...और तितली उड़ गई
रविराज प्रणामी
आवाज़ों का अपना अपना खिंचाव है! ये छिड़ी आवाज़ और पग खिंचते चले गए। आवाज़ें अपना चुंबकीय प्रभाव लिए घूमती हैं। यूकी कोयानागी की आवाज़ में दर्द का जो दरिया बहता है और आंखें छलका देता है वो प्रभाव जापानी कर्णश्रुतियों तक ही सीमित है! कुछ आवाज़ें ऐसी ही सीमितताओं में बंधी रहीं। दक्षिण के लिए हिंदी उच्चारण बड़ी चुनौती रही है और इसके रहते भी वहां के तमिल ब्राह्मण अय्यंगर परिवार से आई एक तितली ने सुरों में ताज़गी की ऐसी सुरभित झन्कार छेड़ी कि अकथित सिंहासन डोलने लगा! ‘प्रेम में अंधे होते सुना है पर लोग बहरे भी होते हैं!!’ इस तितली की सिमटी सी आवाज़ को लेकर कसा गया सबसे बड़ा तंज़।
‘चले जाना ज़रा ठहरो किसी का दम निकलता है ये मंज़र देख कर जाना’ (अराउंड द वर्ल्ड)। श्रोता ठहरने लगे और इस उड़ती उड़ती सी कमसिन शोख आवाज़ के मंज़र में खोने भी लगे! इस आवाज़ को भारतीय संगीत प्रेमियों के समक्ष लाने और सजाने का बीड़ा उठाया था संगीतकार शंकर (जयकिशन) ने फिल्मकार राज कपूर के आह्वान और उनकी वकालत पर। सरल-सी शब्द रचना सीधे-सीधे सुर लेकिन फलसफा बहुत गहरा, कविराज शैलेंद्र की कलम से निकला- तितली उड़ी, उड़ जो चली!
तितली उड़ने लगी उड़ती चली गई। कई सीमितताओं भरी इस आवाज़ पर फिर एक और सीमितता लिए दायरा चढ़ा कि सिर्फ प्रणय प्रसंग तक ही सीमित रही ये आवाज़। देखो मेरा दिल मचल गया (सूरज), जान ए चमन बांहों में आ जाओ (गुमनाम), आपके पीछे पड़ गई मैं (एक नारी एक ब्रह्मचारी), तुम को सनम पुकार के (दीवाना), और ये आवाज़ भी धीरे-धीरे अपनी जगह बनाती चली गई। शंकर ने उन्हें वे ही गीत दिये जिसमें ये आवाज़ फबती थी। कुछ कैबरे भी उनकी आवाज में थिरका गए! ऐसे ही फिल्म ‘जहां प्यार मिले’ के एक कैबरे ‘बात ज़रा है आपस की’ के लिए उन्हें श्रोताओं का प्यार भी मिला और वो अप्रतिम अवॉर्ड भी जो कई नामी-गिरामी गायकों संगीतकारों के लिए जीवन भर ख्वाब ही रहा! कई बड़े नाम फिल्मफेयर नहीं पा सके। जबकि इस अवॉर्ड के लिए शारदा चार बार नामांकित हुईं।
‘मेरी आवाज़ और उच्चारण हिन्दी के लिए वाकई चुनौती थी और इस चुनौती को स्वीकार कर पाना आसान नहीं था। शंकरजी ने इसे स्वीकार किया। मेरी विवशताओं और सीमितताओं को समझा, मुझे ट्रेंड किया, अपनी तरफ से गाने की बारीकियों को समझाने वाले गुरु से जोड़ा और मुझे प्रस्तुत किया। श्रोताओं के प्यार और आशीर्वाद ने मुझे शारदा बना दिया।’ शारदा राजन विनम्रता से कहती थीं।
शारदा अपने पति सौंदरा राजन के साथ जो उन दिनों ईरान एयर में थे, तेहरान में रह रहीं थी और तभी उनकी आवाज़ को वो पर मिले जिनसे वे फिल्मी दुनिया में हलचल मचाने उड़ती चली आईं। वे कहती हैं, ‘शारदा की आवाज़! बहुत से लोगों ने इसे सराहा और कई दिलों ने जलन के साथ अस्वीकार भी किया। पर मेरे आने से हलचल मच गई।’ वैसे शारदा भी स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर को ही आदर्श मानती रहीं! संगीतकार उषा खन्ना ने हौसला अफजाई की तो बाद-बाद में शारदाजी ने फिल्मों में संगीत भी दिया! रफी साहब का गाया ‘अच्छा ही हुआ दिल टूट गया’ (मां बहन और बीवी) उन्हीं की देन है।
रफी साहब के साथ शारदाजी ने कई दौरे किये। रफी साहब उन्हें पसंद भी करते थे और प्रोत्साहित भी करते थे। फिल्मी पार्श्व गायकों के मुकाबले पार्श्व गायिकाओं पर आयुर्देव अधिक प्रसन्न रहे हैं, कैंसर से जूझते शारदाजी भी 86 बरस तक हमारे बीच रहीं और फिर तितली…!