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शिव की सर्वव्यापकता का प्रतीक अष्टमूर्ति शिवलिंग

07:49 AM Mar 04, 2024 IST
शिव की सर्वव्यापकता का प्रतीक अष्टमूर्ति शिवलिंग
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अष्ट मूर्तियों की अवधारणा करके भारतीय मनीषियों ने वस्तुतः महादेव ‘शिव’ की सर्वव्यापकता का उद्घोष किया है। इन अष्टमूर्ति शिवलिंगों के माध्यम से क्षिति, जल, पावक, गगन और वायु के रूप में ‘सूक्ष्म पंचभूत’ समाहित हो जाते हैं। जीव उपासना करता है, अतः वह ‘यजमान’ की संज्ञा पाता है, लेकिन सांसारिक माया के पाश में बंधा होने के कारण यही जीव ‘पशु’ संज्ञक बनता है, जिस का उद्धार करने वाले ‘शिव’ ही ‘पशुपति’ कहलाते हैं। सूर्य और चंद्रमा वस्तुतः सृष्टि के कारण-तत्त्व हैं।

योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

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शिव वस्तुतः भारतीय दर्शन, धर्म, कला, साहित्य और संस्कृति को अनुप्राणित करने वाले ऐसे देवता हैं, जिन्हें भारतीय प्रज्ञा ने ‘ब्रह्मा’ माना है और उन्हें सर्वव्यापक मानकर ‘महादेव’ की संज्ञा से विभूषित किया है। यह सृष्टि अतीत, वर्तमान और भविष्य के कालखण्डों में विभक्त होकर भी परम स्रष्टा के ‘एकत्व’ का उद‍‍्घोष करती रही है। सृष्टि के त्रिविध रूप ‘सृजन-सिंचन-संहार’ को यद्यपि ब्रह्मा-विष्णु-महेश से सम्बद्ध करके भारतीय मनीषियों ने ‘त्रिदेव’ की महत्तम प्रतिष्ठा की है, तथापि शिव ‘महादेव’ के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं। संभवतः इसीलिए ‘शक्ति-युत’ होकर यही शिव ‘लास्य’ के माध्यम से सृष्टि के सृजेता बनते हैं, तो ‘शक्ति-वियुत’ होने पर ‘तांडव’ नर्तन करने वाले ‘रुद्र’ बनकर संहार भी किया करते हैं। यही कारण है कि शिव जन्म और मृत्यु, सृजन और संहार के अनूठे समन्वयकर्ता ‘महादेव’ हैं, जो सिंचनकर्ता विष्णु के आधार भी रहते हैं। ‘शिव पुराण’ का साक्ष्य द्रष्टव्य है, जिसमें शिव स्वयं कहते हैं :-
‘अहं शिवः शिवास्यायं त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म शिवात पर न किंचन।’
अर्थात‌्, ‘मैं शिव हूं, तुम शिव हो, सभी कुछ शिवमय है। शिव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है।’
वस्तुतः ‘शिव’ इस चराचर रूपा सृष्टि के मूल कारण हैं और यदि शिव अपनी ‘शक्ति’ के साथ रमण न करें, तो यह दृश्य जगत सम्भव ही नहीं हो। यह शिव ही ब्रह्म है, सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। इन शिव की सर्वव्यापकता को ही भारतीय दर्शन ने ‘अष्टमूर्ति शिवलिंग’ की उदात्त अवधारणा के माध्यम से प्रत्यक्ष किया है। महादेव ‘शिव’ की ये अष्ट मूर्तियां इस प्रकार हैं : शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव और ईशान।
इन अष्ट मूर्तियों की अवधारणा करके भारतीय मनीषियों ने वस्तुतः महादेव ‘शिव’ की सर्वव्यापकता का उद‍्घोष किया है। इन अष्टमूर्ति शिवलिंगों के माध्यम से क्षिति, जल, पावक, गगन और वायु के रूप में ‘सूक्ष्म पंचभूत’ समाहित हो जाते हैं। जीव उपासना करता है, अतः वह ‘यजमान’ की संज्ञा पाता है, लेकिन सांसारिक माया के पाश में बंधा होने के कारण यही जीव ‘पशु’ संज्ञक बनता है, जिस का उद्धार करने वाले ‘शिव’ ही ‘पशुपति’ कहलाते हैं। सूर्य और चंद्रमा वस्तुतः सृष्टि के कारण-तत्त्व हैं।
‘शिव पुराण’ में वर्णित अष्टमूर्ति शिवलिंगों की आराधना शिवभक्तों के लिए युगों से चली आ रही है। सच तो यह है कि इन अष्टमूर्ति शिवलिंगों की पूजा के बिना महादेव शिव की पूजा निष्फल मानी गई है। वस्तुतः अष्टमूर्तियों की पूजा समस्त प्राणियों को ‘अभय’ देने और सभी के प्रति ‘अनुग्रह’ रखने के साथ ही सभी का उपकार करने, दीन-हीन सभी की सहायता करने तथा श्रद्धास्पदों का सम्मान करने आदि की दिव्य प्रेरणा मिली हुई है।

