बादलों का अल्टीमेटम, गेहूं का पोस्टमार्टम
यहां बादल अपने बरसने की सूचना सार्वजनिक करे, इससे पूर्व ही क्रांतिकारी खबरिया चैनलों ने अनुमान के घोड़े घने काले बादलों में दौड़ाना प्रारम्भ कर दिए थे। किसी ने कहा कि मानसून जल्दी आएगा, तो किसी ने मानसून के देरी से आने की घोषणा कर डाली, अब मानसून आम सभा का श्रोता है, जो जल्दी आ जाए या फिर मुख्य वक्ता है, जो देरी से आए? बादलों ने बरसकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया ही था और खाद्य विभाग के अधिकारी के चैंबर में गाना बज उठा-‘बरसात के दिन आये, मुलाकात के दिन आये।’ पिछली बरसात में उनके विभाग के एक अधिकारी ने इतनी तन्मयता के साथ मुलाकात की थी कि आयकर विभाग वालों को मशीनों से नोट गिनने पड़े थे। शोध बताता है कि बरसात की सूचना से खाद्य विभाग के अधिकारियों की जेबों को प्राप्त खुशी की मात्रा किसान के चेहरे पर पाई जाने वाली खुशी की तुलना में चार गुना अधिक होती है। कृषक इसलिए खुश हैं कि अब वह फसल उगाएंगे, अधिकारी इसलिए खुश हैं कि वे जिन्दा फसल को मृतक घोषित कर उसका स्वाद चटकायेंगे।
महान कविवर यदि आज होते तो शायद कुछ इसी तरह कविता की रचना करते, ‘चाह नहीं मैं बोरों में भरकर भंडार गृह में रखा जाऊं, चाह नहीं मैं भूखी अंतड़ियों को ललचाऊं, मुझे काट लेना कृषक, अधिकारी खुले मैदान में देंगे फेंक! जहां से सरकार को नुकसान के आंकड़े थमाये जाएंगे अनेक!’
आनन-फानन में ऊपर से आदेश आया कि खुले में जितना भी अनाज है उसे सुरक्षित कर लिया जाए। दरअसल यह आदेश नहीं बल्कि घोषणा थी कि सिचुएशन की एडवांटेज लेने के लिए तैयार रहें। न्यूटन के तीसरे नियम को कार्यशैली में उतार कर पत्र की प्रतिक्रिया में सुरक्षित रखा अनाज भी खुले में रख दिया गया। इतना ही नहीं, सभी बोरों को खोल दिया गया, अधिकारियों की मानें तो गेहूं ने गर्मी लगने की शिकायत की थी।
अनाज को खुले में रखा देख आसमान से बरसने के पहले बारिश को भी भूखे पेटों पर रहम आ गया इसलिए बरसने के पहले बिजली गरजाई गई। बादलों का भ्रम था कि बिजली की आवाज सुनकर अनाज के रखवाले जाग जायेंगे। पर आज तक किसी कसाई ने बकरी को हलाल होने से बचाया है? भूखे पेटों ने तो भूख की आवाज सुननी ही बंद कर दी थी, बिजली गरजे या आसमान फट जाए उन्हें कहां फर्क पड़ने वाला था और जो भरे पेट थे, उनकी क्षुधा अनंत थी इसलिए वे मूकदर्शक बने रहे। अंततः बादलों को व्यवस्था के इस स्वरूप पर गुस्सा आ ही गया, वे जोर से गरजे और फिर बरस गए।
बेईमान व्यवस्था जिन्दा गेहूं की खुद हत्या करती है फिर खुद ही पोस्टमार्टम भी कर देती है। आंकड़े जुटाए जाते हैं, जहां 1000 बोरे भीगे, वहां 2000 संख्या बताई जाती है। आम आदमी गेहूं को खाकर जिन्दा है लेकिन यह व्यवस्था गेहूं को मारकर खाने में विश्वास रखती है।