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और वे मुकर गए, रास्ते से गुजर गए

08:05 AM Apr 24, 2024 IST
और वे मुकर गए  रास्ते से गुजर गए
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धर्मेंद्र जोशी

चुनाव का साल था, यही बड़ा सवाल था। वे पिछले वादों से मुकर गए, भीड़ भरे रास्ते से गुजर गए। बड़ी उम्मीद और टकटकी लगाए लोकतंत्र का पहरुआ उनको सुन रहा था, कुछ खुद के लिए, कुछ अपने बच्चों के लिए सुनहरे ख्वाब बुन रहा था। हर बार की तरह इस बार भी वो विशाल रैली और रोड शो का हिस्सा बन चुका था, सपने हकीकत में बदलते उसके पहले ही चुनाव प्रचार थम चुका था।
न गैस की टंकी के दाम घटे थे, न कोई जबरिया टैक्स हटे थे। महंगाई की पतीली में उफान जारी था, उसकी कमर पर वार जारी था। वो रह-रह कर कभी बैंक की किस्तों से लड़ रहा था और कभी चार कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे हट रहा था। कभी मोटरसाइकिल के पहियों को थाम साइकिल चलाकर पेट्रोल बचा रहा था, इस तरह जिंदगी को चला रहा था।
थाली की दाल बहुत पतली हुई जा रही थी, बच्चों की महंगी पढ़ाई की चिंता दिन-रात खाए जा रही थी। इसी बीच कहीं पेपर लीक की खबर सुनाई दे जाती थी, ऐसी बातें कानों को नहीं सुहाती थी। मगर नियति ने तो उसे सिर्फ मत देने का ही अधिकार दिया था, उसकी तकदीर का फैसला तो किसी और ने ही ले लिया था। वो प्रजातंत्र की बानगी को दूर से देख रहा था, और चुनावी समर में अपनी आंखें सेंक रहा था।
वादों और दावों की तीव्र बयार से आम जन अचंभित था, सबको सब कुछ देने की कोशिश की जा रही थी। गंजे को कंघी दी जा रही थी, लोकलुभावन नारों से जीवन बदलने की गारंटी दी जा रही थी। हमेशा की तरह हर बात पर विश्वास करने वाले भोले मतदाता को बहुत भा रही थी।
हालात बदलने का प्रयास बहुत जोर से किया जा रहा था, जो जमीन पर कम अखबार में खूब छा रहा था। लंबी फेहरिस्त आम आदमी के लिए तैयार की जा रही थी, कुछ बातें हर बार जुड़ती और कुछ छूट जा रही थी। जन्म से लेकर मृत्यु तक की व्यवस्था करने की इत्तला दे रहे थे, लेकिन यह सब होगा चुनाव के बाद यह कह रहे थे।
आश्वासनों की उसको आदत-सी हो गई है, अंदर की आत्मा जैसे सो गई है। अपने ही कामों को लेकर गाफिल है, कभी राशन की लाइन में, कभी कनस्तर लेकर पानी की लाइन में और कभी पर्ची कटा कर सरकारी अस्पताल की लाइन में खड़ा होकर अपनी बारी का इंतजार करता है, और इस देश का कर्णधार इन्हीं समस्या को दूर करने का हर बार इकरार करता है। लेकिन लोकतंत्र के उत्सव में आम आदमी से सम्मान पाकर फूल जाता है और काम निकल जाने पर नींव के पत्थर को भूल जाता है।
मतदाता और नेता का गहरा नाता है, चुनावी बेला में मतदाता बहुत याद आता है। एक दिन के लिए उसकी खूब खातिर होती है, और फिर पांच साल के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। इसलिए वो जनता जनार्दन कहलाता है, आम आदमी का क्या है? वो तो इस देश में सड़कों पर ही अपना जीवन खपा देता है। कोरे वादों और झूठे आश्वासन के साथ वोट देकर अपना कर्तव्य निभा लेता है।

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