ईश्वर का पुत्र मानकर ही करें आकांक्षा
डॉ. मधुसूदन शर्मा
काशी के महान योगी संत श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय से दीक्षा लेने वाले भगवतीचरण घोष व प्रभा के यहां 5 जनवरी, सन् 1893 को गोरखपुर की पावन भूमि पर जन्मे एक दिव्य बालक का नाम मुकुंद रखा गया। मुकुंद नाम भगवान विष्णु व भगवान कृष्ण का भी है। शैशव अवस्था में ही उनमें असामान्य चेतना एवं आध्यात्मिक अनुभूति दिखने लगी। बालक अक्सर ही एकांत स्थान में एकाग्र दृष्टि से ध्यान की मुद्रा में बैठ जाता। मुकुंद थोड़ा बड़ा हुआ तो भगवान के साथ एक जि़द कर बैठा। जिसका वर्णन उनके छोटे भाई सनन्द लाल घोष ने अपनी पुस्तक ‘मेजदा’ में किया है। दरअसल, घर में पिताजी और बड़े भाई के पत्र तो बहुत आते थे, पर मुकुंद का कोई पत्र नहीं आता था। आते भी कैसे वह अभी बहुत छोटा जो था। बड़े भाई अनंत ने मुकुंद का उपहास किया कि तुम्हारे मित्र नहीं है इसलिए तुम्हारे पास कोई पत्र नहीं आते। उपहास से उदास मुकुंद पूजा के कमरे में ईश्वर के चित्र के सामने बड़े ही प्रेमभाव से खड़े हो जाते और पत्र भेजने की प्रार्थना करते। कई दिन तक चिट्ठी न मिलने पर उन्होंने ईश्वर को पत्र लिखा, ‘आप कैसे हैं! मैं प्रतिदिन आपसे पत्र भेजने की प्रार्थना करता हूं। आप मेरी प्रार्थना को भूल गए। मैं दुखी हूं। मेरे पिताजी और भाई को बहुत पत्र आते हैं, परंतु मुझे कोई पत्र नहीं भेजता। अवश्य ही आप मुझे शीघ्र पत्र लिखें। मैं और क्या लिखूं।’ पत्र को लिफाफे में बंद कर भगवान का पता लिखा, ‘सेवा में, भव्यशाली भगवान, स्वर्ग।’ और पोस्ट कर दिया।
दिन बीतते गए। कोई उत्तर नहीं आया। मुकुंद की बेचैनी बढ़ती गई। नन्हे बालक ने भगवान से पूछा, ‘क्या संसार को चलाना इतना कठिन है कि आपको मेरे पत्र का उत्तर देने का समय नहीं मिला।’ भगवान से अपनी नाराजगी व्यक्त करते, ‘अब मैं आपको कभी पत्र नहीं लिखूंगा। आपने इतनी निष्ठुर चुप्पी क्यों साध रखी है।’ मुकुंद की यह बालसुलभ नाराजगी और पत्र लिखने की आकांक्षा दिन निरंतर तीव्र होती गई। मुकुंद की प्रभु से अपनी प्रार्थना का उत्तर पाने की दृढ़ता और व्याकुलता इतनी तीव्र थी, कि प्रभु को एक रात चुप्पी तोड़नी पड़ी। बताते हैं कि एक दिन मुकुंद को मानस दर्शन देते हुए प्रभु ने कहा, ‘मैं जीवन हूं। मैं प्रेम हूं। मैं आपके माता-पिता के माध्यम से आपकी देखभाल कर रहा हूं।’
यही बालक आगे चलकर परमहंस योगानंद बने। उन्होंने वैश्विक आध्यात्मिक परिदृश्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। परमहंस जी अपने सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के लॉस एंजेलिस स्थित अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय में 19 अक्तूबर, 1939 को दिये प्रवचन में प्रार्थना के नियम बताते हैं, ‘प्रार्थना का पहला नियम है कि ईश्वर से केवल उचित इच्छाओं की पूर्ति की प्रार्थना करें। दूसरा नियम यह है कि उनकी पूर्ति की मांग याचक की तरह नहीं बल्कि ईश्वर का पुत्र होने के नाते ही करें क्योंकि ईश्वर ने हमें अपने प्रतिमूर्ति स्वरूप बनाया है। कोई याचक अगर किसी धनवान के दरवाजे पर जाकर भीख मांगता है तो उसे केवल भीख ही मिलती है। वहीं गृहस्वामी का पुत्र अपने पिता से जो भी मांगे वह उसे मिल जाता है।’
परमहंस योगानंद जी ने क्रिया-योग के प्रचार-प्रसार हेतु 1917 में योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया की स्थापना की। तीन साल बाद सद्गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर के आदेश पर अमेरिका जाने पर लॉस एंजेलिस में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की। अमेरिका प्रवास के दौरान उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान को पश्चिम में लोकप्रिय बनाया।
वर्ष 2019 में, भारत सरकार ने परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर 125 रुपये का सिक्का जारी किया। पत्रक में लिखा गया, ‘श्री परमहंस योगानन्द की सांप्रदायिक सद्भाव और वैज्ञानिक शिक्षाएं सभी धर्मों और जीवन के क्षेत्रों के व्यक्तियों को आकर्षित करती हैं।’ परमहंस योगानंद जी द्वारा लिखित ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ योग के प्राचीन विज्ञान का गहरा परिचय देती है। इसका हिंदी अनुवाद ‘योगी कथामृत’ के रूप में हुआ है। यह पुस्तक दो दर्जन से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। परमहंस योगानन्द जी की विख्यात श्रीमद्भागवत गीता की व्याख्या ‘गॉड टॉक्स विद अर्जुन’ का हिन्दी अनुवाद, ‘ईश्वर-अर्जुन संवाद’ नाम से हो चुका है, जिसका विमोचन सन् 2017 में योगदा के रांची आश्रम में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की उपस्थिति में हुआ। यह पुस्तक भगवान श्रीकृष्ण द्वारा साधक योगियों को दिये गए मार्गदर्शन के गूढ़ अर्थ प्रदान करती है।