इंसानियत का पुरस्कार
रेखा मोहन
‘अंजलि, सुनती हो, जल्दी से नाश्ता दो, मुझे जल्दी जाना है।’ दीपक अपने जूते पहनते बोला। अंजलि गुस्से में चिल्लाई, ‘आज फिर साक्षात्कार। अभी और कितने साक्षात्कार दोगे। पैर खराब है और इस कारण नौकरी तो मिलनी नहीं, यूं ही दफ्तरों के चक्कर लगाते रहते हो। अगर मैं बच्चों को ट्यूशन न पढ़ाऊं तो तुम्हारी थोड़ी-सी पेंशन में कैसे गुज़ारा होगा।’ उनका पांच साल का बेटा मां-पिता के झगड़े से बहुत दुखी हो सोचता, ‘पापा युद्ध में टांग न खो बैठते तो नौकरी तो बनी रहती पर देश की सेवा तो सबका धर्म है। पर ममा को क्यों समझ नहीं आती।’
जब दीपक साक्षात्कार देने जा रहा तो देखा कि एक औरत ट्रक से टकरा गई और खून से लहूलुहान हो गई। ट्रक वाला भाग गया। सुबह का वक्त था और सभी जल्दी में थे। दीपक भी आगे देख निकल गया पर उसके फौजी मन को सुकून न मिला। दीपक वापस पलटा और औरत को लोगों की मदद से ऑटो में डाल अस्पताल भर्ती करवा इलाज शुरू करवा आया। दीपक सोच रहा था कि नौकरी तो नहीं मिलेगी पर उसके दिल में सुकून तो था कि किसी परिवार के सदस्य को बचाया।
दीपक सोचने लगा, ‘अब क्या करूं, अंजलि से रोज़-रोज़ के ताने भी सुनना क्या ठीक है। दीपक दुखी हो ऑफिस पहुंचा तो देखा कि उम्मीदवारों की काफी भीड़ है। उसने पास खड़े लड़के से पूछा, ‘आप सब कैसे यहां खड़े हो?’ उसने जवाब दिया, ‘साक्षात्कार चल रहा है। देरी से शुरू हुआ है।’ दीपक ने मन में सोचा, ‘आज का दिन शायद शुभ है।’ जब उसको अंदर कक्ष में बुलाया गया तो वहां बोर्ड में बैठे एक व्यक्ति ने उसके कपड़ों पर खून के दाग लगे देखे, और सब कुछ पूछा। इंटरव्यू बोर्ड के ही एक मैम्बर ने दीपक के खून लगे कपड़ों को देख बाहर जाने को बोला। उसी समय एक मोबाइल वाला व्यक्ति इंटरव्यू रूम में अंदर आया और बोला, ‘दीपक ही इस नौकरी के लिए उपयुक्त उम्मीदवार है। इसने मेरी चोटिल पत्नी को अस्पताल छोड़ मानवता का फ़र्ज़ निभाया।’