अब भी दर्शकों की पसंद रियलिस्टिक सिनेमा
शान्तिस्वरूप त्रिपाठी
ऑस्कर के नॉमिनेशन में दो हजार फिल्मों में से सेमी फाइनल में पहुंची पुणे फिल्म संस्थान के स्टूडेंट रंजन कुमार निर्देशित फिल्म ‘चंपारण मटन’ में हीरोइन की मुख्य भूमिका निभाने वाली अदाकारा फलक खान भी सुर्खियों में हैं। फलक खान ने इस फिल्म में चंदन दास के साथ मुख्य भूमिका निभायी है। ‘चंपारण मटन’,फलक खान की पहली फिल्म हो ऐसा भी नहीं है।
आप अपनी अब तक की यात्रा के बारे में बताएं?
हम मुजफ्फरपुर,बिहार के रहने वाले हैं। मैंने मुजफ्फरपुर,एमआईटी से बीटेक की डिग्री हासिल की व मुंबई यूनिवर्सिटी से एमबीए किया। इन दिनों पीएचडी कर रही हूं। पर मुझे बचपन से ही अभिनय का शौक रहा है। साल 2016 में मैं मुंबई एमबीए करने के बहाने आयी थी। पढ़ाई के साथ ही मैंने अभिनय के लिए संघर्ष करना शुरू किया। मैंने कुछ सीरियल व कुछ फिल्में की। दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल ‘सौ भाइयों की लाड़ली’, लघु फिल्म ‘सराय’,फीचर फिल्म ‘वनरक्षक’,फिल्म ‘एडॉप्टिंग माइंड’,वेब सीरीज ‘वास्ता’ व ‘सुंदरकांड’ सहित काफी काम किया है। अब मैंने रंजन कुमार निर्देशित लघु फिल्म ‘चंपारण मटन’ में मुख्य भूमिका निभायी है।
क्या आपने अभिनय की ट्रेनिंग ली है?
जी नहीं..मैंने कालेज के दिनों में कुछ नाटक किए थे। इसके अलावा कुछ वर्कशॉप किए। पर मुझे लगता है मेरे अंदर अभिनय का गुण ईश्वर प्रदत्त है। काम करते हुए भी मैंने बहुत कुछ सीखा। एमबीए करते हुए अपने कालेज के दोस्तों की एक्सपेरिमेंटल फिल्मों में भी मैं अभिनय कर लेती थी।
क्या आपको संघर्ष नहीं करना पड़ा?
बहुत संघर्ष रहा। मैं एमबीए की पढ़ाई के साथ ही ऑडिशन देने लगी थी। मुझे एक सीरियल का पायलट एपिसोड करने का मौका मिला। लेकिन वह पायलट एपिसोड रिजेक्ट हो गया। तब मेरा संघर्ष पुनः शुरू हो गया। कई बड़ी फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार भी निभाए। पर इस तरह का काम करके भी मैंने बहुत कुछ सीखा। काफी काम कर लिया। काफी सफलता मिल गयी, पर संघर्ष अभी भी है।
‘चंपारण मटन’ का चयन ऑस्कर अवार्ड के लिए सेमी फाइनल में होने की खबर मिली तो आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?
मैं मुंबई से अपने घर मुजफ्फरपुर गयी हुई थी। एक दिन रात के दो बजे फिल्म के निर्देशक रंजन कुमार का फोन आया। सुबह जब मैंने फोन देखा व रंजन जी को फोन लगाया,तब उन्होंने बताया कि फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भेजी है। उस दिन तो मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। जब ‘चंपारण मटन’ ऑस्कर अवार्ड के सेमी फाइनल में पहुंची,तो मुझसे पहले ही हर किसी तक खबर पहुंच चुकी थी। इसी के साथ मेरा यकीन इस बात में बढ़ गया था कि हर इंसान को सपने देखने चाहिए, क्योंकि सपने साकार होते हैं। देर भले ही हो जाए। अभी ऑस्कर अवार्ड का ऐलान होना बाकी है।
फिल्म ‘चंपारण मटन’ के बारे में क्या बताना चाहेंगी?
-यह एक गरीब दलित निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। कहानी कोविड व लॉक डाउन के तुरंत बाद की है। दिल्ली में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाला युवक बेरोजगार हो जाने पर पैदल ही अपनी पत्नी संग अपने गांव चंपारण लौट आता है। वह हार नहीं मानता। वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है। वह पत्नी की हर छोटी जरूरत को पूरा करने के लिए संघर्ष करता रहता है। इस कारण इस फिल्म में उसकी अपनी जद्दोजहद की कहानी है। इसमें जातिगत भेदभाव भी है। यह फिल्म इस बात पर रोशनी डालती है कि बिहार का कोई भी इंसान कभी हार नहीं मानता।
बिहार के ज्यादातर गांवों में कार्तिक माह में मटन नहीं खाया जाता। कार्तिक माह शुरू होने में सिर्फ दो दिन बाकी हैं। पति-पत्नी सोचते हैं कि वह भी कार्तिक माह शुरू होने से पहले मटन खा लें। घर में पैसा नहीं है। उधर गांव के मुखिया के यहां मटन की दावत है, पर दलित होने के नाते उन्हें नहीं बुलाया गया है। ऐसे में पति किस तरह से इंतजाम करते हैं। इसमें यह हास्य-व्यंग्य भी है कि आप पैसा उधार दे देते हो,पर जब आप उधार मांगने जाओ,तो लगता है जैसे कोई अपराध कर दिया। अंत में पत्नी के लिए पति मटन ले ही आता है। फिल्म में सेलिब्रेशन के लिए मटन को मेटाफर की तरह उपयोग किया गया है।
फिल्म में किस तरह के सामाजिक मुद्दे या संदेश हैं?
फिल्म का मकसद लोगों का मनोरंजन करना है। पर छोटे-छोटे संदेश भी हैं। जातिगत भेदभाव व समाज की गलत व कुरीति वाली सोच पर भी फिल्म में रोशनी डाली गयी है।
आपको नहीं लगता कि कोविड के बाद अब दर्शक सिनेमा में मनोरंजन देखना चाहता है,दुख-दर्द नहीं?
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। मेरी राय में आज भी दर्शकों का एक बड़ा वर्ग रियलिस्टिक सिनेमा और जड़ों से जुड़ा हुआ सिनेमा देखना पसंद करता है। लोग यह जानना चाहते हैं कि उनके अपने देश में आम इंसान किस तरह जिंदगी जी रहा है।