सोशल मीडिया की असामाजिकता
भारत में भी सोशल मीडिया के नशे के युवाओं के सिर चढ़कर बोलने पर गाहे-बगाहे चिंता जतायी जाती है। इसकी वजह से जहां एक ओर उनकी एकाग्रता भंग होती है, वहीं मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं भी परेशान करने वाली हैं। देश में कई ऐसे मामले खबरों की सुर्खियां बने हैं जब इस लत से रोकने वाले अभिभावकों पर किशोरों द्वारा प्राणघातक हमले किये गये। दरअसल सोशल मीडिया के नशे को नियंत्रित करने व बड़ी तकनीकी कंपनियों को जवाबदेह बनाने की मांग भारत समेत पूरी दुनिया में उठती रही है। अब सोशल मीडिया के स्रोत संयुक्त राज्य अमेरिका के दर्जनों राज्यों ने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य को कथित रूप से नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाकर फेसबुक व इंस्टाग्राम की स्वामित्व वाली कंपनी मेटा पर मुकदमें दर्ज कराये हैं। शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि एक नशे की लत के रूप में सोशल मीडिया को प्रोत्साहित करके मोटा मुनाफा कमाने वाली कंपनियां अपने सामाजिक दायित्वों से बच रही हैं। साथ ही जोड़-तोड़ की कोशिशों से अपने मंसूबों को विस्तार दे रही हैं। निस्संदेह, दुनिया भर में अभिभावक, शिक्षक, देखभाल करने वाले व नीति निर्माता वर्षों से सोशल मीडिया से बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले घातक प्रभावों के बारे में चेताते रहे हैं। कई शोधों के निष्कर्ष हैं कि सोशल मीडिया पर लंबा समय बिताने के चलते किशोरों में अवसाद, चिंता, अनिद्रा व खान-पान संबंधी विकार सामने आए हैं। वहीं मेटा के अधिकारियों की दलील है कि उसने किशोरों व परिजनों को सुरक्षित सुविधा प्रदान करने के लिये कई कारगर विकल्प पेश किये हैं। कानूनी प्रक्रिया के तहत ऑनलाइन रहने के दौरान युवाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का जिक्र किया गया है। आरोप है कि इस लत के आदी युवाओं में संवेदनशीलता कम हो रही है। उनमें आत्मबोध से विमुख होने व कल्याण की भावना के प्रति उदासीन होने जैसे भाव उपजते हैं।
उल्लेखनीय है कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों द्वारा गैरजिम्मेदार व्यवहार के चलते कई नामचीन कंपनियों मेटा, टिकटॉक व यूट्यूब पर अमेरिका में पहले ही सैकड़ों मुकदमें चल रहे हैं। लेकिन मौजूदा पहल अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई है। निस्संदेह, यदि इन मामलों में कोई निर्णायक फैसला आता है तो नतीजे वैश्विक प्रभाव वाले हो सकते हैं। लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के लिये नये ऑनलाइन सुरक्षात्मक प्रावधान किये जाएं। जो कम उम्र के बच्चों के स्वास्थ्य के मद्देनजर निर्धारित होंं। विशेषज्ञों की राय है कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना ऑनलाइन सुरक्षा का विकल्प नहीं हो सकता। इसके बजाय डिजिटल साक्षरता और गोपनीयता पर जोर दिया जाना चाहिए। जाहिर है कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने के माता-पिता के प्रयासों का बच्चे विरोध करेंगे। इसलिये अभिभावकों को सुरक्षात्मक तरीके से समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए। मसलन सोने जाने से पहले स्क्रीन पर बिताए जाने वाले समय को सीमित किये जाने के लिये बच्चों से विमर्श किया जाना चाहिए। उन्हें देर रात तक सोशल मीडिया पर बने रहने से शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले घातक प्रभावों से अवगत कराना चाहिए। उन्हें उस आशंका से मुक्त कराने के प्रयास हों, जिससे उन्हें लगता कि कुछ छूट गया है। उन्हें इस चर्चा के लिये प्रोत्साहित करें कि किस तरह की सामग्री उनके लिये उपयोगी है। उनसे पूछा जाये कि क्या देखने से वे ऊर्जावान महसूस करते हैं या खुद को कमजोर महसूस करते हैं। दरअसल, इस विश्वव्यापी संकट के तमाम तरह के घातक परिणाम देखने में आए हैं। जो अभिभावकों की गहरी चिंता का विषय हैं। इसकी एक मुख्य वजह यह भी है कि बच्चे इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री से अपरिपक्व उम्र में रूबरू हो रहे हैं। जिसके चलते समाज में अल्पवयस्कों में यौन अपराधों की वृद्धि घातक स्तर तक हो रही है। वहीं दूसरी ओर बच्चे भी आपराधिक तत्वों की प्रताड़ना का शिकार बन रहे हैं। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिये घर व स्कूल में बच्चों को सोशल मीडिया के स्याह पहलुओं से अवगत करना जरूरी है।