विकास के दौर में भरपेट भोजन की आकांक्षा
भारत प्रगति के पथ पर है। साल 2047 तक उसे विकासशील के वर्ग से निकलकर विकसित देश हो जाना है। एक दशक में भारत दसवें नंबर की अर्थव्यवस्था से तरक्की करके दुनिया की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति बन गया। अनुमान हैं दो साल के अंदर हम तीसरी आर्थिक शक्ति बन जाएंगे। लक्ष्य तो चीन और अमेरिका को पछाड़कर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाने का है। निश्चय ही 500 अरब करोड़ के निवेश वाले देश से 1000 अरब करोड़ रुपये के निवेश वाले देश बनने का सपना भी भारत देखने लगा है।
हालिया इंडिया रिच लिस्ट 2023 के मुताबिक, अरबपति उद्यमियों की संख्या देश में बढ़कर 1319 हो गई है। लेकिन बड़ी बात यह कि पिछले पांच साल में एक हजार करोड़ से अधिक की संपत्ति वाले लोगों का आंकड़ा 76 फीसदी बढ़ गया है। ये लोग विरासती अमीर नहीं, इनमें से 86 फीसदी धनी सेल्फ मेड हैं। स्टार्टअप उद्यम और आगे जाने की भावना ने ऐसा जोर पकड़ा कि इनमें से 84 फीसदी अरबपति हो गए हैं जिनकी औसत उम्र 41 वर्ष है। मुम्बई, दिल्ली और बंगलुरु में शुरू से ही अरबपतियों का बोलबाला है। लेकिन कभी पिछड़ा राज्य कहलाने वाले उत्तर प्रदेश ने तरक्की कर चकित कर दिया। पिछले साल यहां 25 अरबपति थे और उससे पिछले साल 22 लेकिन इस साल बढ़कर यहां 34 अरबपति हो गए हैं।
निस्संदेह इस वक्त भारत की आर्थिक विकास दर दुनिया में सर्वाधिक है। लेकिन भारत के लिए एक और सूचकांक भी सामने आया है। इसे भुखमरी सूचकांक कहा जाता है। यह भी इस समृद्ध होते सूचकांक के साथ प्रकाशित हुआ है। यह बताता है कि जिस प्रजातांत्रिक समाजवाद को लेकर हमारे देश ने अपनी विकास यात्रा शुरू की थी, अभी हम उस लक्ष्य के करीब भी नहीं पहुंचे बल्कि उससे परे छिटकते जा रहे हैं।
कोरोना काल के बाद बेशक निवेश और उत्पादन में बनिस्बत काफी प्रतिबंध रहित माहौल मिला है लेकिन बेरोजगारी को इस समय कोविड काल से पहले की स्थिति से बेहतर नहीं कह सकते हैं। वहीं महंगाई पर नियंत्रण के दावों के बावजूद विसंगति यह कि जहां थोक मूल्य सूचकांक शून्य से नीचे हो जाता है, वहां परचून कीमत सूचकांक रिजर्व बैंक द्वारा बताई गई 4 से 6 प्रतिशत के ऊपरी स्तर अर्थात 6 प्रतिशत के आसपास पहुंचता है। इस मूल्यवृद्धि का कारण बनावटी कमी पैदा करने की हरकतें कही जाती हैं।
बेशक देश में धनियों की संपन्नता बढ़ रही है। कहा जाता है कि देश के 10 प्रतिशत संपन्न लोग देश की 90 प्रतिशत या संपदा पर कब्जा किए हैं और देश की कार्यशील आबादी में से आधे लोग बेकार बैठे हैं। बेशक शासन ने किसी को भूख से न मरने देने की गारंटी दे रखी है लेकिन फिर भी भूख की समस्या यहां-वहां नजर आती है। नौजवानों को अपना भविष्य उज्ज्वल नजर नहीं आता है। कोटा, जहां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाई जाती है, वहां टूटते सपनों वाले नौजवानों की आत्महत्या की संख्या बढ़ रही है। इस अवस्था में सफलता की मंजिलें तय करने का प्रचार आम लोगों को धीरज और संतोष देता है। आज भी सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत के लोग सरकार की कार्यकुशलता और उसके द्वारा परिणाम लाने की क्षमता में बहुत विश्वास रखते हैं।
इसी कड़ी में भुखमरी के सर्वेक्षण में भारत दुनिया के 125 देशों में 111वें स्थान पर है। विसंगति यह कि पिछले साल से हर क्षेत्र में विकास की घोषणाओं के बावजूद भुखमरी का यह रैंक बढ़ कैसे गया, पिछले साल 121 देशों में भारत 107वें स्थान पर था। आंकड़े बता रहे हैं कि हमारे यहां बड़ी संख्या में नौनिहालों का वजन नहीं बढ़ पाता। उन्हें पर्याप्त पोषक भोजन नहीं मिल पाता। समय से पहले और कम वजन के बच्चे पैदा हो रहे हैं। वहीं हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक युवा श्रमशक्ति हमारे पास है। हम देश व दुनिया भर के लिए इस श्रमशक्ति की सस्ती दर पर आपूर्ति कर सकते हैं। वहीं देश में भुखमरी से न मरने देने की गारंटी तो दी जाती है लेकिन हर काम करने योग्य व्यक्ति को उचित रोजगार द की गारंटी नहीं दी जाती। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि जहां अधेड़ उम्र के श्रमिकों को अनुभव और ज्ञान के अनुसार नौकरी मिल जाती है, नौजवानों को ऐसा आसान माहौल नहीं मिलता। क्या क्षमता या कार्यकुशलता की कमी हो रही है? जरूरत है कि देश की श्रमशक्ति में गुणात्मक परिवर्तन लाए जाएं। उन्हें बेहतर जीवनस्तर और पोषण की दशाएं प्रदान की जाएं। यह तो तभी संभव है जब वो आर्थिक क्षमता को उचित रोजगार से बेहतर कर पाएंगे। नौजवानों में जीवनीशक्ति भरने के लिए इनकी बेरोजगारी के अभिशाप को दूर करना होगा।
लेखक साहित्यकार हैं।