर स्तर पर देरी से जूझ रही है। यदि ‘तारीख पे तारीख’ एक पुरानी खामी है तो जमानत मिलने के बाद विचाराधीन कैदियों के जेलों में बंद रहने का पहलू भी यही है। अदालत का मानना रहा है कि देश में जागरूकता और कानूनी साक्षरता की कमी भी इस संकट को बढ़ाने का ही काम कर रही है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत का दृष्टिकोण न केवल प्रगतिशील व न्यायपूर्ण है बल्कि देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा और नागरिकों को जागरूक करने के गंभीर मुद्दे की ओर भी ध्यान दिलाता है। शीर्ष अदालत की हालिया संवेदनशील पहल से देश में करोड़ों लंबित मुकदमों के शीघ्र निस्तारण और पीढ़ी-दर-पीढ़ी न्याय की आस में बैठे लोगों को न्याय दिलाने की दिशा में गंभीर पहल की उम्मीद भी जगती है।

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