संवेदनहीनता के अस्पताल
आये दिन छोटे-बड़े शहरों के सरकारी अस्पतालों में ऐसे किस्से उजागर होते हैं, जो चिकित्सा-तंत्र की संवेदनहीनता को दर्शाते हैं। लेकिन लुधियाना के सिविल अस्पताल में एक मरीज के साथ एक ही बैड में शव रखना वाकई परेशान करने वाली घटना है। हालांकि, पहले कहा गया कि अज्ञात मरीज का शव एक अन्य मरीज के बिस्तर पर दो घंटे से अधिक समय तक रहा, बाद में विभागीय जांच में अवधि को 37 मिनट बताया गया। बहरहाल, घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। मामले में प्रशासनिक जांच के आदेश दिये गए हैं, लापरवाही की जवाबदेही तय करके कार्रवाई की बात कही जा रही है। निश्चित रूप से घटना परेशान करती है। निस्संदेह, उस मरीज की मन:स्थिति को समझा जा सकता है जो शव के साथ लेटा रहा होगा। यह घटना हमारे सरकारी अस्पतालों की बदहाली को बताती है, जिसके चलते कि एक बैड पर दो-दो मरीजों को लिटाया जाता है। ऐसे में रोगियों को अन्य संक्रमण होने की भी प्रबल संभावना बनी रहती है। विडंबना ये है कि इन अस्पतालों में वे ही मरीज आते हैं, जो मजबूरी के मारे होते हैं। वे प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने में सक्षम नहीं होते। बताया जाता है कि मरने वाले मरीज को नौ अप्रैल को लुधियाना के सिविल अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसकी जांघ की हड्डी टूटी थी। इस अज्ञात मरीज के साथ कोई तीमारदार भी नहीं था। लगता है कि उसे समय रहते पर्याप्त उपचार नहीं मिल पाया। बताया जाता है कि बारह अप्रैल को किसी डॉक्टर ने मरीज की फाइल में नोट लिखा कि मरीज बिस्तर पर नहीं पाया गया, जबकि मरीज चलने-फिरने में सक्षम नहीं था। उसकी फाइल में कुछ और नोट्स भी हैं लेकिन लिखने वाले डॉक्टर का नाम उसमें नहीं था। चौदह अप्रैल को मरीज को दूसरे अस्पताल में रैफर किया गया, लेकिन रैफर करने वाले डॉक्टर का उसमें उल्लेख नहीं है।
कालांतर 15 अप्रैल को मरीज की सुबह ग्यारह चालीस पर मौत होना बताया गया है। शव को सवा बारह बजे के बाद मोर्चरी में शिफ्ट किया जाना बताया गया। मामले के तूल पकड़ने के बाद लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर ने मामले की जांच शुरू की है। बहरहाल, मामले की हकीकत जांच के बाद ही सामने आ पाएगी। लेकिन घटना ने एक बार फिर सिविल अस्पतालों में प्रबंधन की खामियों को उजागर ही किया है। बताते हैं कि नौ अप्रैल को भर्ती अज्ञात मरीज को ग्यारह अप्रैल तक उपचार नहीं मिला। कहना कठिन है कि उस मरीज के साथ क्या हादसा हुआ जिससे उसकी जांघ की हड्डी टूटी। क्या वो कोई राहगीर था जो किसी वाहन से हुई दुर्घटना का शिकार हुआ? यदि वह स्थानीय था तो उसके तीमारदार क्यों नहीं आए? क्या वह किसी आपराधिक साजिश का शिकार हुआ? बहरहाल, एक बात तो तय है कि दुर्भाग्य का मारा अज्ञात मरीज सिविल अस्पताल में कोताही का शिकार हो गया। बहुत संभव है कि समय रहते उसे उपचार मिलता तो शायद उसकी जान बच जाती। सवाल यह है कि गरीबों की अंतिम उम्मीद बने सरकारी अस्पतालों की बदहाली सुधारने के प्रयास क्यों नहीं किये जाते? लुधियाना जैसे बड़े व समृद्ध शहरों में तमाम व्यक्ति व समाजसेवी संगठन जनसेवा हेतु सक्रिय रहते हैं, क्यों नहीं इन अस्पतालों में पर्याप्त बैड उपलब्ध कराने के प्रयास होते हैं? तमाम राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक आयोजनों में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, क्यों नहीं समाज के अंतिम व्यक्ति के उपचार के लिये आखिरी आश्रय स्थल सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था सुधारने के लिये योगदान दिया जाता? हमारे जनप्रतिनिधि क्यों नहीं इस दिशा में पहल करते? जनता को इन अस्पतालों में जीवन रक्षा उपकरणों व बैड आदि की व्यवस्था कराने के लिये सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। वहीं दूसरी ओर यह भी हकीकत है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों का भारी दबाव है। अस्पतालों को पर्याप्त मात्रा में ग्रांट भी उपलब्ध नहीं करायी जाती ताकि उपचार की पर्याप्त व्यवस्था हो सके। विडंबना यह भी कि यहां विशेषज्ञ चिकित्सकों का भी अभाव है। युवा डॉक्टर मरीजों के दबाव व आर्थिक लाभों के सम्मोहन में सरकारी सेवाओं में आने से कतराने लगे हैं।