पशुपति शिव की पूजा का अर्थ

पुराणोक्त ‘अष्टमूर्ति शिवलिंगों’ में ‘पशुपति शिव लिंग मूर्ति’ की आराधना का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अर्थ यह है कि ‘को अहं’ अर्थात ‘मैं कौन हूं’ की भ्रमात्मक स्थिति में पड़े हुए मायाग्रस्त ‘पशु जीव’ को ‘सो अहं’ अर्थात‍् ‘मैं ब्रह्म हूं’ की ज्ञानात्मक स्थिति के साथ निर्द्वन्द्व स्थिति तक ले जाना। माया का बंधन छूटते ही ‘पशुजीव’ सत-चित-आनद का प्रतिरूप ‘सच्चिदानंद शिव’ ही हो जाता है।
‘देही देवालयः प्रोक्तो जीवो देवः सदाशिवः।
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यम सोहं भावेन पूजयते।।’
परम शिव की सर्वव्यापकता की अनादि प्रतीक ये अष्टमूर्तियां वस्तुतः महादेव शिव के वे परम तीर्थ हैं, जो भारतवर्ष, नेपाल और बांग्लादेश में स्थित हैं। धर्मप्राण व्यक्ति ‘महाशिवरात्रि पर्व’ के साथ ही विशेष उत्सवों का आयोजन करके इन मूर्तियों की पूजा करते हैं।
एकाम्रेश्वर (क्षिति तत्त्व शिवलिंग) :
पंचभूत तत्त्व शिवलिंगों में ‘भूतत्त्व लिंग’ माना जाने वाला ‘एकाम्रेश्वर क्षिति लिंग’ भारत के ‘शिवकांची’ में स्थित है, जो कीर्तिनगर, कांचीपुरम में है। इस शिव लिंग पर जल नहीं चढ़ाया जाता, बल्कि सुगंधित चमेली के द्रव्य से स्नान कराया जाता है। प्रतिवर्ष यहां अप्रैल माह में एक पखवाड़े तक मुख्य पूजा- उत्सव होता है। प्राचीन मान्यतानुसार ‘कांची’ की गणना मोक्षदायिनी ‘सप्त पुरियों’ में की जाती है। विशेष बात यह है कि ‘शिव’ और ‘विष्णु’ का अभिन्नत्व स्थापित करने के लिए नगर को दो भागों ‘शिवकांची’ और ‘विष्णुकांची’ में बांट दिया गया है। मंदिर के पास ही ‘कामाक्षा देवी’ का भव्य मंदिर है, जो भारत में दक्षिण भारत का प्रमुख ‘सिद्धपीठ’ माना जाता है।
जम्बूकेश्वर (जल-तत्त्व शिवलिंग)
महादेव शिव का यह ‘जल-तत्त्व शिवलिंग’ भी तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली स्थान के समीप है। आश्चर्य यह है कि जम्बूकेश्वर शिवलिंग के नीचे से निरंतर ‘जल’ आता रहता है और जलहरी में जल के बीच ऊपर निकले हुए ‘शिवलिंग’ के दर्शन होते रहते हैं। यहां जामुन का एक अत्यंत प्राचीन वृक्ष है, इसीलिए इस शिव लिंग का नाम ‘जम्बूकेश्वर शिवलिंग’ पड़ा है।
अरुणाचलेश्वर ( तेजोमय शिवलिंग)
यह ‘अग्नि तत्त्व शिवलिंग’ अरुणाचलम में है, जो दक्षिण भारत में तिरुवन्नमले स्टेशन से थोड़ी दूर स्थित है। यहां कार्तिक मास की पूर्णिमा को बहुत बड़ा उत्सव होता है, जिसमें एक बहुत बड़े आकार के पात्र में कपूर जलाकर ढक दिया जाता है और प्रज्ज्वलित अवस्था में उसका पूजन होता है। मान्यता यह है कि पात्र के ज्योतिर्लिंग रूप तेजोमय अग्नि को ही लोग ‘अग्नितत्त्व शिवलिंग’ मानकर पूजते हैं।
काल हस्तीश्वर (वायु तत्त्व शिवलिंग)
