कमियों के ताकत बनते ही हौसलों को लगे पंख
07:27 AM Dec 03, 2024 IST
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आज अंतर्राष्ट्रीय विकलांगता दिवस पर विशेष : जीवन सुखद और दुखद ऐसे अनुभवों की राह है, जो अंतिम समय तक पीछा नहीं छोड़ते। ये दास्तानें हैं मुश्किलों से टकराने की और उनसे पार पाकर जीवन में सफलता हासिल करने की ...
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विकलांगता पर जुनून भारी, शिक्षा की अलख जगा रहे प्राचार्य लोकेश
हरीश भारद्वाज/हप्र
रोहतक, 2 दिसंबर
रोहतक, 2 दिसंबर
पंडित नेकीराम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राचार्य डॉ. लोकेश बल्हारा ने अपने समक्ष आई चुनौतियों और मुश्किलों का न केवल सामना किया, बल्कि उन्हें हराकर कामयाबी की मिसाल कायम की है। दोनों पैर न होने व हाथों के भी पूरी तरह काम न करने के बावजूद उन्होंने न केवल एमए, एमफिल व पीएचडी कर शिक्षा की अलख जगाई, बल्कि तैराकी सहित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। राष्ट्रपति व शिक्षा मंत्री के हाथों सम्मानित हो चुके 56 वर्षीय डॉ. लोकेश बल्हारा के नाम विभिन्न क्षेत्रों में अवॉर्ड की लंबी फेहरिस्त है।
जिले के गांव बहुअकबरपुर के रहने वाले लोकेश बल्हारा को करीब ढाई वर्ष की उम्र में पोलियो हो गया था, लेकिन उस वक्त बीमारी का पता नहीं लग पाया। शरीर कमजोर होता गया। पिता फौज में थे, जब छुट्टी आए तो उन्हें अपने साथ ले गए और पुणे के आर्मी अस्पताल में इलाज कराया। वहां उन्हें पोलियो होने का पता चला, लेकिन इस बीच काफी देर हो चुकी थी और उनका कमर से नीचे का हिस्सा काम करना बंद कर चुका था। एक हाथ कोहनी के नीचे से खराब हो गया, जबकि दूसरे हाथ ने कलाई के नीचे से काम करना बंद कर दिया। यहां तक कि सहारा दिए बगैर उनसे बैठा भी नहीं जाता था। कई वर्ष के इलाज के बाद वह बैठने लायक हुए और भाइयों के साथ ही आर्मी स्कूल में जाना शुरू कर दिया। डॉक्टर बल्हारा बताते हैं की पांचवीं कक्षा तक उन्हें प्रतिदिन फिजियोथेरेपी के लिए जाना पड़ता था। उनसे बड़े दो भाइयों को पिता ने उनका ध्यान रखने की जिम्मेदारी सौंपी थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। पढ़ाई में वह शुरू से ही अव्वल थे। दूसरे बच्चों को खेलते दौड़ते व अन्य गतिविधियों में हिस्सा लेते देख वह भी अनुसरण करने लगे। डॉ. बल्हारा राष्ट्रीय पैरालंपिक तैराकी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक विजेता हैं। वह पानी में लंबे समय तक पद्मासन लगाकर रह सकते हैं व पीठ के बल पानी के ऊपर शांत मुद्रा में लेट सकते हैं। उन्होंने बताया कि वह लखनऊ में नौवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब उनके भाई स्विमिंग पूल में तैरने जाते थे और उन्हें भी साथ ले जाते थे। वहां उन्हें ट्यूब के सहारे स्विमिंग पूल में उतार दिया जाता था। इसी दौरान स्विमिंग कोच ने उन्हें पानी में ब्रीदिंग करना सिखा दिया। वहीं से उन्होंने अभ्यास शुरू किया और फ्रीस्टाइल में बैक फ्लिप में तैराकी शुरू कर दी।
यह हैं प्रमुख उपलब्धियां : विकलांग व्यक्तियों के जीवन मूल्यों में बहुमूल्य सुधार के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार, बेस्ट टीचर अवार्ड, राष्ट्रीय पैरालंपिक तैराकी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक, कला भूषण सम्मान, एमए स्वर्ण पदक, एमफिल यूनिवर्सिटी टॉपर जोधपुर यूनिवर्सिटी, पीएचडी। इसके अलावा, उन्हें माइंड ऑफ स्टील पुरस्कार, जिला पुरस्कार, विकलांग रत्न पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। उन्होंने विभिन्न राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में पेपर प्रस्तुत किए हैं और ‘एबिलिटी फेस्ट’ में भाग लिया है। वह एसेंस आॅफ साइकोलॉजी नाम से एक किताब भी लिख चुके हैं।
