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गांधी परिवार का वर्चस्व स्वीकारने से परहेज

07:50 AM Feb 05, 2024 IST
गांधी परिवार का वर्चस्व स्वीकारने से परहेज
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राजेश रामचंद्रन
लंबे अर्से से नेहरू-गांधी परिवार और सत्ता सुख में भागीदारी पाने के चाहवान कांग्रेसजनों के बीच एक तरह का समझौता रहा है। परिवार अपने खेमेदार और अनुचरों को ताकतवर पद देने की गारंटी देता है, निम्नतम स्तर पर निगम पार्षद से लेकर शीर्षस्थ स्तर पर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करने तक। बदले में, कांग्रेस का प्रथम परिवार उनसे पूर्ण वफादारी और समूचे कांग्रेस राजनीतिक उद्यम पर अपने लिए निर्विवाद मिल्कियत चाहता है। यहां, गांधियों का रुतबा इहलोक के ‘शेष एक समान में प्रथम’ वाला न होकर, इतिहास में राजा को दिव्य पुरुष मानकर उसके समक्ष करबद्ध रहने जैसा है।
यह समझौता प्रथम प्रधानमंत्री के साथ शुरू हुआ था, जोकि स्वाधीनता संग्राम में अपनी भूमिका के कारण वैध वसीयतदार और राष्ट्र-निर्माण मिशन के सबसे कद्दावर झंडाबरदार बनकर उभरे थे। नेहरू के बरक्स उनकी पुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस से दो बार निष्कासित किया गया, दोनों मर्तबा उन्होंने अपनी पार्टी बना ली थी और लंबे समय तक सफलता पाने वाला बनाया। अतएव, इंदिरा गांधी के साथ ताकत का सुख चाहने वाले कांग्रेस कार्यकर्ताओं का समझौता निजी कारणों से रहा और जल्द ही यह समझौता पारिवारिक विरासत में तब्दील हो गया। राजीव और सोनिया के बाद, अब उनके बच्चे बतौर उत्तराधिकारी यह समझौता जारी रखने की कोशिश में लगे हुए हैं, बिना यह अहसास किए कि समझौते के हालात बदल चुके हैं और शामिल पक्षों के भी।
सर्वप्रथम, राहुल गांधी की कांग्रेस अपने बूते पर एक निगम पार्षद तक को जितवाने की गारंटी नहीं दे सकती, लोकसभा में 272 सीटें पाना तो दूर। वास्तव में, हो सकता है राहुल गांधी को चुनावी जीत के लिए पारिवारिक गढ़ कही जाने वाली अमेठी सीट छोड़कर, केरल के मुस्लिम बहुल वायनाड़ लोकसभा क्षेत्र में पुनः शरण लेनी पड़े। हिमाचल प्रदेश में चर्चा चली हुई है कि शायद सूबे के कोटे से राज्यसभा में सोनिया या प्रियंका को भेजा जाए, यह फिर से, रायबरेली सीट परिवार की पकड़ से फिसलने के भय का प्रतीक है। साल 2019 में सोनिया गांधी की जीत का अंतर 2014 के चुनाव से आधा रह गया था।
इसलिए, प्रथम परिवार अपनी अजेयता और पारलौकिक आभामंडल गंवा बैठा है। अब तो यह मात्र एक निराला, मशहूर राजनीतिक परिवार है, जो चार पीढ़ियों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता में बना रहा (यदि मोतीलाल नेहरू को गिन लें तो देश की राजनीति में शीर्षस्थ रही पांचवीं पीढ़ी), परंतु वर्तमान में वह है जो निजी करिश्मे से न तो खुद का रिवायती चुनावी क्षेत्र जीत पाए, न ही राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को जीत दिला सके। समझौते का आधार तत्व बदल चुका है। तथापि, गठबंधन साझीदारों से गांधी इस तरह बर्ताव करना चाहते हैं जैसा कि वे अपने पारिवारिक कृपापात्रों के साथ करते आए हैं। गांधियों के नामज़द मल्लिकार्जुन खड़गे को जो भाए, जरूरी नहीं वह नीतीश कुमार या ममता बनर्जी या एचडी देवेगौड़ा को भी सुहाए।
नीतीश कुमार का एक बार फिर गुलाटी मारकर इंडिया नामक गठबंधन छोड़ना और भाजपा-नीत एनडीए में पुनः शामिल होना नवीनतम सबूत है कि राहुल-कांग्रेसजन समझौते सरीखी स्थिति वर्तमान और भावी गठबंधन नेताओं को कबूल नहीं है। उनमें हरेक ने अपनी हैसियत कांग्रेस से राजनीतिक लड़ाई लड़कर पाई है और अपने लिए अलग जगह बनाई है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी को लेकर बहुत सी कहानियां हैं कि कैसे उन्होंने निष्ठुरता से ममता को पार्टी से बाहर किया और गांधियों ने सुनवाई तक से इनकार कर दिया। अतएव यह उम्मीद करना अनाड़ीपन होगा कि ममता गांधियों को ताकतवर बनाने वाले या उनके नामज़द को प्रधानमंत्री बनाने वाले किसी समझौते का सम्मान करेंगी, बशर्ते नामित स्वयं न हों।