तमिलनाडु के बिल्लुपुरम गुडूर सेक्शन पर रेनीगुंटा स्टेशन से लगभग 15 मील की दूरी पर कालबस्ती स्थान पर वायुतत्त्व शिवलिंग का मंदिर है, जिसे ‘कालहस्तीश्वर’ कहा जाता है। मान्यता यह है कि यहां सर्वप्रथम मकड़ी, सर्प और हाथी ने महादेव शिव की पूजा की थी, इसीलिए इसे ‘कालहस्तीश्वर’ शिवलिंग कहा जाता है। यहां के शिवलिंगों का स्पर्श करना वर्जित है।
चिदंबरम (आकाश तत्त्व शिवलिंग)
तमिलनाडु के बिल्लुपुरम से लगभग 50 मील दूर चिदम्बरम स्थित मंदिर में, जिसे ‘नटराज मंदिर’ भी कहा जाता है, ‘आकाश तत्त्व शिवलिंग’ की पूजा की जाती है। इस मंदिर में शिव-भक्त एक धोबी और चांडाल के साथ दो शूद्रों की मूर्तियां बनी हुई हैं। नीला शून्याकर ही ‘चिदम्बरम का आकाशतत्त्व लिंग’ (चिद=ज्ञान, अम्बर=आकाश=चिदाकाश) है। इस पर सदैव पर्दा पड़ा रहता है। इस मंदिर में जून और दिसंबर में दो प्रमुख उत्सव होते हैं, जिन्हें क्रमशः ‘तिरुमंजनम‌्’ तथा ‘अद्रादर्शनम‌्’ कहते हैं।
पशुपतिनाथ (यजमान मूर्ति शिवलिंग)
यह शिवलिंग नेपाल में है, जिसे प्रख्यात ‘पशुपतिनाथ महादेव परम तीर्थ’ कहा जाता है। यहां महादेव ‘लिंग’ रूप में न होकर, ‘मानुषी विग्रह’ में विराजते हैं। नेपाल की राजधानी काठमांडू में बागमती नदी के दक्षिणी तट पर स्थित इस मंदिर की भव्य ‘शिव मूर्ति’ पंच भुजी और स्वर्ण निर्मित है। महाशिवरात्रि को यहां सर्वोच्च उत्सव होता है। इस मंदिर के विषय में कहा जाता है कि मंदिर के ‘कोण’ में ‘एक मुखी रुद्राक्ष की माला’ और ‘सर्प मणि’ रखी हुई है।
सोमनाथ (चंद्र रूप शिव लिंग)
गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित प्रख्यात ‘सोमनाथ मंदिर’ ही महादेव शिव का ‘चंद्र रूप शिवलिंग’ है। इसकी मान्यता देश-विदेश में है। चन्द्र रूप शिवलिंग का एक अन्य तीर्थ पूर्वी बंगाल, जो वर्तमान में बांग्लादेश है, के चटगांव से कुछ दूर पर्वत पर स्थित ‘चंद्रनाथ शिवलिंग’ के नाम से विख्यात है। यह चंद्रनाथ शिव मंदिर समुद्र तट से चार सौ गज ऊंचे ‘पर्वत-शिखर’ पर स्थित है और इसे ‘द्वादश ज्योतिर्लिंगों’ की परंपरा में ‘त्रयोदश ज्योतिर्लिंग’ भी कहा जाता है।
सूर्य मंदिर (सूर्य रूप शिव लिंग)
भारत के ओडिसा राज्य में विश्व प्रसिद्ध ‘कोणार्क’ का ‘सूर्य मंदिर’ और तमिलनाडु के ‘मायावरम’ से कुछ दूर स्थित ‘सूर्यनारकोइल’ तीर्थ सूर्य मूर्ति रूप में शिव की आराधना के मुख्य केंद्र हैं। कोणार्क के ‘सूर्य मंदिर’ को ‘सौर सम्प्रदाय’ का प्रधान केंद्र माना गया है। इसी के समीप सूर्य-पत्नी ‘संज्ञा’ का मंदिर भी आज भग्नावस्था में विद्यमान है।
उपर्युक्त अष्टमूर्ति शिवलिंग वस्तुतः महादेव शिव की सर्वव्यापकता की अनूठी अवधारणा के साथ ही भारतीय दर्शन में निहित ‘राष्ट्रीय समन्वय’ की चेतना का प्रमाण भी प्रस्तुत करती है।

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