यूं मिला राष्ट्रपति पुरस्कार : डॉक्टर बल्हारा ने बताया कि वर्ष 2002 में उन्होंने विदेश से बैटरी वाली व्हीलचेयर मंगवाई थी। उसका वजन बहुत ज्यादा था, इसलिए उन्हें गाड़ी में आने-जाने में परेशानी होती थी। उन्होंने मन में ठान लिया कि वह गाड़ी अपने तरीके से डिजाइन करवाएंगे। करीब एक वर्ष तक वह मिस्त्री के पास अपने हिसाब से डिजाइन बनवाते रहे। आखिरकार उन्होंने मिस्त्री की मदद से टाटा सेरा गाड़ी में ऐसा डिजाइन सेट कराया कि व्हीलचेयर सीधी गाड़ी में चढ़ जाए और ड्राइविंग सीट पर सेट हो सके। वर्ष 2009 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उनके इस साहसिक कदम के लिए उन्हें अवार्ड दिया।
छह साल तक नहीं मिली नौकरी : डॉ. बल्हारा ने बताया कि वर्ष 1991 में एमफिल करने के बाद छह साल तक नौकरी नहीं लगी, जबकि यूनिवर्सिटी टॉपर थे। इस दौरान काफी संघर्ष किया, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। इस बीच मन में पीएचडी करने का विचार आया, 1995 में पीएचडी की और वर्ष 1997 में आईसी कॉलेज रोहतक में एसोसिएट प्रोफेसर लगे।
मन के जीते जीत
साइकोलॉजी में पीएचडी डाॅ. बल्हारा का कहना है कि व्यक्ति शरीर से नहीं, मानसिक तौर पर विकलांग होता है। विकलांग व्यक्ति भी हर वह काम कर सकता है जो शारीरिक तौर पर सक्षम व्यक्ति कर सकता है। सिर्फ थोड़ी परेशानी हो सकती है। इसमें खासतौर पर आसपास रहने वाले लोगों व माहौल की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। व्यक्ति अगर मन में सोच ले तो हर काम कर सकता है। इसलिए आसपास रहने वाले लोगों को हमेशा ही ऐसे लोगों को सकारात्मक रूप से प्रेरित करते रहना चाहिए और उसे विकलांगता का अहसास नहीं होने देना चाहिए।
कोई बल्ले से दिखा रहा दम, कोई रंगों की फुहार
ललित शर्मा/हप्र
कैथल, 2 दिसंबर
कैथल, 2 दिसंबर
शारीरिक अक्षमता कभी भी राहें नहीं रोक सकती। हौसला बुलंद, इरादे नेक और सच्ची लगन हो तो निश्चित रूप से मंजिल भी मिलेगी। ऐसा ही कुछ कर दिखाया है कैथल के एक युवा प्रमोद ने, जो दिव्यांग बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद कर रहे हैं। प्रमोद बताते हैं कि वर्ष 2014 में उन्होंने अपनी बहन संतोष के साथ मिलकर दिव्यांग बच्चों के लिए काम करना शुरू किया। शुरुआत में सिर्फ दो बच्चे जुड़े। इसके बाद उन्होंने कैथल में सर्वे किया। दिव्यांग बच्चों के घर जाकर उनके माता-पिता को बार-बार समझाया कि ये बच्चे भी मुख्यधारा से जुड़कर सामान्य बच्चों की तरह जीवन जी सकते हैं। सर्वे व काफी प्रयासों के बाद अप्रैल 2015 में उन्होंने ‘अनहद एजुकेशन एवं हेल्थ वेलफेयर सोसाइटी’ के तहत स्कूल शुरू किया, जिसमें 25 दिव्यांग बच्चे पढ़ाई करने लगे। इसके बाद कारवां बढ़ता गया और अब उनके स्कूल में 120 दिव्यांग बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इनमें 60 मानसिक रूप से दिव्यांग, 50 मूक बधिर, दस दृष्टिहीन हैं।
होली पथ स्कूल से शिक्षण ग्रहण करने वाले मुनीष इसी विद्यालय में अब अध्यापक की नौकरी कर रहे हैं। साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी कर रहे हैं। यहां से पढ़े अरविंद कंप्यूटर सहायक की नौकरी कर रहे हैं। टिंकू और गुरचरण दिव्यांगों की राज्य स्तर पर होने वाली क्रिकेट प्रतियोगिताओं में चौके-छक्के लगाते हैं। इसी स्कूल की लक्ष्मी ने पिछले दिनों राज्य स्तर पर हुई पेंटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल किया है।
ऐसे शुरू हुआ सफर : प्रमोद बताते हैं कि उनकी बहन संतोष को एमफिल के दौरान शोध के लिए वर्ष 2012 में दिव्यांगों के स्कूल में जाने व उन्हें पढ़ाने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि ऐसे बच्चों के लिए काम होना चाहिए। संतोष ने उन्हें इसके लिए प्रेरित किया। उनकी प्ररेणा से वह अहमदाबाद में दो वर्ष का डिप्लोमा करके आये और बहन व दो अन्य साथियों के साथ मिलकर कैथल अनहद एजुकेशन एवं हेल्थ वेलफेयर सोसाइटी का पंजीकरण करवाया गया। सोसाइटी के तहत ‘होली पथ’ शिक्षण संस्थान खोला गया। इसमें चार साल के बच्चे लेकर 25 वर्ष आयु तक के युवा शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। प्रमोद कहते हैं कि अगर समाज व माता पिता का साथ दिव्यांग बच्चों को मिले तो ये सामान्य बच्चों की तरह अपने हौसलों से जंग जीत सकते हैं। ये बच्चे किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है।
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