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शायरी में मौजूद ‘आवारा रूह’

06:40 AM Oct 22, 2023 IST
शायरी में मौजूद ‘आवारा रूह’
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शशि सिंघल

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हरफनमौला-हरदिल अज़ीज़ हरजीत की जहां-तहां बिखरी शेर-ओ-शायरी को एक माला में गूंथकर किताब रूपी मंच पर लाने का प्रयास तेज़ी ग्रोवर ने किया है। हिन्दी के लोकप्रिय ग़ज़लकार व शायर हरजीत की काव्य गोष्ठियों में शिरकत आज भी लोगों के ज़ेहन में दर्ज है।
तेज़ी ग्रोवर द्वारा संपादित ‘मुझसे फिर मिल’ में बरसों पहले हरजीत के स्वप्रकाशित शेर-ओ-शायरी संग्रह ‘ये हरे पेड़ हैं’ और ‘एक पुल’ के अलावा अप्रकाशित संग्रह ‘खेल’ तथा तथा इधर-उधर दोस्तों की दराजों में पड़े कार्डों/ खतों में लिखे फुटकर अशआ’र हैं। संग्रह की शुरुआत में तेज़ी ग्रोवर ने अपनी ‘ख़्याल गाथा’ के माध्यम से हरजीत से जुड़ी बातों व संस्मरणों को जीते हुए उन्हें याद किया है :
‘ख़ुदा की शक्ल में वो हमें मिल रहा है अब/ ख़ुद को हवा बनाके उसे पा रहे है हम।’
हरजीत की प्रकाशित पुस्तक ‘ये हरे पेड़ हैं’ से पचास ग़ज़लें हैं जबकि दूसरी पुस्तक ‘एक पुल’ सें पैंसठ से अधिक ग़ज़लें हैं। वहीं हरजीत की अप्रकाशित पुस्तक ‘खेल’ से चौबीस और दस ग़ज़लें वो हैं जो दोस्तों के पिटारे से ली गई हैं। दरअसल हरजीत की आदत थी कि कुछ न कुछ लिखकर दोस्तों को भेजते रहते थे।
ज्ञानप्रकाश विवेक का आलेख ‘कल मुझे बादलों में मिल’ हरजीत की ज़िंदगानी कहता एक चिट्ठा है। तरलता, तत्परता, बेफ़िक्री उसकी ज़िंदगी का हिस्सा थे। ज़िंदगी हो या दोस्ती उसके रिश्ते हर कहीं शायराना थे। ज़िंदगी से संवाद व उल्लास उनकी ग़ज़लों से साफ़ दिखता है :-
‘दूब को चाहिए हरा मौसम/ और मुझको खुला-खुला मौसम’
तथा
‘एक दिन के लिये समंदर हूं/ कल मुझे बादलों में मिलना तुम’
अगले आलेख ‘हरजीत और उसका ‘हरजीत’ बनना’ में जगजीत निशात ने लिखा है कि हरजीत मूलतः शिल्पी था और अपनी बात को वह चतुराई से नहीं संजीदगी से कहता था। उसने ईमानदारी से अपना धड़कता हुआ हृदय जिया और वही शब्दों में संजोया।
अंत में सुल्तान अहमद, राजेश सकलानी, नवीन कुमार नैथानी, शेखर पाठक, अरविंद शर्मा आदि कुछेक और साहित्य-प्रेमियों व हरजीत के अजीज मित्रों के उद्धरणों को शामिल किया गया है। कहा गया है कि भले ही हरजीत 1999 में दुनिया को छोड़ गये मगर उनकी शायरी में उस आवारा रूह से बखूबी मिला जा सकता है।
पुस्तक : मुझसे फिर मिल संपादन : तेजी ग्रोवर प्रकाशक : संभावना प्रकाशन, हापुड़ पृष्ठ : 238 मूल्य : रु. 350.

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