यही बात नीतीश और देवेगौड़ा पर लागू होती है। नीतीश कुमार जयप्रकाश नारायण द्वारा 1970 में चलाई गयी इंदिरा-विरोधी लहर का उत्पाद हैं तो 1997 में देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री रहते कांग्रेस ने उनकी पीठ में छुरा घोंपा और सरकार गिरा दी थी। यहां तक कि सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी के राहुल के साथ निजी तौर पर अच्छे संबंधों के बावजूद, केरल में उनका दल अपने वजूद के लिए कांग्रेस के साथ राजनीतिक संग्राम में आमने-सामने रहेगा। केरल पुलिस बारम्बार कांग्रेस कार्यकर्ताओं की निर्ममतापूर्वक पिटाई करती है और बदले में वे सीपीआई (एम) पर मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन को सत्ता में बनाए रखने के लिए भाजपा से मदद लेने का आरोप लगाते हैं। यहां मज़ेदार है कि विजयन के विरुद्ध बहुत सारे भ्रष्टाचार के मामले होने के बावजूद केंद्रीय एजेंसियां उनके प्रति काफी नर्म रवैया अपनाए हुए हैं।
अतएव वास्तव में ऐसी कोई असल वजह नहीं है कि वर्तमान या भावी गठबंधन के साझीदार गांधी परिवार के प्रति करबद्धता वाला सम्मान रखेंगे। लोकसभा चुनाव की संध्या पर बनी यह वास्तव में एक अनोखी राजनीतिक स्थिति है, जहां हर कोई अपने लिए लड़ रहा है तो भाजपा उन सबके खिलाफ। यहां हर किसी की इच्छा लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों के लिए अधिक से अधिक टिकट पाना है, निशाना प्रधानमंत्री पद है। यदि नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाना तो इंडिया गठबंधन की उनके लिए कोई उपयोगिता नहीं, और अगर ममता को अपने यहां कांग्रेस और सीपीआई(एम) को कीमती सीटें देनी पड़ गईं तब उनकी तृणमूल कांग्रेस के लिए तो यह गठजोड़ उलटा नुकसानदायक हुआ। अगर बंगाल में राहुल गांधी की कार पर पत्थरबाजी हुई है, तो ये तृणमूल द्वारा अपनी जमीन पर कब्जा रोकने का सुरक्षात्मक संकेत है। चुनाव संध्या पर कांग्रेस का उद्देश्य गठबंधन को मजबूत बनाने की बजाय अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा से केवल राहुल की छवि चमकाना है। उदाहरणार्थ, यदि कांग्रेस केरल में जीत जाती है, जैसी कि उम्मीद है, तो राष्ट्रीय राजनीति में सीपीआई (एम) का होना-न होना एक बराबर होगा।
लेकिन कांग्रेस अपने साझेदारों के राजनीतिक वजूद संबंधी असमंजसों को पहचान नहीं रही या फिर गठबंधन-निर्माता की भूमिका निभाने से इनकार कर रही है। इसका सारा प्रयास राहुल को प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर पेश करने में लगा हुआ है, तिस पर रवैया और घमंड वही सत्ताधीशों वाला। यदि भाजपा से चुनावी संग्राम में ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने के लिए यह अपने गठबंधन साझेदारों के लिए माकूल जगह नहीं छोड़ेगी तो बाद में मौका हाथ से गंवाने का पछतावा ही बाकी रहने वाला है। जिन राज्यों में कांग्रेस कमज़ोर है वहां भी इसे जीत के लिए अपने साझेदारों की पीठ पर सवार होना गवारा नहीं। जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ या फिर राजनीतिक तौर से द्वि-ध्रुवीय सूबों में समाजवादी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस या आम आदमी पार्टी अपने लिए सीटें छोड़ने को नहीं कह सकते, वैसे ही बंगाल में कांग्रेस को ममता की सुनने की जरूरत है।
जहां तक नीतीश कुमार पर मौकापरस्ती का आरोप लगाने की बात है, तो चरण सिंह और चंद्रशेखर से लेकर देवेगौड़ा और आईके गुज़राल जैसे अनेकानेक नाम हैं, जिनके साथ कांग्रेस ने दुरभिसंधि की और फिर पश्चिम बंगाल में 2011 के विधान सभा चुनाव का उदाहरण भी है, जब कांग्रेस ने सीपीआई (एम) का वर्चस्व खत्म करने को टीएमसी के साथ हाथ मिलाया था। इसलिए अपने साझीदारों को घरेलू बंधक न मानकर उन्हें बराबर का हिस्सेदार बनाने के लिए कांग्रेस को अपनी गठबंधन-रणनीति पर गंभीरता से पुनर्विचार करने की जरूरत है।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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